HomeAdivasi Dailyआदिवासी टाइगर रिजर्व में अपनी ज़मीन का हक़ हासिल करने लौटे

आदिवासी टाइगर रिजर्व में अपनी ज़मीन का हक़ हासिल करने लौटे

जहां एक ओर आदिवासी समुदाय अपने पुश्तैनी जंगलों में लौटकर अपने हक के लिए शांतिपूर्ण ढंग से डटा हुआ है, वहीं दूसरी ओर सरकार और अधिकारी अब तक कोई ठोस कदम नहीं उठा पाए हैं

कर्नाटक में 52 आदिवासी परिवार कुछ दिनों पहले नागरहोल टाइगर रिजर्व में रहने के लिए पहुंचे थे.

यहां उन्होंने कुछ अस्थाई घर भी बना लिए हैं. इन आदिवासियों का कहना है कि वे अपनी पुश्तैनी ज़मीन पर वापस लौटे हैं.

उनके अनुसार लगभग 45 साल पहले वन्यजीव संरक्षण कानून के तहत उनकी ज़मीन जबरन खाली करवा ली गई थी.

ये परिवार जेनु कुरुबा, बेट्टा कुरुबा, यरवा और पनिया समुदायों से हैं. ये परिवार अब वन अधिकार अधिनियम (FRA) के तहत अपने ज़मीन के अधिकारों की मांग कर रहे हैं.

अनुमान है कि 20,000 जेनु कुरुबा लोगों को नागरहोल से अवैध रूप से बेदखल कर दिया गया था. अन्य 6,000 लोगों ने विरोध किया और पार्क में रहने में कामयाब रहे थे.

स्थानीय पुलिस अधिकारी और वन रक्षक घटनास्थल पर मौजूद हैं और पत्रकारों को क्षेत्र में जाने से रोका जा रहा है.

आदिवासियों का संघर्ष

यहां लौटे आदिवासियों का कहना है कि जंगल में अपने घर से विस्थापित होने के बाद उन्हें चाय बागानों और अन्य इलाकों में मजदूरी करनी पड़ी.

इन आदिवासियों का कहना है कि FRA आने के बाद उन्हें उम्मीद थी कि वे अपनी पुश्तैनी ज़मीन पर वापस लौट सकते हैं.

ये आदिवासी पहले भी कई बार शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर चुके हैं. लेकिन उन्हें वन अधिकार क़ानून 2006 के तहत ज़मीन का पट्टा नहीं दिया गया.

इस बार आदिवासियों ने अपनी देवताओं के लिए अस्थाई ढाँचे बनाए हैं और जंगल में ही रहना शुरू कर दिया है.

उनका कहना है कि जब तक उन्हें उनका कानूनी हक नहीं मिलेगा, तब तक उनका आंदोलन जारी रहेगा.

सरकार और अदालत का पक्ष

वन विभाग के एक रिटायर्ड वरिष्ठ अधिकारी बी.के. सिंह ने मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखकर कहा है कि जब तक सारी जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक आदिवासियों को ज़मीन देने की प्रक्रिया पर रोक लगाई जाए.

उनका कहना है कि अगर जंगलों में दोबारा लोगों को बसाया गया, तो इससे इंसानों और जंगली जानवरों के बीच संघर्ष बढ़ सकता है.

उन्होंने यह भी कहा है कि जिन लोगों ने 13 दिसंबर 2005 के बाद जंगल में आकर कब्ज़ा किया है, उन्हें ज़मीन देने पर विचार नहीं किया जाना चाहिए.

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की है. इस याचिका के बाद अदालत ने 25 जुलाई तक स्थिति को जैसे का तैसा बनाए रखने का आदेश दिया है. यानी न तो सरकार कुछ नया कर सकती है और न ही आदिवासियों को वहां से हटाया जा सकता है.

वन विभाग का कहना है कि जिन आदिवासियों ने 2009 में FRA के तहत ज़मीन के लिए आवेदन दिया था उन्हें पहले ही 2011 में खारिज कर दिया गया था.

