HomeElections 2024महाराष्ट्र की आदिवासी सीटों पर बीजेपी का सबसे बड़ा दांव है

महाराष्ट्र की आदिवासी सीटों पर बीजेपी का सबसे बड़ा दांव है

2014 और 2019 के रिकॉर्ड को देखें तो आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित सीटों पर बीजेपी को बड़ी कामयाबी मिली थी. इस लिहाज़ से उसके लिए चुनौती बड़ी है.

महाराष्ट्र में सभी 288 सीटों के लिए एक चरण में 20 नवंबर को विधानसभा चुनाव (Maharashtra Assembly Elections 2024) के लिए वोटिंग होगी. आज यहां पर चुनाव प्रचार का आख़िरी दिन है.

महाराष्ट्र की 288 विधानसभा सीटों में से 25 अनुसूचित जनजातियों (Scheduled tribes) के लिए आरक्षित हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक, महाराष्ट्र में अनुसूचित जनजातियों (ST) की जनसंख्या 1.05 करोड़ है, जो राज्य की कुल जनसंख्या का लगभग 10 फीसदी हिस्सा बनाते हैं और ये मुख्य रूप से उत्तरी महाराष्ट्र और विदर्भ क्षेत्रों में रहते हैं.

राज्य के 36 जिलों में से 21 जिलों में कम से कम 1 लाख आदिवासी रहते हैं.

सबसे बड़ी आदिवासी जातियों में भील, गोंड, कोली और वरली शामिल हैं, जिनकी कुल संख्या लगभग 65 लाख है. करीब 5 लाख लोग विशेष रूप से कमजोर जनजातीय समूहों (PVTGs) से आते हैं.

राज्य की 38 विधानसभा सीटें ऐसी हैं जहां आदिवासी आबादी का कम से कम 20 फीसदी हिस्सा है. आदिवासी समुदाय राज्य के 47 से ज्यादा निर्वाचन क्षेत्रों को प्रभावित करता है.  इससे चुनावी समीकरण में आदिवासी वोटों की अहमियत पता चलती है.

2019 में किसने कितनी ST सीटें जीतीं

साल 2019 के विधान सभा चुनाव में बीजेपी ने महाराष्ट्र में अनुसूचित जनजाति के लिए आरक्षित 8 सीटें जीती थीं. शिव सेना ने आदिवासी समुदायों के लिए आरक्षित सीटों में से 3 सीटें पर जीत हासिल की थी.

इसके अलावा एनसीपी को कुल 6 आदिवासी सीटों पर कामाबी मिली थी जबकि कांग्रेस पार्टी ने चार सीटें जीती थीं. अन्य के खाते में भी 4 अनुसूचित जनजाति सीटें गई थीं.

आदिवासी और उसके मुद्दे

महाराष्ट्र में सत्तारूढ़ महायुति और विपक्षी महा विकास अघाड़ी (एमवीए) दोनों ही आर्थिक और राजनीतिक मुद्दों के बजाय बयानबाजी पर चुनाव लड़ रहे हैं.

सत्तारूढ़ गठबंधन सांप्रदायिक मुद्दों पर मतदाताओं को लामबंद करने की कोशिश कर रहा है. वहीं विपक्षी गठबंधन पार्टी की विरासत को उभारकर अपील करना चाहता है.

जबकि आर्थिक और आजीविका के मुद्दे, जिसे राज्य के नागरिकों, विशेष रूप से किसानों, आदिवासियों और चरवाहे समुदायों द्वारा बार-बार उठाया गया है…उसकी बात कोई नहीं कर रहा है.

राज्य में वन अधिकार अधिनियम, 2006 (FRA) के वादे को पूरा करने की लगातार मांग के साथ-साथ MSP से संबंधित मुद्दे भी हैं.

वन अधिकार अधिनियम, जिसके लागू होने के 18 वर्ष पूरे हो चुके हैं. जिसका उद्देश्य आदिवासियों और अन्य वनवासी समुदायों द्वारा आज़ादी से पूर्व और बाद की नीतियों से उपजे ऐतिहासिक अन्याय को दूर करना है लेकिन ऐसा हो नहीं रहा है.

राजनीतिक दल इन चिंताओं को नजरअंदाज करना चुन सकते हैं लेकिन फैक्ट यह है कि एफआरए के साथ-साथ ऐसे मुद्दे इस चुनाव का मूल हैं.

