झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) और कांग्रेस का गठबंधन फ़िलहाल झारखंड में सरकार चला रहा है. अभी राज्य में चुनावों की औपचारिक घोषणा नहीं हुई है लेकिन यह माना जा रहा है कि नवंबर-दिसबंर में यहां चुनाव होंगे. लोकसभा चुनाव 2024 के चुनाव परिणामों पर नज़र डालें तो यहां बीजेपी ने 14 में से 9 सीटें जीत ली थीं.
लेकिन बीजेपी राज्य में आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित 5 में से एक भी सीट नहीं जीत पाई थी. ये पांचों सीट झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस पार्टी ने जीती हैं. अगर इस चुनाव परिणाम की तुलना अगर साल 2019 के लोकसभा चुनाव से की जाए तो बीजेपी को घाटा हुआ है.
2019 में बीजेपी ने 14 में से 12 सीटें जीत ली थीं. इस लिहाज़ से जेएमएम और कांग्रेस को इस साल के विधान सभा चुनाव से कुछ महीने पहले ही उत्साहित होने का एक कारण तो मिला है. लेकिन उसके लिए एक चिंता की बात भी है, क्योंकि वह एक भी ग़ैर आदिवासी सीट पर चुनाव नहीं जीत पाए हैं.
झारखंड, जिसे 2000 में बिहार से अलग कर एक नया राज्य बनाया गया था, ऐतिहासिक रूप से आदिवासी हितों की राजनीति का केंद्र रहा है. राज्य में आदिवासी समुदाय की आबादी 26% के करीब है.
आदिवासी समुदाय झारखंड के राजनीतिक परिदृश्य में एक निर्णायक भूमिका निभाते रहे हैं. लेकिन क्या कोई पार्टी या गठबंधन सिर्फ़ आदिवासी वोटों के भरोसे सत्ता में वापसी कर सकते हैं या नहीं, इस सवाल का जवाब देने के लिए हमें झारखंड के व्यापक सामाजिक और राजनीतिक संदर्भ का विश्लेषण करना होगा.
आदिवासी समुदाय का झारखंड चुनाव में स्थान
झारखंड का इतिहास आदिवासी संघर्षों से जुड़ा हुआ है. संथाल विद्रोह, बिरसा मुंडा का आंदोलन, और कई अन्य आदिवासी संघर्षों ने इस राज्य के आदिवासी समुदायों को संगठित किया और उन्हें एक राजनीतिक शक्ति के रूप में उभारा है.
झारखंड की 81 विधानसभा सीटों में से लगभग 28 सीटें अनुसूचित जनजाति (ST) के लिए आरक्षित हैं. इन सीटों पर झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस की पकड़ मजबूत मानी जाती है
झारखंड मुक्ति मोर्चा ने राज्य के निर्माण के लिए एक लंबी लड़ाई लड़ी और आदिवासी अधिकारों की आवाज उठाई है. आज भी राज्य के आदिवासी इलाकों में राष्ट्रीय दलों बीजेपी या कांग्रेस के मुकाबले जेएमएम में ज़्यादा भरोसा देखा जाता है.
हेमंत सोरेन ने अपने पिता शिबू सोरेन की विरासत को कामयाबी से संभाल लिया है. उनका आदिवासी समुदाय के बीच एक मजबूत जनाधार और उनके समर्थन है. जब ईडी हेमंत सोरेन को ग़िरफ़्तार किया था तो लोकसभा चुनाव में आदिवासी इलाकों में इसका निर्णायक असर दिखाई दिया था.
पिछले पांच साल में हेमंत सोरेन सरकार ने आदिवासियों को बरक़रार रखने के लिए कई फ़ैसले किये हैं. इनमें सरना धर्म कोड की मांग के समर्थन में प्रस्ताव पास करना शामिल रहा है. इसके अलावा आदिवासियों के लिए स्थानीय नीति 1932 खातियान को लागू करने की मांग पर भी उन्होंने सकारात्मक रुख अपनाया था.
लोकसभा चुनाव के परिणाम और आदिवासी इलाकों में लोगों की बातचीत से ऐसा कहा जा सकता है कि JMM को अगले विधान सभा चुनाव में आदिवासी का समर्थन मिलेगा. लेकिन इतिहास यह भी बताता है कि बेशक आदिवासी झारखंड की सत्ता तक पहुंचने के लिए बेहद ज़रूरी है, लेकिन सिर्फ़ और सिर्फ़ आदिवासी मतदाता के भरोसे सत्ता तक पहुंचना नामुमिकन है.
झारखंड मुक्ति मोर्चा जब भी सत्ता में आई है उसे कांग्रेस या बीजेपी का सहारा लेना ही पड़ा है.
