मध्य प्रदेश के चार आदिवासी ज़िलों में लगभग 40,000 बच्चे कोविड-19 महामारी की दूसरी लहर की वजह से स्कूल छोड़ने को मजबूर हुए हैं. मध्य प्रदेश बाल अधिकार संरक्षण आयोग (MPCPCR) के अनुसार इनमें कक्षा 1 से 12 तक के छात्र शामिल हैं.
कुल मिलाकर 10,500 छात्र अपने माता-पिता के साथ काम की तलाश में गुजरात और राजस्थान जैसे पड़ोसी राज्यों में चले गए हैं.
अकेले अलीराजपुर ज़िले में 12 हज़ार छात्रों ने पढ़ाई छोड़ी है. इनमें से 5,000 छात्र दूसरे शहरों में चले गए हैं. इसी तरह, धार ज़िले के 10,000 छात्र और झाबुआ ज़िले के भी इतने ही छात्र स्कूल से बाहर हो गए हैं.
इनमें से झाबुआ ज़िले के 3,000 और धार ज़िले के 2,500 छात्र अपने मूल स्थान को छोड़कर जा चुके हैं. ऐसे क़रीब 8,000 छात्र बैतूल ज़िले के भी हैं. यह आंकड़े इस साल जून के पहले हफ़्ते तक के हैं.
आयोग के सदस्यों ने 26 जुलाई से 11वीं और 12वीं कक्षा के स्कूलों को फिर से खोलने के सरकार के आदेश के मद्देनजर आदिवासी ज़िलों का दौरा किया था. उन्होंने चार ज़िलों के सभी ब्लॉक में संबंधित विभागों के अधिकारियों के साथ बैठक भी की.
आयोग के सदस्य ब्रजेश चौहान ने मीडिया को बताया कि इतनी बड़ी संख्या में छात्रों के स्कूल छोड़ने के पीछे महामारी की वजह से उनके माता-पिता की नौकरी चले जाना है.
कोविड ने हज़ारों आदिवासियों को काम की तलाश में गुजरात और राजस्थान जाने के लिए मजबूर किया है. चार-पांच महीनों तक अपने घर से दूर रहने की वजह से वह अपने बच्चों को भी साथ ले जाते हैं.
इस पलायन की एक बड़ी वजह मध्य प्रदेश में महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी (मनरेगा) के तहत कम मज़दूरी है. राज्य में मनरेगा की मज़दूरी 190 रुपये प्रति दिन है, जो कि कारखानों में काम करने वाले मजदूरों को मिलने वाले पैसों की तुलना में बहुत कम है.
गुजरात में मैन्युफैक्चरिंग यूनिट्स में एक व्यक्ति को प्रतिदिन लगभग 400 से 500 रुपये का भुगतान किया जाता है. आयोग के एक सदस्य ने कहा कि ज़ाहिर सी बात है कि आदिवासी उन जगहों पर काम करना पसंद करेंगे जहां उन्हें ज़्यादा पैसे मिलते हैं.
आयोग ने आदिवासी कल्याण विभाग को छात्रों के लिए हॉस्टल को अपग्रेड करने का सुझाव दिया है ताकि वह स्कूल छोड़ने को मजबूर न हों, जब उनके माता-पिता काम के लिए दूर जाएं. शिक्षा विभाग से भी ऐसे तरीक़े खोजने का सुझाव दिया गया है, जो छात्रों को स्कूलों की ओर आकर्षित करें.