एफआरए के बारे में चिंताओं के तीन पहलू हैं – पहला सामुदायिक वन अधिकार (CFR) का कार्यान्वयन. दूसरा, व्यक्तिगत वन अधिकार (IFR) और सीएफआर दोनों के कार्यान्वयन के बाद की चिंताएं जो वन विभाग द्वारा बनाई गई अतिरिक्त-कानूनी बाधाओं से प्रभावित होती हैं. और तीसरा, खनन और बेदखली जैसे अनुचित संरक्षण उपायों के कारण आदिवासी भूमि का अलगाव.

केंद्रीय जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गए नए आंकड़ों के मुताबिक, सितंबर 2024 की प्रगति रिपोर्ट से पता चला है कि महाराष्ट्र को कुल 4 लाख 1 हज़ार 800 वन अधिकार दावे प्राप्त हुए हैं.

इनमें से व्यक्तिगत वन अधिकार (IFR) दावे 3 लाख 90 हज़ार 477 हैं, जिनमें से 1 लाख 98 हज़ार 504 को मान्यता दी गई है. यह मान्यता प्राप्त दावों का केवल 50 प्रतिशत है.

सीएफआर दावों के लिए 11 हज़ार 323 दायर किए गए हैं जिनमें से 8 हज़ार 407 को मान्यता दी गई है.

कुल आईएफआर और सीएफआर दावों में से, 2 लाख 6 हज़ार 911 को मान्यता दी गई है, जो कुल दायर दावों का बमुश्किल 52 प्रतिशत है. इसके अलावा 70.8 प्रतिशत दावों का निपटारा किया गया है और 77 हज़ार 580 यानि 19 प्रतिशत दावों को खारिज कर दिया गया है.

वहीं वन विभाग ग्राम सभाओं को पारगमन परमिट देने से मना कर रहा है, जिससे लघु वन उपज (एमएफपी) अधिकारों, विशेष रूप से बांस और तेंदू के पत्तों के प्रयोग पर असर पड़ रहा है, जबकि इस बारे में चिंता जताई जा रही है.

यह समस्या सीएफआर क्षेत्रों को महाराष्ट्र वन विकास निगम को पट्टे पर दिए जाने के कारण और भी जटिल हो गई है, जिससे सीएफआर लागू होने के बाद संघर्ष और बढ़ गया है.

पीवीटीजी आवास अधिकार से वंचित

इस बीच महाराष्ट्र विशेष रूप से कमजोर आदिवासी समूहों (PVTGs) के लिए आवास अधिकारों को मान्यता देने में सफल नहीं रहा है, जो खनन के कारण प्रभावित हैं.

कई जिलों से आदिवासी भूमि के अलगाव की खबरें आई हैं. वन बेदखली लंबे समय से एक निरंतर मुद्दा रहा है.

21 अक्टूबर, 2024 को जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने ताडोबा अंधारी टाइगर रिजर्व में एफआरए उल्लंघन पर महाराष्ट्र के आदिवासी कल्याण सचिव को एक पत्र लिखा था.

FRA लागू न करने का प्रभाव

मार्च 2024 में जारी की गई, माननीय जस्टिस (रिटार्यड) एस.एन. ढींगरा के नेतृत्व में एनजीओ कॉल फॉर जस्टिस द्वारा एफ.आर.ए. प्रगति रिपोर्ट में महाराष्ट्र के सी.एफ.आर. कार्यान्वयन के बारे में यह लिखा गया है:

“सी.एफ.आर. देने में अनिच्छा का एक संभावित कारण वन क्षेत्रों में बड़े पैमाने पर खनन करने की योजना है और यह चिंता का विषय है और FRA का उल्लंघन है. इसके अलावा CFR क्षेत्रों को गैर-वन उपयोग में बदलने से स्थानीय समुदायों द्वारा वन क्षेत्रों की रक्षा और पुनरुद्धार के प्रयास भी कमज़ोर होते हैं.”

अधिकारों की मान्यता की कमी ने आरे के जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को भी प्रभावित किया है. एफआरए के लिए उनका संघर्ष अभी भी जारी है.

महाराष्ट्र में आदिवासी और अन्य वनवासी समुदायों की बड़ी आबादी के कारण FRA का बहुत महत्व है. 2011 की जनगणना के मुताबिक करीब 1 करोड़ लोग आदिवासी हैं. इनमें से कई समुदाय वन क्षेत्रों में केंद्रित हैं, खासकर गढ़चिरौली, ठाणे, पालघर, नंदुरबार और अमरावती जैसे जिलों में.