ग़ैर आदिवासी वोटों का गणित
झारखंड में आदिवासी मतदाता एक प्रमुख वोट बैंक हैं, परंतु राज्य की राजनीति केवल उनके इर्द-गिर्द नहीं घूमती है. झारखंड की आबादी में ओबीसी (अन्य पिछड़ा वर्ग), दलित, मुस्लिम, और सवर्ण मतदाताओं की बड़ी जनसंख्या है. इनमें ओबीसी यानि अन्य पिछड़ा वर्ग की जनसंख्या बड़ी है.
यह जनसंख्या 45-50 प्रतिशत बताई जाती है. जबकि राज्य की कुल जनसंख्या का करीब 14 प्रतिशत मुसलमानों का है. कुल मिलाकर, राज्य में आदिवासी समुदायों के अलावा गैर-आदिवासी समुदायों का वोट 70% से अधिक है.
अभी तक यह देखा गया है कि ओबीसी समुदाय, जो राज्य की बड़ी आबादी का हिस्सा हैं, आमतौर पर भाजपा के समर्थन में माने जाते हैं. कांग्रेस, जो राज्य में झारखंड मुक्ति मोर्चा के साथ गठबंधन में है, परंपरागत रूप से मुस्लिम और दलित वोटों पर अपनी पकड़ रखती है.
इस लिहाज़ से झारखंड मुक्ति मोर्चा जब कांग्रेस के साथ आ जाता है तो फिर यह गठबंधन मजबूत दिखाई देने लगता है.
बीजेपी की रणनीति
झारखंड में बीजेपी एक मजबूत पार्टी है. 2019 में चुनाव हारने के बाद भी बीजेपी राज्य में अपने आधार को बनाए रखने में कामयाब रही है. लेकिन आदिवासी इलाकों में पार्टी का आधार काफ़ी कमज़ोर हुआ है. यह भी कहा जा रहा कि है कि झारखंड में आदिवासी बीजेपी को एक आदिवासी विरोधी पार्टी के तौर पर देखने लगा है.
इसका मुख्य कारण बीजेपी की रघुबर दास की सरकार के कार्यकाल में भूमि क़ानूनों से छेड़छाड़ को माना जाता है.
लेकिन लोकसभा चुनाव के परिणामों को अगर बारीकी से देखें तो यह पता चलता है कि ना सिर्फ़ ग़ैर आदिवासी क्षेत्रों में बीजेपी ने जीत हासिल की थी बल्कि कई लोकसभा क्षेत्रों में ज़्यादातर विधानसभा इलाकों में उसे बढ़त मिली थी. लोकसभा चुनाव में 50 से ज़्यादा सीटों पर उसे बढ़त हासिल हुई थी.
फ़िलहाल ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि बीजेपी ने अपने बड़े आदिवासी नेताओं को अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए कहा है. पार्टी की रणनीति के अनुसार अगर पार्टी राज्य अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित सीटों में से 5-7 सीट भी जीतने में कामयाब रहती है तो वह सत्ता में पहुंच सकती है.
इसके अलावा अवैध बांग्लादेशी घुसपैठ और रोहिंग्या मुसलमानों के मुद्दे उछाल कर बीजेपी आदिवासी वोटों में बिखराव की कोशिश भी कर रही है.
गठबंधन के सामने चुनौती
झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वे केवल आदिवासी वोटों के भरोसे सत्ता में वापसी नहीं कर सकते. इस बात का अहसास गठबंधन को भी है. इसलिए झारखंड सरकार ने मईंया योजना के तहत राज्य की महिलाओं को 1000 रुपए महीना दिया जा रहा है.
देश के अलग अलग राज्यों और लोकसभा चुनावों के विश्लेषण में यह बात बार बार सामने आई है कि अब महिलाओ वोटर परिवार के पुरूषों के इशारे पर वोट नहीं करती है. वह अपना फ़ायदा और नुकसान का आकलन कर स्वतंत्र तरीके से वोट कर रही है.
झारखंड के सत्ताधारी गठबंधन ने इस बात को शायद समझा है, लेकिन क्या राज्य सरकार ने इस योजना को लागू करने में देरी कर दी है…यह देखना होगा. क्योंकि योजना को लागू करने और उसका लाभ ज़मीन तक पहुंचने में समय लगता है.
इसके अलावा कांग्रेस के नेता राहुल गांधी लगातार जातिगत जनगणना की वकालत कर रहे हैं. बल्कि यह उनका कोर ऐजेंडा बन चुका है. इसका फ़ायदा भी गठबंधन को हो सकता है.