केंद्र सरकार की तरफ से सभी राज्य सरकारों को एक पत्र लिख कर जनजातीय गौरव दिवस को बड़े स्तर पर मनाने के लिए कहा गया है.
जनजातीय गौरव दिवस यानि बिरसा मुंडा की जयंती जो 15 नवंबर को मनाई जाती रही है.
2021 में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में चल रही सरकार ने बिरसा मुंडा की जयंती को राष्ट्रीय स्तर पर मनाए जाने की शुरुआत की है.
इस सिलसिले में संसद के प्रांगण और दिल्ली के सराय काले खां इलाके में उनकी मूर्तियां भी स्थापित की गई हैं.
एक आदिवासी नायक जो शायद अब लगभग हर राज्य में शोषण के प्रतिरोध के लिए आदिवासी समुदायों को प्ररेती करता है, उसकी जयंती को राष्ट्रीय स्तर पर मनाने का फ़ैसला स्वागत योग्य होना चाहिए.
लेकिन बिरसा मुंडा को जनजातीय गौरव दिवस के नाम से मानए जाने पर विवाद है. क्योंकि कई इतिहासकार यह मानते हैं कि दरअसल बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस घोषित करना औपनिवेशिक मानसिकता का संकेत है.
इसके अलावा बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पेश करना भी दक्षिणपंथी राजनीति के हितों को साधने की साज़िश बताया जाता है.
बिरसाइत धर्म पर विरोधाभासी विचार
कुछ इतिहासकार मानते हैं कि बिरसा मुंडा ने एक नया ‘बिरसाइत’ धर्म शुरू किया.
उनके अनुसार बिरसा मुंडा ने एक अलग पंथ की स्थापना की. ये धर्म न तो हिंदू था, न मिशनरी और ये धर्म आदि धर्म से भी अलग था.
इसमें सिर्फ़ एक ईश्वर ‘सिंगबोंगा’ की पूजा होती थी. इस धर्म में अंधविश्वास, सामाजिक कुरीतियों और हडिया जैसे मादक पदार्थ को त्यागने पर ज़ोर दिया गया था.
कुछ विशेषज्ञ, इस धारणा से सहमत नहीं हैं. उनकी नज़र में बिरसा मुंडा का धर्म कोई अलग पहचान नहीं, बल्कि एकजुटता और जागरूकता का ज़रिया था.
उनके अनुसार, बिरसा मुंडा ने लोगों की धार्मिक आस्था को राजनीतिक चेतना में बदला. उन्होंने आदिवासियों के धार्मिक विश्वास को एक आंदोलन की ताकत बनाया.
बिरसा मुंडा एक सोच (विचारक) थे, एक आंदोलनकारी थे, समाज सुधारक थे और आदिवासी अधिकारों के रक्षक थे.
लेकिन अफ़सोस ये है कि आज उन्हें एक प्रतीक में बदलने की राजनीति चरम पर है.
आज बिरसा मुंडा को भगवान घोषित कर दिया गया है. उन्हें धरती आबा यानी धरती के पिता के रूप में भी याद किया जाता है.
लेकिन हक़ीक़त ये है कि बिरसा मुंडा ने कभी खुद को किसी दैवीय शक्ति के रूप में नहीं दिखाया.
डॉ. जितेंद्र मीणा अपनी किताब ‘राष्ट्र निर्माण में आदिवासी’ में लिखते हैं कि सरदार आंदोलन के बाद बिरसा ने मिशनरियों की असली मंशा को समझा और समाज की सेवा में लग गए.
वे हैजा और चेचक जैसी बीमारियों से जूझ रहे लोगों का इलाज करते थे और उन्हें अंधविश्वास से दूर रहने की सीख देते थे. धीरे-धीरे लोग उन्हें अपने संघर्षों का सहारा मानने लगे.
डा मीणा आगे लिखते हैं, उनकी बातें लोगों को इतनी पसंद आने लगीं कि दूर-दूर से लोग उनसे मिलने आने लगे. वे उनके लिए ‘धरती आबा’ यानी उनकी धरती के पिता बन गए.
