HomeIdentity & Lifeमराठी भाषा नीति कैसे आदिवासियों को वंचित करती है

मराठी भाषा नीति कैसे आदिवासियों को वंचित करती है

3 फरवरी को महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने एक प्रस्ताव जारी किया, जिसका उद्देश्य न केवल शिक्षा में बल्कि सभी सार्वजनिक बातचीत और लेन-देन में मराठी के संरक्षण, प्रचार और विकास को सुनिश्चित करना है.

महाराष्ट्र सरकार ने हाल ही में एक प्रस्ताव जारी किया, जिसके मुताबिक राज्य के सरकारी और अर्ध-सरकारी कार्यालयों में सभी अधिकारियों के लिए केवल मराठी में बात करना अनिवार्य कर दिया गया है.

इस संबंध में जारी सरकारी प्रस्ताव (GR) में यह भी कहा गया है कि स्थानीय स्वशासन, सरकारी निगमों और सरकारी सहायता प्राप्त प्रतिष्ठानों में मराठी बोलना अनिवार्य है. जीआर में चेतावनी दी गई है कि दोषी अधिकारियों को अनुशासनात्मक कार्रवाई का सामना करना पड़ेगा.

महाराष्ट्र सरकार का दावा है कि इस कदम को मराठी भाषा के संरक्षण, संवर्धन, प्रसार और विकास के लिए उठाया गया है. लेकिन इससे राज्य में आदिवासी समुदायों को समान भाषाई मान्यता या न्याय नहीं मिला है.

इस कदम का उद्देश्य मराठी भाषियों की जातीय पहचान को संरक्षित करना है. लेकिन इस कदम से आदिवासियों को शासन, सार्वजनिक सेवाओं और कानूनी प्रक्रियाओं में उनकी भागीदारी को सीमित करके उन्हें और अधिक हाशिए पर धकेलने का जोखिम है.

मराठी केवल नीति

अक्टूबर 2024 में केंद्र सरकार ने मराठी सहित पांच भारतीय भाषाओं को शास्त्रीय भाषा का दर्जा दिया. इस मान्यता की मांग एक दशक से भी ज़्यादा पुरानी है. 2013 में कांग्रेस के नेतृत्व वाली राज्य सरकार ने आधिकारिक तौर पर केंद्र सरकार से मराठी को शास्त्रीय भाषा का दर्जा देने का आग्रह किया था.

इस प्रयास के समानांतर महाराष्ट्र सरकार ने शिक्षा, शासन और सार्वजनिक जीवन में मराठी की भूमिका को मजबूत करने के लिए हाल के वर्षों में कई नीतियों को लागू किया है.

सरकार ने महाराष्ट्र स्कूलों में मराठी भाषा का अनिवार्य शिक्षण और सीखना अधिनियम, 2020 पारित किया, जिससे सीबीएसई और आईसीएसई स्कूलों सहित पूरे महाराष्ट्र के सभी स्कूलों में मराठी अनिवार्य हो गई.

साल 2022 में महाराष्ट्र विधानसभा में एक विधेयक पारित किया गया, जिसमें नागरिक संगठनों, निगमों और स्थानीय प्राधिकरणों के तहत काम करने वाले अधिकारियों के लिए मराठी भाषा अनिवार्य कर दी गई.

मराठी को शास्त्रीय भाषा के रूप में मान्यता मिलने के बाद राज्य सरकार ने केवल मराठी भाषा के लिए नीति पेश करके अपनी स्थिति को और मजबूत किया है.

12 मार्च, 2024 को हुई कैबिनेट की बैठक में महाराष्ट्र राज्य की मराठी भाषा नीति के मसौदे को मंजूरी दी गई. इस मंजूरी के बाद 14 मार्च, 2024 के सरकारी प्रस्ताव (GR) के मुताबिक, मराठी भाषा विभाग ने आधिकारिक तौर पर राज्य की मराठी भाषा नीति की घोषणा की है.

नीति की सिफारिशों को लागू करने के लिए इस साल 3 फरवरी को महाराष्ट्र की भाजपा सरकार ने एक प्रस्ताव जारी किया, जिसका उद्देश्य न केवल शिक्षा में बल्कि सभी सार्वजनिक बातचीत और लेन-देन में मराठी के संरक्षण, प्रचार और विकास को सुनिश्चित करना है.

