सौरिया पहाड़िया के नाम से ही पता चलता है. ये वो आदिवासी है जो पहाड़ो में रहते हैं. ये मुख्य रूप से झारखंड के संथाल परगना ज़िले के पहाड़ी और आस-पास के इलाकों में रहते हैं. इन पहाड़िया आदिवासियों को तीन भागों में बांटा गया है.
इनमें सौरिया पहाड़िया, माल पहाड़िया और कुम्हारभाग पहाड़िया शामिल है.

सबसे पहले माल पहाड़िया के बारे में बात कर लेते हैं. माल पहाड़िया झारखंड के बासलोई नदी से दुमका ज़िले के दक्षिण में बसे हुए है. इनमें भी यह मुख्य रूप से गोपीकांदर, काठीकुंड, शिकारीपाड़ा, रामगढ़ और महेशपुर में रहते हैं.
इसके साथ ही ये बासलोई नदी के उत्तर पाकुड़ ज़िले के अमरापाड़ा, लिट्टीपाड़ा और हिरणपुर इलाकों में भी रहते हैं.

वहीं सौरिया की बात करें तो ये गोड्डा ज़िले के सुंदरपहाड़ी, बोआरीजोर, और पाकुड़ ज़िले के लिट्टीपाड़ा में रहते हैं. साथ ही साहिबगंज ज़िले के तालझारी, बरहेट, बोरियो, पतना और मांदरो में भी इनका निवास हैं.