बिरसा मुंडा के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए औपनिवेशिक शासन (ब्रिटिश सरकार) और मिशनरियों ने जानबूझकर बिरसा की छवि को धार्मिक और चमत्कारी दिशा में मोड़ा.
उन्होंने ऐसा इसलिए किया ताकि उनके आंदोलन के राजनीतिक और सामाजिक प्रभाव को कम करके दिखाया जा सके.
आदिवासी इतिहास पर शोध करने वाले जोसफ बारा भी लिखते हैं कि अंग्रेज़ी और मिशनरी दस्तावेज़ों में बिरसा को कट्टरपंथी (fanatic), दिव्यदर्शी (visionary) या आध्यात्मिक खोजकर्ता (religious adventurer) कहा गया ताकि यह लगे कि उनका आंदोलन किसी धार्मिक उन्माद का परिणाम था, ना कि एक संगठित चेतना का.
बारा इस दृष्टिकोण की आलोचना करते हुए कहते हैं कि बिरसा का नेतृत्व एक संगठित राजनीतिक चेतना और सामाजिक सुधार की प्रक्रिया का हिस्सा था, जिसे औपनिवेशिक इतिहासकारों ने जानबूझकर कमज़ोर करके दिखाया.
जोसेफ बारा अपने लेख में असली बिरसा मुंडा के बारे में कहते हैं कि वास्तव में वे अंग्रेज़ों के शोषण और ज़मींदारों के अन्याय के खिलाफ खड़े होने वाले एक राजनीतिक नेता और सामाजिक सुधारक थे.
वे बताते हैं कि बिरसा का आंदोलन सिर्फ़ धार्मिक नहीं था, उलगुलान (revolt) का मकसद आदिवासियों की ज़मीन, जंगल और आत्मसम्मान को वापस पाना था.
वे आदिवासियों को यह समझाना चाहते थे कि अपने पारंपरिक मूल्य, संस्कृति और आत्मसम्मान को बनाए रखना ही असली धर्म है.
बिरसा मुंडा अन्याय के खिलाफ खड़े होने वाले जनता के नेता थे. अगर हम उन्हें सिर्फ़ भगवान मानेंगे तो उनके विचार और जन चेतना मर जाएगी. बिरसा को पूजने से ज़्यादा ज़रूरी है उनके संघर्ष को आगे बढ़ाना.
इतिहासकारों के अलग-अलग दृष्टिकोण
इतिहासकारों और शोधकर्ताओं ने बिरसा मुंडा की छवि को लेकर कई तरह की व्याख्याएं की हैं.
इतिहासकार के.एस. सिंह अपनी किताब ‘बिरसा मुंडा एंड हिज़ मूवमेंट’ (Birsa Munda and His Movement)में लिखते हैं कि बिरसा को स्कूल से इसलिए निकाला गया क्योंकि उन्होंने मिशनरियों के आलोचनात्मक व्यवहार का विरोध किया था. तब बिरसा ने कहा था, “साहेब, साहेब, एक टोपी,” यानी चाहे ब्रिटिश हों या मिशनरी, सभी शासक आदिवासियों के लिए एक जैसे ही अत्याचारी थे.
सिंह के अनुसार बिरसा का टकराव किसी धर्म से नहीं था, बल्कि उस व्यवस्था से था जो आदिवासियों के अधिकार छीन रही थी.
सिंह बताते हैं कि बिरसा ने वैष्णव उपदेशक के साथ कुछ समय बिताया, लेकिन वह अंधभक्ति में नहीं फंसे. उन्होंने अपने अंतर्मन की आवाज़ सुनी और समाज की सेवा के रास्ते पर आगे बढ़े.
इतिहासकार प्रबल सरन अग्रवाल और हर्षवर्धन त्रिपाठी मानते हैं कि बिरसा द्वारा किए गए चर्च या पुलिस पर हमले धर्म-विरोध नहीं थे, बल्कि बाहरी शोषण और दमन के ख़िलाफ़ थे.
जर्मन मिशनरी जॉन हॉफमैन ने भी 1900 में लिखा था कि बिरसा ने बाद में साफ़ कहा था, “हमारे असली दुश्मन साहेब लोग और सरकार हैं, अपने ही लोग नहीं.”
