झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन (Hemant Soren) ने बुधवार को असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा (Himanta Biswa Sarma) को पत्र लिखकर दावा किया कि पूर्वोत्तर राज्य की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण योगदान देने के बावजूद झारखंड की चाय बागान समुदाय (Tea Tribes) की जनजातियां हाशिए पर हैं.
सरमा को लिखे अपने पत्र में सोरेन ने असम में 70 लाख चाय बागान-जनजाति समुदाय के सदस्यों की दुर्दशा पर भी गहरी चिंता व्यक्त की.
झारखंड में भारतीय जनता पार्टी (BJO) के चुनाव सह-प्रभारी सरमा ने हाल ही में कई मुद्दों को लेकर झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM) सरकार पर जोरदार हमला किया था.
इसके बाद हेमंत सोरेन ने सरमा को पत्र लिखकर कहा, ‘‘मैं असम में चाय बागान समुदाय की जनजातियों के सामने आने वाली महत्वपूर्ण चुनौतियों से अच्छी तरह वाकिफ हूं, उनमें से अधिकांश झारखंड की मूल जनजातियां हैं. जिनमें संथाली, कुरुक, मुंडा, उरांव और अन्य शामिल हैं. इनके पूर्वज औपनिवेशिक शासन के दौरान चाय बागान में काम करने के लिए पलायन कर गए थे.”
उन्होंने लिखा, ‘‘मैं महसूस करता हूं कि वे अनुसूचित जनजाति का दर्जा पाने के मानदंडों को पूरा करते हैं, जिसमें उनकी विशिष्ट सांस्कृतिक पहचान, पारंपरिक जीवन शैली और शोषण के प्रति संवेदनशीलता शामिल है.’’
उन्होंने कहा कि झारखंड, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़ और ओडिशा में चाय जनजाति के अधिकतर जातीय समूहों को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता प्राप्त है लेकिन असम ने उन्हें अन्य पिछड़ा वर्ग (OBC) के रूप में वर्गीकृत करना जारी रखा है.
सोरेन ने सरमा को पत्र लिखकर इन जनजातियों को जल्द से जल्द अनुसूचित जनजाति का दर्जा दिए जाने की मांग की.
उन्होंने कहा, ‘‘असम की अर्थव्यवस्था और संस्कृति में उनके महत्वपूर्ण योगदान के बावजूद उन्हें हाशिए पर रखा जा रहा है और अनुसूचित जनजातियों को मिलने वाले लाभ और सुरक्षा से वंचित रखा जा रहा है.’’
हेमंत सोरेन ने हिमंत बिस्वा सरमा को अपने पत्र में गिनवाया कि असम की चाय जनजातियां को एसटी का दर्जा नहीं देने पर किन महत्वपूर्ण सरकारी लाभों और अवसरों से वंचित रहना पड़ता है.
केंद्र सरकार की योजनाएं : कई केंद्र सरकार की योजनाएं जो विशेष रूप से एसटी के लिए बनायी गयी हैं, जैसे कि पोस्ट-मैट्रिक छात्रवृत्ति योजना, आदिवासी विकास सहकारी समितियां (टीडीसीएस) योजना और राष्ट्रीय आदिवासी स्वास्थ्य मिशन, चाय जनजातियों के लिए सुलभ नहीं हैं. गैर-एसटी के रूप में ये आदिवासी कई सरकारी योजनाओं के लिए अपात्र हैं.
राज्य स्तरीय पहल : असम में अनुसूचित जनजातियों के विकास के उद्देश्य से कई राज्य स्तरीय कार्यक्रम और पहल हैं. ये कार्यक्रम, जो अक्सर वित्तीय सहायता, बुनियादी ढांचे के विकास और शैक्षिक अवसर प्रदान करते हैं, चाय जनजातियों के लिए उपलब्ध नहीं हैं.
आरक्षण लाभ : सरकारी नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में ओबीसी की तुलना में एसटी को आरक्षण का प्रतिशत अधिक है. इसका मतलब यह है कि चाय जनजातियों को सीमित सीटों और अवसरों के लिए अधिक प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है.
आदिवासी विकास प्राधिकरण : अनुसूचित जनजातियों के पास समर्पित आदिवासी विकास प्राधिकरण हैं जो उनके उत्थान की दिशा में काम करते हैं. ये प्राधिकरण शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और आजीविका सहायता सहित विभिन्न सेवाएँ प्रदान करते हैं. चाय जनजातियों में ऐसे समर्पित सहायता ढांचों का अभाव है.
सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यता : एसटी का दर्जा अपने साथ एक निश्चित स्तर की सामाजिक और सांस्कृतिक मान्यता लेकर आता है. यह इन समुदायों की विशिष्ट पहचान और परंपराओं को संरक्षित और बढ़ावा देने में मदद करता है.
ओबीसी के रूप में चाय जनजातियों को समान स्तर की मान्यता और समर्थन नहीं मिल सकता है. अपने पैतृक मातृभूमि से दूर रहने के कारण, इन जनजातियों को अपनी सांस्कृतिक विरासत को संरक्षित करने में चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है.
आर्थिक शोषण : चाय बागान श्रमिकों के रूप में, इन आदिवासियों को शोषणकारी श्रम प्रथाओं का सामना करना पड़ सकता है, जिसमें कम मजदूरी, लंबे समय तक काम करना और असुरक्षित कार्य स्थितियां शामिल हैं.
प्रतिनिधित्व की कमी : उनकी गैर-एसटी स्थिति उनके राजनीतिक प्रतिनिधित्व और वकालत में बाधा डाल सकती है. इससे उनकी शिकायतों को दूर करने और अपने अधिकारों को सुरक्षित करने की उनकी क्षमता सीमित हो सकती है.