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आदिवासी जिलों में लाइफस्टाइल में बदलाव, धूम्रपान से गैर-संचारी रोगों (NCD) में वृद्धि: विशेषज्ञ

हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि एनसीडी आदिवासी आबादी की एक समस्या है. और फिर हमें यह देखना चाहिए कि हम कैसे आदिवासी संस्कृति और परंपरा को बनाए रखने में उनकी मदद कर सकते हैं जिसमें एक स्वस्थ जीवन शैली को बनाए रखना शामिल है.

विशेषज्ञों का कहना है कि भारत के आदिवासी जिलों में मधुमेह और कैंसर जैसे गैर-संचारी रोगों (Non-communicable diseases) के कारण होने वाली मौतों में वृद्धि के कारणों में अनहेल्दी फूड का सेवन, तम्बाकू धूम्रपान और शहरीकरण शामिल हो सकते हैं.

इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च (Indian Council of Medical Research) द्वारा हाल ही में भारत के 12 जनजातीय जिलों में 2015 से 2018 के बीच मृत जनजातीय लोगों के 5000 से अधिक परिवार के सदस्यों के इंटरव्यू से पता चला है कि गैर-संचारी रोगों से 66 प्रतिशत मौतें हुईं.

आईसीएमआर के नेशनल सेंटर फॉर डिसीज इंफॉर्मेटिक्स एंड रिसर्च, बेंगलुरु के निदेशक प्रशांत माथुर ने कहा “आदिवासी समुदायों को शहरीकरण, परिष्कृत खाद्य पदार्थों, फास्ट फूड, आसान सड़क परिवहन और आधुनिक जीवन शैली के जोखिम वाले कारकों से अवगत कराया जा रहा है. वे धीरे-धीरे जीने के अपने पारंपरिक और सांस्कृतिक तरीकों को छोड़ रहे हैं. इन सभी ने उनके जीवन को प्रभावित किया है.”

उन्होंने आगे कहा, “गैर-संचारी रोग मुख्य रूप से हमारे जीवन जीने के आधुनिक तरीकों से संचालित होते हैं और इस प्रकार 12 आदिवासी जिलों में एनसीडी के कारण अधिक से अधिक मामले और मौतें हो रही हैं.”

विशेषज्ञ ने कहा कि एनसीडी के कारण उच्च मृत्यु दर इन जनजातीय जिलों में जीवन प्रत्याशा में सुधार और संक्रामक रोगों के बेहतर नियंत्रण उपायों के कारण भी हो सकती है.

उन्होंने कहा, “पहले मलेरिया, टीबी, डायरिया जैसी कई तरह की संक्रामक बीमारियों से लोग मरते थे. अब बेहतर स्वच्छता और बेहतर संक्रामक नियंत्रण के साथ गैर-संचारी रोग एक बड़ी समस्या के रूप में उभर रहे हैं.”

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान (एम्स), नई दिल्ली में हेड ऑफ डिपार्टमेंट मेडिकल ऑन्कोलॉजी के प्रोफेसर ललित कुमार ने के अनुसार आदिवासी क्षेत्रों सहित ग्रामीण भारत “बहुत तेजी से” बदल रहे हैं और शहरी क्षेत्रों की तरह भोजन की आदतों में बदलाव देख रहे हैं जिससे एनसीडी में वृद्धि हो रही है.

उन्होंने MBB को बताया , “जंक फूड धूम्रपान और शराब की खपत बढ़ गई है. हालांकि आदिवासी लोग देसी शराब का सेवन करते हैं. लेकिन आम तौर पर मृत्यु के अन्य कारणों में से एक तिहाई धूम्रपान से संबंधित होते हैं जबकि अन्य एक तिहाई जंक फूड सहित आहार से संबंधित होते हैं.”

