HomeColumnsघोटिया आंबा धाम: आदिवासी ज़मीन और स्वतंत्र धार्मिक पहचान की लड़ाई

घोटिया आंबा धाम: आदिवासी ज़मीन और स्वतंत्र धार्मिक पहचान की लड़ाई

देश के बड़े हिस्से में आदिवासी समुदाय अपनी स्वतंत्र धार्मिक पहचान और ज़मीन पर दावा ठोक रहे हैं. उधर हिन्दू संगठन धर्मांतरण और डीलिस्टिंग जैसे मुद्दों को उछाल रहा है.

राजस्थान में बांसवाड़ा जिले के घोटिया आंबा धाम (Ghotiya Amba) पर भारत आदिवासी परिवार द्वारा  24 सितंबर को आदिवासी अधिकार दिवस (Tribal Rights Day) कार्यक्रम को लेकर विवाद खड़ा हो गया है.

इस कार्यक्रम में सांसद राजकुमार रोत (Rajkumar Roat) के शामिल होने पर कुछ हिंदू संगठन नाराज थे. इस विरोध के कारण घोटिया आंबा पर कार्यक्रम के दौरान के पास स्थिति बिगड़ने की आशंका थी. 

इसलिए प्रशासन ने आदिवासी अधिकारी दिवस के आयोजन के दौरान चार थानों की पुलिस की तैनात की थी. पुलिस की भारी मौजूदगी के कारण किसी तरह की अप्रिय घटना नहीं हुई. जिससे प्रशासन ने भी राहत की सांस ली है. 

राजकुमरा रोत के घोटिया अंबा धाम आने को लेकर विरोध का कारण उनका एक बयान बताया गया था. राजकुमार रोत ने अपने एक भाषण में कहा था कि आदिवासी हिंदू नहीं है. इसलिए हिंदू संगठनों का कहना था कि जब वे खुद को हिंदू नहीं मानते, तो हिंदू धर्म स्थल पर क्यों आ रहे हैं?

हिन्दू संगठनों का कहना है कि घोटिया अंबा धाम को पवित्र स्थल माना जाता है. जहाँ पांडवों ने अपने अज्ञातवास के दौरान समय बिताया था. यहाँ पांडवों की मूर्तियाँ, एक प्राचीन शिव मंदिर और एक पवित्र तालाब है. इस तलाब में आस-पास के हिंदू धर्म को मानने वाले लोग अस्थि विसर्जन करते हैं.

भारत आदिवासी पार्टी द्वारा राजस्थान के विभिन्न जिलों में ‘आदिवासी अधिकार दिवस’ कार्यक्रम आयोजित किए जा रहे हैं, जिनका उद्देश्य आदिवासी समुदायों को संगठित करना और उनके कानूनी अधिकारों के बारे में जागरूकता बढ़ाना बताया गया है. 

उदयपुर, प्रतापगढ़ और अन्य क्षेत्रों में पहले ही कार्यक्रम आयोजित हो चुके हैं, और बांसवाड़ा का कार्यक्रम इसी श्रृंखला का हिस्सा था. इस कार्यक्रम के दौरान पैदा हुए विवाद पर राजकुमार रोत ने प्रतिक्रिया देते कुछ लोगों पर हिंसा भड़काने की साज़िश का आरोप लगाया था. 

आदिवासी की धार्मिक पहचान का मुद्दा पहली बार राजस्थान में विवाद का मुद्दा नहीं बना है. यह मुद्दा कई बार चर्चा में भी आया है और विवाद का कारण भी बना है. हिन्दू संगठन ये दावा करते रहे हैं कि भारत के सभी आदिवासी समुदाय मुलत: हिन्दू ही हैं. 

जबकि आदिवासी परिवार और कई अन्य आदिवासी संगठन यह कहते हैं कि आदिवासियों की अपनी स्वतंत्र धार्मिक पहचान है. आदिवासी संगठनों का तर्क है कि आदिवासी मूलत: प्रकृति पूजक है. 

देश के आदिवासी समुदायों में धर्मांतरण का मुद्दा इस पूरी बहस की जड़ में है. राष्ट्रीय स्यंव सेवक संघ से जुड़े संगठन कहते हैं कि ईसाई धर्म प्रचराक आदिवासियों का बहला-फुसलाकर या फिर लालच दे कर धर्मांतरण कर रहे हैं. 

इस विषय में कई आदिवासी कार्यकर्ताओं का कहना है कि भारत का संविधान किसी भी व्यक्ति को अपना धर्म चुनने का अधिकार देता है. यह अधिकार आदिवासी समुदायों के लोगों को भी हासिल है. इसलिए कोई आदिवासी अगर ईसाई धर्म अपना लेता है तो उसे ग़ैर क़ानूनी नहीं कहा जा सकता है.

इसके साथ ही एक तर्क यह भी है कि जैसे कुछ आदिवासी ईसाई धर्म का अनुसरण करने लगे हैं वैसे ही बड़ी संख्या में आदिवासी हिंदू धर्म का पालन भी कर रहे हैं. 

आदिवासी की धार्मिक पहचान और धर्मांतरण से जुड़ा एक और विवाद है. यह विवाद धर्मांतरित आदिवासियों को अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाले आरक्षण पर है. RSS से जुड़ा संगठन जनजातीय सुरक्षा मंच कई साल से यह मांग कर रहा है कि जिन आदिवासियों ने ईसाई या कोई अन्य धर्म अपना लिया है उनका आरक्षण ख़त्म होना चाहिए. 

