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विमुक्त जनजातियों को वर्गीकृत करने का क्या प्रभाव पड़ेगा

अगस्त 1949 में जब 1924 के आपराधिक जनजाति अधिनियम को निरस्त किया गया, जिसके बाद "अपराधी" के रूप में अधिसूचित समुदायों को गैर-अधिसूचित किया गया, तब से लगातार आयोगों ने इन समुदायों को वर्गीकृत करने का प्रयास किया है.

देश भर में मानव विज्ञान सर्वेक्षण (Anthropological Survey of India) और जनजातीय शोध संस्थानों (Tribal Research Institutes) ने पहली बार 268 विमुक्त, अर्ध-खानाबदोश और खानाबदोश जनजातियों को व्यापक रूप से वर्गीकृत किया है. जिनके बारे में माना जाता था कि उन्हें पहले कभी वर्गीकृत नहीं किया गया था.

तीन साल के अध्ययन के बाद एंथ्रोपोलोजिकल सर्वे ऑफ़ इंडिया और ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट ने इनमें से 179 समुदायों को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग की सूची में शामिल करने की सिफारिश की है.

इस अध्ययन के आधार पर इनमें से कम से कम 85 समुदायों को पहली बार वर्गीकरण के लिए पहचान की गई है. इससे पहले किसी आयोग ने इन समूहों की पहचान नहीं की थी.

अध्ययन में यह भी पाया गया कि 63 समुदाय जिन्हें कभी वर्गीकृत नहीं किया गया था, अब उनके बारे में पता नहीं चल पा रहा है. जिसका मतलब है कि वे संभवतः बड़े समुदायों में शामिल हो गए हैं, अपना नाम बदल लिया है या दूसरे राज्यों में चले गए हैं.

अध्ययन की आवश्यकता क्यों थी?

अगस्त 1949 में 1924 के आपराधिक जनजाति अधिनियम को निरस्त किया गया था. इसके जिसके बाद “अपराधी” के रूप में अधिसूचित समुदायों को गैर-अधिसूचित किया गया. उसके बाद से लगातार आयोगों ने इन समुदायों को वर्गीकृत करने का प्रयास किया है. इस कोशिश की शुरुआत काका कालेलकर की अध्यक्षता वाले पहले पिछड़ा वर्ग आयोग से हुई.

इसके बाद से से लोकुर समिति (1965), मंडल आयोग (1980), रेनके आयोग (2008) और इदाते आयोग (2017) ने देश भर में ऐसी जनजातियों को वर्गीकृत करने का प्रयास किया है. हालांकि, वे ऐसे सभी समुदायों की पहचान करने में विफल रहे हैं.

इस काम के लिए गठित अंतिम आयोग का नेतृत्व भीकू रामजी इदाते ने किया था, जिसने दिसंबर 2017 में अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत की थी.

इस रिपोर्ट में देश भर में कुल 1,200 से अधिक विमुक्त, अर्ध-घुमंतू और खानाबदोश जनजातियों को सूचीबद्ध किया था. इसके अलावा इसने कहा कि 267 समुदाय ऐसे थे जिन्हें कभी वर्गीकृत नहीं किया गया था.

इदाते आयोग की रिपोर्ट में कहा गया था कि पिछले आयोग कभी भी इन समुदायों को वर्गीकृत नहीं कर पाए थे और सिफारिश की गई थी कि वर्गीकरण का काम जल्द से जल्द पूरा किया जाए.

इस उद्देश्य से प्रधानमंत्री कार्यालय ने फरवरी 2019 में नीति आयोग के उपाध्यक्ष की अध्यक्षता में एक विशेष समिति का गठन किया. जिसमें इदाते, नीति अध्ययन केंद्र के डॉ. जे.के. बजाज और एएनएसआई के डायरेक्टर जनरल सदस्य थे.

इस समिति ने वर्गीकरण का काम एएनएसआई और टीआरआई को दिया. जिन्होंने फरवरी 2020 में परियोजना पर काम शुरू किया और अगस्त 2023 में एक रिपोर्ट प्रस्तुत की.

वर्गीकरण की क्या ज़रूरत है?