दूसरी ओर, हाल ही के वर्षों में कुछ दक्षिणपंथी लेखकों और संगठनों ने इसके विपरीत उन्हें हिंदु धर्म का अनुयायी दिखाया है.
तुषार सिन्हा और अंकिता वर्मा की किताब द लीजेंड ऑफ बिरसा मुंडा (The Legend of Birsa Munda) में बिरसा को ऐसे व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया है जिन्होंने हिंदू विचारों को अपनाया और ईसाई मिशनरियों का विरोध किया.
हालांकि, प्रबल सरन अग्रवाल और हर्षवर्धन त्रिपाठी इस दृष्टिकोण को ‘इतिहास की जानबूझकर की गई गलत व्याख्या’ बताते हैं.
उनके अनुसार, बिरसा के आंदोलन को हिंदू बनाम ईसाईके संघर्ष के रूप में देखना न केवल भ्रामक है बल्कि यह आदिवासियों की अपनी अलग सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान को मिटाने जैसा है.
क्या बिरसा को भगवान बनाना औपनिवेशिक मानसिकता है?
आदिवासी आज भी अपने जल-जंगल और ज़मीन के लिए संघर्ष कर रहे हैं. आज स्वतंत्र भारत में भी जब आदिवासी अपने हक के लिए आंदोलन करते हैं तो उन्हें दबाने के प्रयास किए जाते हैं, कई बार तथ्यों को तोड़-मरोड़कर पेश किया जाता है और राजनीतिक दल अपना हित साधने के लिए आदिवासियों का इस्तेमाल करते हैं.
ऐसा प्रतीत होता है मानो इतिहास खुद को दोहरा रहा हो. औपनिवेशिक काल में ब्रिटिशर्स ने बिरसा मुंडा के संगठित विद्रोह के डर से उन्हें धार्मिक उन्मादक की तरह पेश किया. आज राजनीतिक दल उन्हें भगवान बनाकर, गौरव जैसी भावनात्मक बातें करके, आदिवासी अधिकारों के लिए किए गए उनके मूल संघर्ष से ध्यान भटकाने का प्रयास कर रहे हैं.
पिछले कुछ वर्षों में अलग-अलग दलों ने बिरसा की विरासत को अपने हिसाब से अपनाने की कोशिश की है. कहीं उन्हें आदिवासी नायक कहा जाता है, तो कहीं सनातनी योद्धा के रूप में दिखाया जाता है. पर इस सबके बीच सामाजिक समानता, ज़मीन के अधिकार और ब्रिटिश शासन के खिलाफ आदिवासी एकता का उनका संदेश धीरे-धीरे पीछे छूटता जा रहा है.
वरिष्ठ आदिवासी कार्यकर्ता दयामनी बारला ने भी बिरसा मुंडा की जयंती को जनजातीय गौरव दिवस घोषित किए जाने पर चिंता जताई थी.
दयामनी बारला ने सुझाव दिया था कि बिरसा मुंडा जयंती को ‘उलगुलान दिवस’ कहा जा सकता है. क्योंकि ‘उलगुलान’ शब्द ही बिरसा मुंडा के उस आंदोलन की पहचान है, जिसने आदिवासियों में जागरूकता और एकता की भावना जगाई थी.
बारला कहती हैं, “शायद इसलिए इस नाम को नहीं अपनाया गया, क्योंकि कोई भी बिरसा के असली मूल्यों को अपनाना नहीं चाहता.”
पत्रकार नोलिना मिन्ज़ अपनी एक रिपोर्ट में बताती हैं कि नवंबर 2022 में जब राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू बिरसा मुंडा के जन्मस्थान उलिहातू पहुंचीं, तो बिरसा मुंडा के परपोते बुधराम मुंडा और उनके परिवार ने उन्हें एक सामूहिक पत्र सौंपा था.
उसमें अनुरोध किया गया था कि इस दिन का नाम ‘बिरसा मुंडा आदिवासी दिवस’ रखा जाए ताकि बिरसा का नाम और आदिवासी पहचान, दोनों एक साथ याद किए जा सकें. लेकिन अब तक इस मांग पर कोई कदम नहीं उठाया गया है.