इस मामले में हिन्दू संगठनों की तरफ से तर्क दिया जाता है कि जब आदिवासी ईसाई धर्म अपना लेता है तो वह अपनी संस्कृति को छोड़ देता है. इसलिए उसे अनुसूचित जनजाति की सूचि में नहीं रखा जाना चाहिए. 

इस मांग को ‘डीलिस्टिंग आंदोलन’ के नाम से जाना जाता है.

राजस्थान में आदिवासी अधिकार दिवस कार्यक्रमों की श्रृंखला में बांसवाड़ा जिले के घोटिया आंबा धाम पर राजकुमार रोत के आने से जुड़े विवाद की पृष्ठभूमि में यह सारी बातें भी देखी जा सकती हैं. 

आदिवासी ज़मीन और पहचान पर दावा

राजस्थान में बांसवाड़ा जिले के घोटिया आंबा धाम (Ghotiya Amba) को आदिवासी अधिकार दिवस के एक कार्यक्रम के लिए चुने जाना कोई संयोग नहीं है. राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र के भील बहुल इलाकों में प्रभाव रखने वाले आदिवासी परिवार नाम का संगठन आदिवासियों में आदिवासियों के संवैधानिक अधिकारों और आदिवासी पहचान के लिए अभियान चला रहा है.

इस अभियान में आदिवासी परिवार चिंतन शिविर यानि ट्रेनिंग कैंप चलाता है. इन चिंतन शिविरों का स्वरूप सीधा सीधा राजनीतिक तो नहीं होता है, लेकिन अंतत ये कार्यक्रम आदिवासियों में राजनीतिक चेतना को पैदा करने के लक्ष्य से ही आयोजित होते हैं.

इन कार्यक्रमों में आदिवासियों को अनुसूचि 5, पेसा एक्ट या फिर आदिवासियों की स्वतंत्र धार्मिक पहचान की बातें होती हैं. आदिवासी परिवार के कार्यक्रमों में एक और बात नोटिस की जाएगी कि इन कार्यक्रमों में वक्ताओं के तेवर आक्रमक रहते हैं. इस शिविरों में भाग लेने वाले आमतौर पर जवान लड़के नज़र आते हैं. लड़कियों की उपस्थिति होती है लेकिन नाममात्र के लिए ही होती है. 

इस अभियान का ही परिणाम है कि राजस्थान, गुजरात और मध्य प्रदेश की सीमाओं पर स्थिति पहाड़ियों के मानगढ़ धाम को आज आदिवासी स्वतंत्रता स्मारक के तौर पर जाना जाता है. प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने मानगढ़ धाम जा कर यह घोषणा की थी.

मानगढ़ धाम को राष्ट्रीय स्मारक घोषित किये जाने कई साल पहले से आदिवासी परिवार लाखों लोगों के कार्यक्रम यहां पर करता रहा था. इसी दबाव में केंद्र सरकार को मानगढ़ धाम को राष्ट्रीय स्मारक घोषित करना पड़ा.

मानगढ धाम पर जो आदिवासी परिवार के जो कार्यक्रम आयोजित होते रहे वे एक मेले की रुप में ही होते थे. लेकिन इन मेलों के केंद्र में भी आदिवासियों की स्वतंत्र धार्मिक पहचान की बहस रहती थी. राजस्थान में बांसवाड़ा जिले के घोटिया आंबा धाम (Ghotiya Amba) पर आदिवासी अधिकार दिवस का कार्यक्रम आयोजित करने के पीछे भी यही मंशा है कि इस पर आदिवासी दावा ठोंका जाए.

राजस्थान के बांसवाड़ा और आस-पास के ज़िलों के अलावा गुजरात के कई ज़िलों में आदिवासी कार्यकर्ता यह दावा करते हैं कि घोटिया आंबा आदिवासियों का धर्म स्थल है जिस पर हिंदू धर्म के लोगों ने कब्ज़ा कर लिया है. 

आदिवासी ज़मीन, धार्मिक स्थलों और स्वतंत्र धार्मिक पहचान की लड़ाई के कई और उदाहरण अन्य राज्यों में भी मिलते हैं. मसलन झारखंड में जनवरी 2023 में मरांग बुरू पहाड़ी पर जैन तीर्थ स्थल पारसनाथ पर भी आदिवासियों ने दावा पेश किया था. यहां हज़ारों की तादाद में लोग जमा हो कर इस पहाड़ पर पहुंचे थे.

इसके अलावा झारखंड, ओडिशा, पश्चिम बंगाल जैसे कई राज्यों में अलग सरना धर्म कोड की मांग हो रही है. 

यह कहा जा सकता है कि देश के बड़े हिस्से में आदिवासी समुदाय अपनी स्वतंत्र धार्मिक पहचान और ज़मीन पर दावा ठोक रहे हैं. उधर हिन्दू संगठन धर्मांतरण और डीलिस्टिंग जैसे मुद्दों को उछाल रहा है. कुल मिला कर एक प्रतिस्पर्ध्दा आदिवासी जनमानस को जीतने की चल रही है. इस प्रतिस्पर्ध्दा के निश्चित ही कई राज्यों की राजनीति पर प्रभाव भी है और होगा. 

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