मुंबई को भारत की वित्तीय राजधानी, मैक्सिमम सिटी, बॉलीवुड के घर के तौर पर सब जानते हैं. लेकिन कम ही लोगों को यह पता है मुंबई के बीचोबीच हज़ारों आदिवासी भी रहते हैं.
एक समय पर मुंबई में 222 आदिवासी बस्तियाँ हुआ करती थीं. लेकिन अब सिर्फ़ 59 बस्तियां बची हैं. इनमें से 27 आरे कॉलोनी में हैं, नौ गोराई इलाक़े में और बाकि संजय गांधी नैशनल पार्क में.
कोविड-19 की दूसरी लहर के चलते 14 अप्रैल से मुंबई में लॉकडाउन लगा है. इसका सबसे बुरा असर शहर के हाशिए पर रहने वाले लोगों की आजीविका पर पड़ा है. इनमें 10,000 आदिवासी भी शामिल हैं.
मुंबई नगरपालिका के जल विभाग में काम करने वाले एक आदिवासी प्रकाश भोइर ने मीडिया को बताया कि स्थिति इतनी खराब है कि लोग विहार झील में मछली पकड़ने को मजबूर हैं.

कुछ आदिवासी जंगल में सब्जियां उगा रहे हैं, जिसे वो जंगल के बाहर सुबह-सुबह बेचते हैं. लेकिन सब आदिवासियों के पास यह विकल्प नहीं है.
कई आदिवासी औरतें मुंबई के घरों में काम करती हैं. लेकिन लॉकडाउन की वजह से उन्हें काम के लिए हाउसिंग सोसायटी में प्रवेश की अनुमति नहीं है.
कई हाउसिंग सोसायटीज़ में कोविड के मामले भी ज़्यादा हैं. ऐसे में यह लोग वहां काम पे जाने का जोखिम नहीं उठाना चाहते. ऐसे में उनकी कमाई पूरी तरह से बंद हो गई है.
महाराष्ट्र सरकार ने ऐसी महिलाओं की मदद के लिए एक योजना बनाई है, जिसके तहत उनके बैंक खाते में सीधा पैसे आने हैं. लेकिन ज़्यादातर को यह पैसा नहीं मिला है.
राज्य सरकार ने गरीबों को राशन देने का ऐलान तो किया था, लेकिन आदिवासी कहते हैं कि यह पर्याप्त नहीं है. इस राशन में सिर्फ़ चावल और गेहूं दिया जाता है.
कई संगठनों ने मांग की है कि राशन की दुकानों में चावल और गेहूं के अलावा कम से कम प्याज़ और आलू उपलब्ध कराया जाए. लेकिन फ़िलहाल इस मांग पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है.
महाराष्ट्र सरकार ने पिछले साल आदिवासियों के लिए ख़ास योजना भी तैयार की थी. इसके तहत हर परिवार को 2000 रुपये की वित्तीय सहायता, और 2000 रुपये का ज़रूरी सामान दिया जाना है.
लेकिन लाभार्थियों की सूची को अंतिम रूप दिया जाना अभी भी बाकी है, इसलिए आदिवासियों को पैसा या सामान नहीं मिल रहा है.