कर्नाटक के कोडगु ज़िले के बालुगोडु गांव के पास बसे कुट्टीपरम्बु में येरवा आदिवासी समुदाय के 25 परिवार बीते सात साल से अस्थायी झोंपड़ियों में रह रहे हैं.
बरसात के मौसम में हालात और भी बदतर हो जाते हैं. न छत मजबूत है, न ज़मीन सूखी और न ही शौचालय, बिजली और पीने के पानी की सुविधा.
इन परिवारों की यह हालत आज की नहीं है. पहले ये सभी पास के एक चाय बागान में बने ‘लाइन हाउस’ नाम के छोटे मकानों में रहा करते थे. लेकिन जब उन्हें यह समझ आया कि वहां उन्हें कभी ज़मीन का या मकान का कोई अधिकार नहीं मिलेगा तो उन्होंने उस जगह को छोड़ दिया.
करीब सात साल पहले, इन आदिवासियों ने सरकार की एक खाली पड़ी ज़मीन पर आकर रहना शुरू किया.
उनका यह कदम सरकार को यह बताने के लिए एक शांतिपूर्ण विरोध था कि जब तक उन्हें रहने के लिए अपना घर नहीं मिलेगा, वे खुद अपनी जगह चुन लेंगे.
शुरुआत में अधिकारियों ने उन्हें हटाने की कोशिश की. लेकिन आदिवासियों के प्रदर्शन के बाद अधिकारियों ने उन्हें आश्वासन दिया कि यहां घर बनाए जाएंगे और ज़मीन का हक भी मिलेगा.
आदिवासियों को बताया गया कि ज़मीन की नापजोख हो चुकी है और जल्द ही मकान निर्माण शुरू होगा. लेकिन यह सब आज तक सिर्फ कागज़ों और बातों तक ही सीमित है.
स्थानीय आदिवासी महिला शोभा कहती हैं, “दो साल पहले कहा गया था कि घर बनेंगे और हमें ज़मीन दी जाएगी, लेकिन अब तक कोई नहीं आया. हम बारिश में भीगते हैं, बच्चों को संभालते हैं, झोंपड़ी की फटी छत से पानी टपकता है, लेकिन कोई पूछने वाला नहीं है. ना टेंट मिला, ना चादर, और ना ही कोई मदद.”
बरसात के दिनों में मिट्टी की ज़मीन गीली होकर फिसलन भरी हो जाती है. जिन प्लास्टिक की चादरों से झोंपड़ियों की छत ढकी है, वे अब पुरानी और जगह-जगह से फटी हुई हैं.
बारिश के समय ज़्यादातर आदिवासी एक बड़ी तिरपाल के नीचे इकट्ठा होकर बैठते हैं ताकि भीगने से बच सकें.
बिजली की सुविधा नहीं होने के कारण रात में अंधेरा रहता है और चूंकि ये इलाका जंगल के पास है तो आसपास जानवरों का डर भी बना रहता है.
इन लोगों का कहना है कि सरकार और राजनीतिक दलों को उनकी याद सिर्फ चुनाव के समय आती है. उसके बाद कोई लौटकर नहीं देखता.
एक बुज़ुर्ग व्यक्ति ने दुख जताते हुए कहा कि उन्हें किसी भी राजनीतिक पार्टी से कोई उम्मीद नहीं है, केवल चुनाव के वक्त ही उन पर ध्यान दिया जाता है.
अब इन 25 परिवारों की मांग साफ है, वे चाहते हैं कि उन्हें रहने की ज़मीन का अधिकार पत्र मिले. सरकार द्वारा उनके लिए पक्के मकान बनाए जाएं और बिजली, शौचालय, पानी और बच्चों के लिए शिक्षा की बुनियादी ज़रूरतें सुनिश्चित की जाएं.
कुट्टीपरम्बु की ये कहानी सिर्फ एक आदिवासी बस्ती की नहीं है. ये उस सच्चाई की एक झलक है जिसमें आज भी सैकड़ों आदिवासी परिवार अपनी पहचान और अपने अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे हैं.
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