इसके अलावा अगर कुम्हारभाग जनजाति की बात करें तो इनकी बसावट अब बिखर चुकी है और इनकी कोई भी मान्यता नहीं है.
मुगल शासन में संथाल ज़िले को ‘ कोहिस्तान ’ बोला जाता है. यह स्थान जंगलों के बीचों बीच स्थित है इसलिए इसे बाद में ‘ जंगलतरी ’ भी कहा जाने लगा.
अंग्रेजों ने पैदा की संताल और पहाड़िया की बीच दीवार
अंग्रेजों से पहले यहां के आदिवासी शातिंपूर्वक रहे रहें थे. क्योंकि दुर्गम पहाड़ियों में होने के कारण मुगल शासन के समय कोई भी राजपूत या मुगल इन पर राज नही कर पाया.
लेकिन अंग्रेजों के पूरे शासन काल में पहाड़िया ने कई दिक्कतों का सामना किया. उस समय जंगल में अधिकतर पहाड़िया ही रहा करते थे. जब पहाड़िया ने इन्हें टैक्स देना बंद कर दिया तब अंग्रेजों ने इन पर अपना अधिकार ज़ामना शुरू किया.
अंग्रेजों का बढ़ता अत्याचार देख पहाड़िया सरदार रमना आहड़ी ने यह फैसला किया की वे अंग्रेजों के खिलाफ लड़ेंगे. लेकिन अस्त्र और सैनिकों की कमी के चलते वे जीत नहीं सके.
फिर 1770 के बाद इन क्षेत्रों में अंग्रेजों ने अपने कई कलेक्टर भेजें थे. लेकिन वे इन पर पूरी तरह हुकूमत करने में नाकामयाब रहे.
सन् 1823 में अंग्रेजों ने एक प्रस्ताव पारित किया. जिसके तहत दुमका, गोड्डा, साहिबगंज और पाकुड़ जिलें के बीच के क्षेत्रों को दामिन-ई-कोह का नाम दिया गया. इस पूरे क्षेत्र को पहाड़ी आदिवासियों के लिए आरक्षित किया गया था.
इस ज़ामीन को प्राप्त करने के लिए यह शर्त रखी गई कि अगर पहाड़ी इस ज़ामीन को खेती योग्य बना देते है. तो इनके वंशो को बिना किसी राजस्व के यह ज़ामीन आजीवन उपयोग के लिए दे दी जाएगी.
लेकिन इस प्रस्ताव पर आदिवासियों ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई. जिसके बाद अंग्रेजों ने वीरभूम, बांकुड़ा, मानभूम, मेदिनीपुर, रामगढ़ आदि ज़गहों से संतालों को इन पहाडियों के क्षेत्रों में बसा दिया. जिसके बाद अंग्रेजों का यहां से अच्छा राजस्व भी मिलने लगा.
कंपनी की तरफ से संतालों को सिर्फ बसने की इज़ाजत नहीं दी गई बल्कि इन्हें प्रोतसाहित भी किया गया. वहीं पहाड़ियों को कई दिक्कतें झेलनी पड़ी.
जिसके बाद इन दोनों के बीच में दरारें पैदा हो गई. जो अभी तक ठीक नहीं हुई है. यही कारण है की पहाड़ी आज भी नीचें आने से डरते हैं.
सौरिया पहाड़ियों की गिरती जनसंख्या
2011 के जनसंख्या गणना के अनुसार 2001 से 2011 तक इनकी जनसंख्या में 24.38 प्रतिशत की कमी आई है. इसके कई कारण है
- स्वच्छ पानी की कमी
- आस पास कोई स्वास्थ्य केंद्र ना होना
- प्रसाव में पुरानी तकनीकों का इस्तेमाल
- शराब सेवन
- सीमित क्षेत्र में शादी
- सतुलित आहार की कमी
पहाड़िया अक्सर पानी के लिए उनके आस पास के मौजूद झरनों का इस्तेमाल करते आए है. कुछ झरनों को छोड़कर बाकि सभी मौसमी झरने हैं. यह पानी भी बेहद कम मात्रा में आता है. जो इनके पेय जल की आवश्यकता को भी पूरा नहीं कर सकता.
साथ ही इस पानी में कई तरह के जैव कटाणु मौजूद है. वहीं पहाड़िया महिलाएं रोज पानी को लेने के लिए 4 से 6 किलोमीटर का चढ़ना उतरना करती है. जो इनकी मुश्किलों को और भी बढ़ा देता है.
खेती से हो सकता है भू क्षरण
सौरिया के खेत भी इनके आस पास ही मौजूद होते हैं. यह आदिवासी दो तरीके की खेती करते है. जिसमें जारा और कुरवा शामिल है. जारा की खेती जंगलों में होती है. जहां वे बरबट्टी उगाते हैं. एक बार फसल पकने के बाद वह इसी स्थान में दो साल बाद फिर से खेती करते हैं. बरबट्टे की खेती को झूम की खेती भी कहां जाता है.
कुरवा बाड़ी वह जगह है. जहां मिश्रित खेती की जाती है. इनमें मक्का, ज्वार, बाजरा और अरहर शामिल हैं.
जारा की खेती को नवम्बर के महीने में काटा जाता है. वहीं कुरवा में मकई अक्टूबर में पक कर तैयार हो जाती है और बाकि अन्य फसलें दिसम्बर से जनवरी के महीनें में काटी जाती है.
यह खेती पूरे सौरिय समाज के आय का साधन है. यही कारण है की इन इलाकों में भू क्षरण देखने को मिल रहा है. वो दिन दूर नहीं है जब ये सारें जगल साफ हो जाएगें
सरकार ने स्वास्थ्य और रोज़गार की समस्या को सुलझाने के लिए निचले क्षेत्रों में मकान का निर्माण किया था. लेकिन इतिहासिक कारणों के चलते यह नीचें नहीं आए. शायद ये आदिवासी मानते हैं कि यह पहाड़ इन आदिवासियों के लिए जीवन है. इसके बिना यह आदिवासी नहीं जी सकतें
इन सभी कारणों से इन आदिवासयों का जीवन पीड़ादायक रहा है. इनकी अर्थव्यवस्था भी ठीक नहीं है जिसके चलते यह महाजनों से कर्जा मागते रहते है.
महाजन भी इस समाज की लड़की और महिलाओं का शोषण करते है. पढ़े लिखे ना होने के कारण इनसे भारी ब्याज वसूलते रहते हैं.
सरकार ने इनके लिए कई योजनाएं बनाई तो है लेकिन यह सभी योजनाएं इन तक नहीं पहुंच पाई और ना ही सरकार की योजनाओं के बारे में इन्हें कोई ज़्यादा जानकारी है.
अगर सरकार सही मायने में इनकी मदद करना चाहती है तो उन्हें यह सभी योजनाएं सही तरीके से पहाड़िया के इलाकों में लागू करने की जरूरत है.