विभाग के अनुसार, जिस अत्तूर कोल्ली के जंगल पर विवाद हो रहा है, वह पहले मानव बस्ती नहीं मानी जाती थी.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में आदेश दिया था कि सभी पुराने मामलों की फिर से जांच की जाए.

इसी के तहत 2024 में एक बार फिर अलग-अलग विभागों ने मिलकर सर्वे किया, लेकिन अफ़सोस की बात है कि आज तक उस सर्वे की रिपोर्ट ऊपर तक नहीं पहुंच पाई है. न तो उस पर अधिकारियों ने हस्ताक्षर हुए हैं और न ही कोई फ़ैसला लिया गया है. जबकि ये काम 4 महीने के भीतर हो जाना चाहिए था. इसी देरी को लेकर अब आदिवासी नाराज़ हैं.

नागरहोल क्षेत्र की सहायक वन अधिकारी अनन्या कुमार ने कहा कि अब जब जंगल में महिलाएं और बच्चे भी हैं, तो उन्हें ज़बरदस्ती हटाना सही नहीं होगा. अदालत का आदेश भी है कि 25 जुलाई तक कुछ भी नया नहीं किया जा सकता.

जेनु कुरुबा समुदाय का जंगल से नाता केवल ज़मीन का नहीं, बल्कि उनके विश्वास, परंपरा और जीवनशैली का हिस्सा है. उनके देवता, उनके रीति-रिवाज़ और यहाँ तक कि बाघों के साथ उनका जुड़ाव भी इस जंगल से जुड़ा हुआ है.

उनका मानना है कि ये जंगल और इसमें रहने वाले जीव उनके देवता हैं और वे पीढ़ियों से इनका संरक्षण करते आए हैं. यही वजह है कि नागरहोल जैसे इलाकों में बाघों की संख्या अच्छी-खासी है और यही कारण रहा कि सरकार ने इसे टाइगर रिज़र्व घोषित किया.

विडंबना ये है कि जिन आदिवासियों की देखभाल और संतुलित जीवनशैली ने बाघों को बचाए रखा, आज वही लोग अपने ही जंगल में रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

कर्नाटक में 52 आदिवासी परिवार कुछ दिनों पहले नागरहोल टाइगर रिजर्व में रहने के लिए पहुंचे थे.

यहां उन्होंने कुछ अस्थाई घर भी बना लिए हैं. इन आदिवासियों का कहना है कि वे अपनी पुश्तैनी ज़मीन पर वापस लौटे हैं.

उनके अनुसार लगभग 45 साल पहले वन्यजीव संरक्षण कानून के तहत उनकी ज़मीन जबरन खाली करवा ली गई थी.

ये परिवार जेनु कुरुबा, बेट्टा कुरुबा, यरवा और पनिया समुदायों से हैं. ये परिवार अब वन अधिकार अधिनियम (FRA) के तहत अपने ज़मीन के अधिकारों की मांग कर रहे हैं.

अनुमान है कि 20,000 जेनु कुरुबा लोगों को नागरहोल से अवैध रूप से बेदखल कर दिया गया था. अन्य 6,000 लोगों ने विरोध किया और पार्क में रहने में कामयाब रहे थे.

स्थानीय पुलिस अधिकारी और वन रक्षक घटनास्थल पर मौजूद हैं और पत्रकारों को क्षेत्र में जाने से रोका जा रहा है.

आदिवासियों का संघर्ष

यहां लौटे आदिवासियों का कहना है कि जंगल में अपने घर से विस्थापित होने के बाद उन्हें चाय बागानों और अन्य इलाकों में मजदूरी करनी पड़ी.

इन आदिवासियों का कहना है कि FRA आने के बाद उन्हें उम्मीद थी कि वे अपनी पुश्तैनी ज़मीन पर वापस लौट सकते हैं.