इसका मुख्य उद्देश्य अगले 25 वर्षों में मराठी को ज्ञान और रोजगार की भाषा के रूप में स्थापित करना है.

प्रस्ताव में यह अनिवार्य किया गया है कि सभी सरकारी, अर्ध-सरकारी कार्यालयों, स्थानीय स्वशासन, सरकारी निगमों और सरकारी सहायता प्राप्त प्रतिष्ठानों में कर्मचारियों को आने वाले लोगों और आपस में मराठी में संवाद करना चाहिए.

इसमें अपवाद महाराष्ट्र के बाहर से आए विदेशी और गैर-मराठी भाषी लोग हैं. इसमें यह भी कहा गया है कि कार्यालयों में साइन बोर्ड लगाने होंगे, जिसमें स्पष्ट रूप से लिखा हो कि संवाद मराठी में होना चाहिए.

महाराष्ट्र में सभी केंद्र सरकार के कार्यालयों में नाम और पदनाम बोर्ड भी मराठी में होने चाहिए.

प्रस्ताव के अनुसार, सभी खरीद आदेश, निविदाएं और मीडिया में दिए जाने वाले विज्ञापन देवनागरी लिपि में होने चाहिए. इसके अलावा, सभी सरकारी संस्थाओं के नाम मराठी में होने चाहिए.

आदिवासियों को समान भाषा न्याय क्यों नहीं दिया जाता

ऐतिहासिक रूप से आदिवासी भाषाओं को हमेशा शासन और शिक्षा से बाहर रखा गया है. इसका परिणाम यह हुआ है कि आदिवासी समुदाय धीरे-धीरे क्षरण की ओर बढ़ रहे हैं और प्रमुख भाषाई और सांस्कृतिक संरचनाओं में समाहित होते जा रहे हैं.

संविधान के बाद का युग समावेश की आड़ में आदिवासी भाषाओं को प्रमुख क्षेत्रीय भाषाओं के साथ एकीकृत करने के आक्रामक प्रयास का गवाह रहा है. इसका मतलब है आदिवासी भाषाओं का व्यवस्थित रूप से हाशिए पर जाना और आदिवासी समुदायों की राज्य के साथ प्रभावी ढंग से जुड़ने और अपने विकास पर जोर देने की क्षमता को कम करना.

भारतीय संविधान की भावना आदिवासी भाषाओं को उनकी भाषाई पहचान के संरक्षण, सुरक्षा और संवर्धन के मद्देनजर विशेष संरक्षण प्रदान करना है. लेकिन उनकी भाषाओं को शासन के ढांचे के भीतर लाने के लिए बहुत कुछ नहीं किया गया है.

दूसरी ओर विभिन्न राज्यों द्वारा अपनाई गई नीतियों के परिणामस्वरूप मजबूत प्रभुत्व वाली भाषाओं को बढ़ावा मिला है और एक ऐसी संरचना को मजबूत किया गया है जो आदिवासियों को बाहर करती रही है.

महाराष्ट्र ने गोंड, भील, कातकरी, कोरकू, कोलम और माडिया सहित अपने विविध आदिवासी समूहों के साथ मनमाने ढंग से व्यवहार किया है, उनकी अलग-अलग भाषाई पहचान को मान्यता दिए बिना.

इसके अलावा आदिवासी समुदायों द्वारा अपनी भाषाओं और सांस्कृतिक विरासत को पुनर्जीवित करने के प्रयासों को अक्सर कानूनी कार्रवाई, प्रतिबंध या गलत काम करने के आरोपों का सामना करना पड़ता है.

उदाहरण के लिए, महाराष्ट्र में गोंड आदिवासियों द्वारा संचालित पहले गोंडी स्कूल के मामले को आपराधिक बना दिया गया. राज्य ने इसे ‘अवैध’ घोषित कर दिया और जुर्माना लगाया.

इसके अलावा, राज्य की राजनीति ने भी इन भाषाओं की उपेक्षा की है और इसका उद्देश्य केवल आदिवासी भाषाई पहचान को व्यापक प्रभावी भाषाई और सांस्कृतिक ढांचे में समाहित करना है.

हाल ही में पारित प्रस्ताव ने इन चुनौतियों को और बढ़ा दिया है. ऐसी स्थिति में अगर सार्वजनिक सेवाओं में आदिवासी भाषा का कोई भाषाई प्रतिनिधित्व नहीं है तो यह उन प्रणालियों से उनके बहिष्कार को और मजबूत करेगा जो उनकी मदद और समर्थन के लिए मौजूद हैं.

