झारखंड विधानसभा चुनाव के दूसरा चरण के तहत 38 सीटों पर बुधवार (20 नवंबर) को मतदान होना है. अब चुनाव प्रचार थम गया है. लेकिन इससे पहले राजनीतिक दलों ने जमकर चुनाव प्रचार किया, जनता से तमाम तरह के दावे और वादे किए.
राजनीतिक दल और राजनेता चुनाव के दौरान तमाम वादे करते हैं. लेकिन चुनाव के बाद जनता से किए वादों को भूल जाते हैं.
ऐसा ही कहना है संथाली विद्वान रवींद्र नाथ मुर्मू का… उन्होंने कहा कि चुनावी रैलियों में सभी राजनीतिक नेता भगवान बिरसा मुंडा, सिदो-कान्हू और चांद भैरव जैसे आदिवासी प्रतीकों का जिक्र करते हैं. लेकिन परिणाम घोषित होने के कुछ ही पलों बाद उनके नाम गुमनामी में खो जाते हैं.
टाइम्स ऑफ इंडिया से बात करते हुए मुर्मू ने आरोप लगाया कि राज्य में महीने भर चले चुनाव प्रचार के दौरान अब तक किसी भी राष्ट्रीय या क्षेत्रीय राजनीतिक दल ने आदिवासी आबादी को उनकी मातृभाषा में शिक्षित करने की आवश्यकता पर जोर नहीं दिया है.
रवींद्र नाथ मुर्मू ने झारखंड राज्य आंदोलन में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था, जिसके लिए उन्हें अक्सर भूमिगत होना पड़ा था.
उन्होंने कहा, “झारखंड में प्राथमिक कक्षाओं से लेकर कॉलेज स्तर तक संथाली, हो, मुंडारी और अन्य स्वदेशी भाषाओं में उचित किताबें नहीं हैं.”
उन्होंने आगे कहा, “भले ही कोल्हान विश्वविद्यालय में विभिन्न आदिवासी भाषाओं के लिए डिग्री स्तर के पाठ्यक्रम हैं, लेकिन न तो पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध हैं और न ही शिक्षण संकाय (फैकल्टी), जो इस बात पर प्रकाश डालता है कि भूमिपुत्रों की मदद करने में कितनी राजनीतिक इच्छाशक्ति शामिल है.”
मुर्मू ने कहा, “अगर आदिवासी आबादी को उनकी मातृभाषा में शिक्षा दी जाएगी तो गांवों में स्थित सरकारी स्कूलों में ड्रॉपआउट दर कम हो सकती है. लेकिन झारखंड के गठन के पिछले 24 वर्षों में इस संबंध में कुछ भी नहीं किया गया है.”
उन्होंने कहा, “अगर आदिवासी भाषाओं के संरक्षण के बारे में गंभीरता से नहीं सोचा गया तो उनमें से कई विलुप्त हो जाएंगी. झारखंड में अधिक से अधिक छात्र आदिवासी भाषाओं का अध्ययन करें, यह सुनिश्चित करने के लिए राज्य और केंद्र को विशेष पहल करनी चाहिए.”
वहीं भगवान बिरसा मुंडा की जन्मस्थली उलिहातु से आने वाली एक अन्य आदिवासी विद्वान रेशमी मुंडा ने कहा, “झारखंड के स्कूलों में इतिहास पढ़ने वाले छात्रों को उलगुलान (1899 में तत्कालीन ब्रिटिश शासन के खिलाफ बिरसा का सशस्त्र विद्रोह) के बारे में विस्तार से नहीं पढ़ाया जाता है.”
दूरदराज के आदिवासी गांव की मास्टर डिग्री प्राप्त मुट्ठी भर महिलाओं में से एक रेशमी मुंडा ने भी कहा, “नेताजी की तरह बिरसा की मृत्यु का सही समय, तारीख और स्थान ज्ञात नहीं है. हम सिर्फ इतना जानते हैं कि फरवरी 1900 में ब्रिटिश पुलिस की हिरासत में उनकी मृत्यु हो गई थी. आजादी के 75 साल बाद भी किसी सरकार ने बिरसा की मौत के पीछे के रहस्य की जांच करने की पहल नहीं की.”
उन्होंने आगे कहा, “ब्रिटिश शासन के खिलाफ सिदो-कान्हू और चांद भैरव का विद्रोह 1857 में सिपाही विद्रोह से पहले 30 जून, 1855 को हुआ था. लेकिन किसी सरकार ने कभी इस घटना को मान्यता देने के बारे में नहीं सोचा. इन आदिवासी नायकों ने 10 हज़ार सशस्त्र संथालों के साथ मिलकर ब्रिटिश उपनिवेशवादियों से बहादुरी से लड़ाई लड़ी. नेताओं को अच्छी तरह से सशस्त्र ब्रिटिश सैनिकों ने मार डाला लेकिन स्कूलों में बहुत कम छात्र इस आदिवासी विद्रोह के बारे में विस्तार से जानते हैं क्योंकि इतिहास की किताबों में इसका कोई उल्लेख नहीं है.”
मुंडा ने कहा कि राज्य में अंतिम चरण के मतदान में अब कुछ ही घंटे बचे हैं, मतदाताओं को ऐसे उम्मीदवारों को चुनना चाहिए जो आदिवासियों, मूलवासियों और आम जनता के लिए शिक्षा के विकास पर काम कर सकें.
उन्होंने बताया कि हो जाति को अभी भी संविधान की अनुसूची 8 में शामिल किया जाना बाकी है. यह मांग लंबे समय से लंबित है.