ये आदिवासी पहले भी कई बार शांतिपूर्ण प्रदर्शन कर चुके हैं. लेकिन उन्हें वन अधिकार क़ानून 2006 के तहत ज़मीन का पट्टा नहीं दिया गया.

इस बार आदिवासियों ने अपनी देवताओं के लिए अस्थाई ढाँचे बनाए हैं और जंगल में ही रहना शुरू कर दिया है.

उनका कहना है कि जब तक उन्हें उनका कानूनी हक नहीं मिलेगा, तब तक उनका आंदोलन जारी रहेगा.

सरकार और अदालत का पक्ष

वन विभाग के एक रिटायर्ड वरिष्ठ अधिकारी बी.के. सिंह ने मुख्यमंत्री को चिट्ठी लिखकर कहा है कि जब तक सारी जांच पूरी नहीं हो जाती तब तक आदिवासियों को ज़मीन देने की प्रक्रिया पर रोक लगाई जाए.

उनका कहना है कि अगर जंगलों में दोबारा लोगों को बसाया गया, तो इससे इंसानों और जंगली जानवरों के बीच संघर्ष बढ़ सकता है.

उन्होंने यह भी कहा है कि जिन लोगों ने 13 दिसंबर 2005 के बाद जंगल में आकर कब्ज़ा किया है, उन्हें ज़मीन देने पर विचार नहीं किया जाना चाहिए.

उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका भी दायर की है. इस याचिका के बाद अदालत ने 25 जुलाई तक स्थिति को जैसे का तैसा बनाए रखने का आदेश दिया है. यानी न तो सरकार कुछ नया कर सकती है और न ही आदिवासियों को वहां से हटाया जा सकता है.

वन विभाग का कहना है कि जिन आदिवासियों ने 2009 में FRA के तहत ज़मीन के लिए आवेदन दिया था उन्हें पहले ही 2011 में खारिज कर दिया गया था.

विभाग के अनुसार, जिस अत्तूर कोल्ली के जंगल पर विवाद हो रहा है, वह पहले मानव बस्ती नहीं मानी जाती थी.

हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में आदेश दिया था कि सभी पुराने मामलों की फिर से जांच की जाए.

इसी के तहत 2024 में एक बार फिर अलग-अलग विभागों ने मिलकर सर्वे किया, लेकिन अफ़सोस की बात है कि आज तक उस सर्वे की रिपोर्ट ऊपर तक नहीं पहुंच पाई है. न तो उस पर अधिकारियों ने हस्ताक्षर हुए हैं और न ही कोई फ़ैसला लिया गया है. जबकि ये काम 4 महीने के भीतर हो जाना चाहिए था. इसी देरी को लेकर अब आदिवासी नाराज़ हैं.

नागरहोल क्षेत्र की सहायक वन अधिकारी अनन्या कुमार ने कहा कि अब जब जंगल में महिलाएं और बच्चे भी हैं, तो उन्हें ज़बरदस्ती हटाना सही नहीं होगा. अदालत का आदेश भी है कि 25 जुलाई तक कुछ भी नया नहीं किया जा सकता.

जेनु कुरुबा समुदाय का जंगल से नाता केवल ज़मीन का नहीं, बल्कि उनके विश्वास, परंपरा और जीवनशैली का हिस्सा है. उनके देवता, उनके रीति-रिवाज़ और यहाँ तक कि बाघों के साथ उनका जुड़ाव भी इस जंगल से जुड़ा हुआ है.

उनका मानना है कि ये जंगल और इसमें रहने वाले जीव उनके देवता हैं और वे पीढ़ियों से इनका संरक्षण करते आए हैं. यही वजह है कि नागरहोल जैसे इलाकों में बाघों की संख्या अच्छी-खासी है और यही कारण रहा कि सरकार ने इसे टाइगर रिज़र्व घोषित किया.

विडंबना ये है कि जिन आदिवासियों की देखभाल और संतुलित जीवनशैली ने बाघों को बचाए रखा, आज वही लोग अपने ही जंगल में रहने के लिए संघर्ष कर रहे हैं.

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