भारत के स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में ऐसे भी नायक हुए हैं, जिनके संघर्ष की गूंज भले ही सीमित रही हो, लेकिन उनका साहस अमिट है.
ऊ तिरोत सिंह भी मेघालय की खासी जनजाति के ऐसे ही वीर योद्धा थे, जिन्होंने अंग्रेंज़ी समाज के खिलाफ निड़र होकर संघर्ष किया.
वर्ष 1802 में मेघालय के मायरंग क्षेत्र के एक खासी जनजाति परिवार में जन्मे उ तिरोत सिंह जन्मजात नेतृत्व क्षमता से संपन्न थे.
वे मेघालय के खासी हिल्स के खडसॉफ्रा के राजमुख्य (सीयेम) बने. बचपन से ही वे युद्ध-कला में निपुण थे और पराक्रम से भरे हुए थे.
भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र पर अंग्रेज़ों के बढ़ते प्रभाव ने उनके मन में अपनी भूमि और लोगों की रक्षा के लिए चिंतन पैदा कर दिया था.
अंग्रेजों की बढ़ती चालाकियां और तिरोत सिंह का प्रतिरोध
1826 में बर्मी सरकार और ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के बीच हुई यांडाबू संधि (यांदाबो संधि) के तहत जब ईस्ट इंडिया कंपनी ने असम व अन्य पूर्वी क्षेत्रों में प्रवेश किया तो इसका प्रभाव खासी इलाकों तक भी पहुँचने लगा.
इस दौरान अंग्रेजों ने सिलहट से गुवाहाटी तक एक सड़क बनाने की योजना बनाई. इस सड़क की लंबाई लगभग 138 किलोमीटर तय की गई थी.
गवर्नर जनरल डेविड स्कॉट ने सड़क निर्माण का प्रस्ताव राजा के सामने रखा और उ तिरोत सिंह से अनुमति मांगी.
प्रारंभ में अनुमति और फिर धोखे का आभास
तिरोत सिंह ने प्रारंभ में इस प्रस्ताव को स्थानीय व्यापार और सुविधा के दृष्टिकोण से देखा और सशर्त अनुमति दे दी. लेकिन जल्द ही हालात बदलने लगे.
एक बंगाली सेवक ने उ तिरोत सिंह को सावधान किया कि अंग्रेज़ केवल सड़क ही नहीं बना रहे बल्कि रास्ते में मकान भी बना रहे हैं. यह संकेत था कि अंग्रेज़ यहां स्थायी कब्ज़ा जमाने की योजना बना रहे हैं.
यह सुनकर उ तिरोत सिंह अत्यंत चिंतित हो उठे. उन्हें आभास हो गया कि अंग्रेज व्यापार और यातायात के नाम पर धीरे-धीरे खासी क्षेत्रों पर अधिकार करना चाहते हैं.
पहले तो तिरोत सिंह ने विकास कार्य समझकर सड़क निर्माण की अनुमति दी. लेकिन जल्दी ही उन्हें एहसास हुआ कि अंग्रेज़ सड़क के बहाने खासी इलाकों पर कब्ज़ा ज़माना चाहते हैं.
उ तिरोत सिंह ने खासी जनजाति योद्धाओं की सेना लेकर 4 अप्रैल 1829 को अंग्रेज़ों पर हमला बोल दिया. इस तरह जनजातीय सेना के साथ अंग्रेज़ों के खिलाफ एक ऐतिहासिक युद्ध की शुरुआत की.
अंग्रेजों की संगठित बड़ी सेना के सामने भी तिरोत सिंह की सेना अदम्य साहस और समर्पण के साथ लड़ी.
चार वर्षों तक चला वीरतापूर्ण संघर्ष
यह संघर्ष कोई साधारण युद्ध नहीं था. चार वर्षों तक चली यह लड़ाई अंग्रेजों के लिए भी आसान नहीं रही.
अंग्रेज़ जबरदस्ती सड़क निर्माण के प्रयास करते रहे और तिरोत सिंह की सेना बार-बार उनका सामना करती रही.
तिरोत सिंह ने अंग्रेजों को कड़ी टक्कर दी. लेकिन एक गद्दार के षड्यंत्र से 9 जनवरी 1833 को तिरोत सिंह को धोखे से पकड़ लिया गया. इस महान योद्धा को पकड़ कर ढाका जेल भेज दिया गया.
भारत मां के इस वीर सपूत ने 17 जुलाई 1835 को ढाका जेल में अंतिम सांसें लेता है. तिरोत सिंह ने केवल अपनी प्रजा की रक्षा को अपना धर्म समझा.
उनकी शहादत आदिवासी अस्मिता और स्वतंत्रता के संघर्ष का अमिट प्रतीक बन गई.
आज भी उ तिरोत सिंह को पूर्वोत्तर भारत के आदिवासी समाज में गर्व से याद किया जाता है. उन्होंने न सिर्फ अपनी भूमि की रक्षा के लिए लड़ाई लड़ी बल्कि एक पूरे समुदाय में स्वतंत्रता और आत्मसम्मान की चेतना भी जगा दी.