अकेले गढ़चिरौली जिले में 38 फीसदी से अधिक आबादी अनुसूचित जनजातियों की है, जिससे FRA उनकी भूमि और वन अधिकारों को सुनिश्चित करने के लिए महत्वपूर्ण हो जाता है.

महाराष्ट्र को अपने वन अधिकारों की संभावनाओं को पूरा करने के लिए अभी भी एक लंबा रास्ता तय करना है.

भूमि और संसाधनों के मामले में आदिवासियों को मिलेगी प्राथमिकता : CM एकनाथ शिंदे

हालांकि, महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री एकनाथ शिंदे ने रविवार को नंदुरबार और धुले में बड़ी सभाओं को संबोधित करते हुए आदिवासी अधिकारों, कल्याण और विकास पहलों पर ध्यान केंद्रित करने की बात की.  

अपने भाषणों के दौरान शिंदे ने आदिवासियों को उनके उचित अधिकार दिलाने के लिए महायुति गठबंधन की प्रतिबद्धता दोहराई और कांग्रेस पार्टी की नीतियों की आलोचना की, जिसे उन्होंने आदिवासी समुदायों के प्रति शोषणकारी बताया.

अक्कलकुवा (नंदुरबार) और सकरी (धुले) में रैलियों में बोलते हुए, सीएम ने जोर देकर कहा कि आदिवासी महाराष्ट्र के मूल निवासी हैं और उन्हें भूमि और संसाधनों के मामलों में प्राथमिकता दी जानी चाहिए.

शिंदे ने घोषणा की, “आदिवासियों के शोषण के दिन, जब उनकी जमीन जबरन छीन ली जाती थी और उन्हें दूरदराज के इलाकों में भेज दिया जाता था, खत्म हो गए हैं. अब हमें इस अन्याय के लिए जिम्मेदार लोगों को बाहर निकालना होगा.”

इसके अलावा उन्होंने आदिवासियों के लिए रोजगार सृजन के मुद्दे पर भी बात की और घोषणा की कि पेसा भर्ती प्रक्रिया के माध्यम से 8,500 आदिवासी युवाओं को सरकारी नौकरी दी जाएगी.

सीएम ने विपक्ष, खासकर कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा कि सत्ता में रहने के दौरान वे इस क्षेत्र में कोई महत्वपूर्ण विकास नहीं कर पाए.

उन्होंने कहा, “35 साल तक इस क्षेत्र का प्रतिनिधित्व कांग्रेस के विधायकों ने किया, जो यहां एक भी उद्योग नहीं ला पाए. नतीजतन, स्थानीय लोगों को आजीविका की तलाश में पलायन करना पड़ा. अब समय आ गया है कि ऐसे नेताओं को बाहर निकाला जाए.”

आदिवासी बनाम धनगर विवाद

पिछले दो सालों से महाराष्ट्र में आरक्षण की बहस तेज ही नहीं बल्कि आंदोलन का रूप अख्तियार किए हुए है. मराठवाड़ा से शुरू हुआ मराठा आरक्षण आंदोलन एक साल के भीतर ही राज्यव्यापी हो गया. मराठों के लिए ओबीसी के तहत आरक्षण देने की मांग ने ओबीसी समुदायों को बेचैन कर दिया.

लेकिन मराठा और ओबीसी समुदायों के साथ-साथ धनगर समुदाय को आदिवासी दर्जा देकर आरक्षण देने की मांग ने राज्य में एक नया विवाद पैदा कर दिया.

आदिवासी समुदाय धनगर समुदाय को एसटी वर्ग से आरक्षण देने का विरोध कर रहा है. इतना ही नहीं हाल ही में डिप्टी स्पीकर नरहरि जिरवाल और कुछ अन्य विधायकों ने मंत्रालय की तीसरी मंजिल से छलांग लगा दी थी.

ऐसे में आरक्षण आंदोलन से महाराष्ट्र के सियासी और जातीय समीकरण को ही पूरी तरह बदलकर रख दिया है. इसके चलते ही लोकसभा चुनाव में बीजेपी नेतृत्व वाले एनडीए को तगड़ा झटका लगा और कांग्रेस नेतृत्व वाले इंडिया गठबंधन को लाभ मिला था.

महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में राजनीतिक दलों के सामने जातीय संतुलन बनाए रखने की चुनौती खड़ी हो गई है क्योंकि चिंता इस बात की है कि किसी एक समुदाय का पक्ष साधने में कहीं दूसरा समुदाय नाराज न हो जाए.

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