यह आदिवासियों को राज्य तंत्र से अलग-थलग कर देगा और इस तरह यह सुनिश्चित करेगा कि सामाजिक प्रणाली कायम रहे और आदिवासी हाशिये पर रहें.

ऐतिहासिक उपेक्षा के कारण पहले से ही खतरे में पड़ी आदिवासी भाषाएं, अगर शासन-प्रशासन के स्तर पर संरक्षित और संवर्धित नहीं की गईं तो और भी अधिक नष्ट हो जाएंगी. सार्वजनिक जीवन में एक ही भाषा को थोपने से आदिवासी आवाज़ें और उनकी भागीदारी कई तरह से हाशिए पर चली जाती है.

उदाहरण के लिए, गढ़चिरौली के कई इलाकों में आदिवासियों को आधिकारिक व्यवस्थाओं में मराठी में संवाद करने में कठिनाई होती है. यह मुख्य रूप से विशेष रूप से कमज़ोर आदिवासी समूह (PVTG) के रूप में वर्गीकृत माडिया समुदाय के लिए सच है.

गढ़चिरौली में आदिवासी समुदाय से आने वाले हाई कोर्ट के अधिवक्ता श्रवण ताराम इस चुनौती पर प्रकाश डालते हैं और कहते हैं कि मराठी हमारी मातृभाषा नहीं है इसलिए हमारे लोग सरकारी दफ़्तरों में ठीक से संवाद नहीं कर पाते हैं. यह हमारे लिए एक बड़ी बाधा रही है. सरकारी दफ़्तरों में अधिकारियों और आदिवासियों को सिर्फ़ मराठी में बात करने के लिए कहना निश्चित रूप से संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन है.

उन्होंने कहना है कि उनके पास आने वाले ज्यादातर आदिवासी अपनी स्थानीय भाषा में अपनी समस्याएं बताने में ज़्यादा सहज महसूस करते हैं. मराठी को अनिवार्य बनाने के बजाय, आदिवासी बहुल क्षेत्रों के सभी दफ़्तरों में दुभाषियों के साथ एक अलग हेल्प डेस्क होनी चाहिए ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि शासन समुदाय के लिए सुलभ बना रहे.

यह केवल जमीनी स्तर पर ही नहीं बल्कि आदिवासी-निर्वाचित प्रतिनिधियों तक भी फैला हुआ है. इसका उदाहरण नंदुरबार के आदिवासी विधायक आमश्या फूलाजी पाडवी के मामले में देखा जा सकता है.

हाल ही में महाराष्ट्र सरकार के शपथ ग्रहण समारोह के दौरान मराठी भाषा में शपथ लेने में विफल रहने के कारण पाडवी को ट्रोल किया गया और उनकी आलोचना की गई.

यह शासन की आधिकारिक भाषा और आदिवासी समुदायों की भाषाई वास्तविकता के बीच अंतर को सामने लाता है.

पाडवी का अनुभव इस बात का जीता-जागता उदाहरण है कि कैसे भाषाई अवरोध न सिर्फ समुदायों को बल्कि उनके निर्वाचित प्रतिनिधियों को भी हाशिए पर डाल सकते हैं.

इसके अलावा, 2014 में Xaxa समिति की रिपोर्ट में बताया गया कि अनुसूचित क्षेत्रों में स्वास्थ्य सेवाओं के कम उपयोग में भाषा का मुद्दा एक बाधा के रूप में काम करता है. रिपोर्ट में कहा गया है कि आदिवासी भाषा बोलने वाले अधिकारियों के नहीं होने के कारण आदिवासियों को अपनी समस्याएं बताने बहुत मुश्किल आती है. इसलिए सड़क सुविधा की कमी के भौतिक अलावा बातचीत की भाषा ही आदिवासियों को चिकित्सा देखभाल प्राप्त करने से दूर रखती है.

ऐसे में जब शासन प्रणाली पहले से ही आदिवासी भाषाओं के प्रति बहिष्कारपूर्ण है तो मराठी को अनिवार्य बनाना इन समुदायों को और अधिक अलग-थलग कर देगा.

अगर शासन की भाषा आदिवासियों के लिए मुश्किल है तो वे अपनी शिकायतें कैसे बताएंगे, कल्याणकारी योजनाओं और सार्वजनिक सेवाओं तक कैसे पहुंचेंगे.

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