जन स्वास्थ्य विशेषज्ञ चंद्रकांत लहरिया ने दोनों विशेषज्ञों की बात से सहमति जताई. लहरिया का कहना था , “देशभर में एनसीडी बढ़ रहे हैं. इस स्टडी से पहले भी एनसीडी के लिए डायबिटीज, हाई ब्लड प्रेशर, मोटापा और अन्य जोखिम कारकों पर अध्ययन हुए थे. जनजातीय जिलों में वृद्धि सभी सेटिंग्स में तेजी से गतिहीन जीने के तरीके और जंक फूड आइटमों की गहरी पैठ और एक निष्क्रिय जीवन शैली के कारण है.”

वहीं प्रशांत माथुर ने आगाह किया कि जीवन शैली और भोजन की आदतों में सुधार के लिए हस्तक्षेप की कमी से भविष्य में जनजातीय आबादी के बीच एनसीडी में वृद्धि होगी. उन्होंने इस तथ्य को स्वीकार करते हुए कि आदिवासी आबादी एनसीडी से पीड़ित हैं और उनकी जागरूकता बढ़ाने से स्थिति को सुधारने में मदद मिल सकती है.

अधिक जागरूकता की आवश्यकता है. लेकिन पहले हमें यह स्वीकार करना चाहिए कि एनसीडी आदिवासी आबादी की एक समस्या है. और फिर हमें यह देखना चाहिए कि हम कैसे आदिवासी संस्कृति और परंपरा को बनाए रखने में उनकी मदद कर सकते हैं जिसमें एक स्वस्थ जीवन शैली को बनाए रखना शामिल है.

माथुर ने कहा, “विकास और सब कुछ वहां भी होना है. लेकिन हमें यह देखने की जरूरत है कि हम विकास प्रक्रियाओं बनाम स्वास्थ्य को कैसे संतुलित करते हैं. एक जनजातीय मंत्रालय है जो इन सभी पहलुओं को देखता है. मुझे लगता है कि विचार प्रक्रिया शुरू होनी चाहिए.”

यह कहते हुए कि अन्य भागों की तुलना में उत्तर पूर्व क्षेत्र में महिलाओं में सर्वाइकल कैंसर देश में सबसे अधिक है.

उन्होंने कहा, “एनसीडी में वृद्धि की उम्मीद है, निश्चित रूप से भविष्य में वृद्धि होगी. हम पिछले 20 वर्षों में इस तरह की वृद्धि देख रहे हैं. संख्या धीरे-धीरे बढ़ रही है. कैंसर के मामलों में बढ़ोतरी हुई है लेकिन ब्रेस्ट कैंसर अन्य कैंसर से ज्यादा है. इन 12 आदिवासी जिलों सहित पूरे देश में सर्वाइकल कैंसर, फेफड़े के कैंसर, पेट के कैंसर, गर्भाशय के कैंसर के मामलों में वृद्धि की उम्मीद है.”

दो साल पहले डॉ अभय बंग की अध्यक्षता में जनजातीय स्वास्थ्य पर एक विशेषज्ञ समिति द्वारा तैयार की गई सिफारिशों की ओर इशारा करते हुए लहरिया ने कहा कि समिति ने 2022 तक जनजातीय लोगों के लिए एक कार्यात्मक, टिकाऊ और सार्वभौमिक स्वास्थ्य देखभाल प्रणाली बनाने का सुझाव दिया है.

उन्होंने कहा, “इसने स्वास्थ्य बजट पर आवंटन और खर्च को कुल स्वास्थ्य बजट के 8.6 प्रतिशत के बराबर करने की भी सिफारिश की थी.”

आदिवासी इलाक़ों में किया गया यह शोध बहुत महत्वपूर्ण है. क्योंकि यह शोध आदिवासी इलाक़ों में पेश स्वास्थ्य चुनौतियों को रेखांकित करता है.

इस तरह के शोध नीति निर्माताओं को योजनाओं के निर्माण और प्राथमिकता तय करने में मदद कर सकते हैं.

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