सामाजिक न्याय और अधिकारिता पर संसदीय स्थायी समिति ने दिसंबर 2022 की रिपोर्ट में कहा था कि उसने इन समुदायों के जल्द से जल्द वर्गीकरण पर सरकार की “आवश्यक कार्रवाई करने में असमर्थता” के बारे में बार-बार बताया.

सदन की समिति ने कहा, “उन्हें खोजने में देरी से उनकी परेशानी बढ़ेगी और वे एससी/एसटी के कल्याण के लिए मौजूदा योजनाओं का लाभ नहीं उठा पाएंगे.”

नई दिल्ली स्थित सामाजिक विज्ञान संस्थान के एमेरिटस प्रोफेसर एस. नारायण ने बताया कि गलत वर्गीकरण की समस्या औपनिवेशिक प्रशासन द्वारा आयोजित पहली जनगणनाओं से शुरू हुई.

उनका कहना है कि कई ऐसे उदाहरण हैं जब जनजातियों को जातियों में वर्गीकृत किया गया और इसके विपरीत भी किया गया. इनमें से कई के पीछे राजनीतिक कारण हो सकते हैं और यह आज़ादी के बाद भी जारी रहा.

उन्होंने कहा कि भले ही समुदायों को एससी, एसटी, ओबीसी सूचियों में शामिल करने का काम राजनीतिक हो सकता है. लेकिन जब कोई इसे मानवशास्त्रीय दृष्टिकोण से देखता है, तो वर्गीकरण अलग-अलग हो जाता है.

इसके अलावा डॉ. बी.के. लोधी जैसे सामुदायिक कार्यकर्ता और विशेषज्ञ, जिन्होंने इदाते आयोग को इसके काम में मदद की. उन्होंने कहा कि देश भर में विमुक्त, अर्ध-खानाबदोश और खानाबदोश समुदायों की पूरी सूची के अभाव में समुदायों और उनके लोगों को संगठित करना बहुत मुश्किल रहा है.

उनका कहना है कि कुछ को एससी, एसटी, ओबीसी के रूप में वर्गीकृत किया गया है, इनमें से कुछ गलत भी हैं. इसके अलावा सैकड़ों ऐसे हैं जिन्हें वर्गीकृत नहीं किया गया है.

इसका क्या असर होगा?

अब जबकि करीब सभी विमुक्त, खानाबदोश और अर्ध-खानाबदोश जनजातियां पहले से कहीं ज़्यादा वर्गीकृत होने के करीब हैं, इसका एक असर राजनीतिक भी हुआ है.

उत्तर प्रदेश, हरियाणा, मध्य प्रदेश और गुजरात के सामुदायिक कार्यकर्ता आरक्षण को ध्यान में रखते हुए इन समुदायों को एससी, एसटी और ओबीसी के रूप में वर्गीकृत करने के आधार पर सवाल उठा रहे हैं.

खानाबदोश और अर्ध-खानाबदोश समुदायों के बारे में अब दो तरह के विचार हैं.

एक विचार वर्गीकरण प्रक्रिया को पूरा करने का है ताकि सभी विमुक्त, खानाबदोश और अर्ध-खानाबदोश जनजातियों को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग के वर्गीकरण के अनुसार उनके लिए निर्धारित लाभ मिल सकें, जिसमें आरक्षण भी शामिल है.

दूसरा विचार संविधान में अनुसूची के रूप में विमुक्त जनजातियों के लिए एक अलग वर्गीकरण बनाने का है.

वहीं इस अध्ययन की सिफारिशों पर सरकार क्या कार्रवाई करती है, इसके आधार पर राज्य सरकारों के लिए समावेशन की प्रक्रिया शुरू करना आसान हो जाएगा, अगर वे ऐसा करने का फैसला करते हैं.

इस मामले में आगे की कार्रवाई पर बात करें तो एएनएसआई और टीआरआई ने एथनोग्राफिक अध्ययन पूरा कर लिया है, यह रिपोर्ट नीति आयोग के उपाध्यक्ष की अध्यक्षता वाली विशेष समिति के पास है.

अधिकारियों ने कहा है कि यह समिति अब सिफारिशों की “जांच” कर रही है और जल्द ही एक अंतिम रिपोर्ट तैयार करेगी, जिस पर सरकार फैसला लेगी.

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