पश्चिम बंगाल (West Bengal) में 12 आदिवासी संगठनों के एक समूह ने संयुक्त रूप से गुरुवार को 12 घंटे का राज्यव्यापी बंद किया था. संगठनों ने राजव्यापी बंद का आह्वान यह आरोप लगाते हुए किया कि पश्चिम बंगाल सरकार “आदिवासियों के इतिहास को विकृत करने” की कोशिश कर रही है और “अनुसूचित जनजाति (Scheduled Tribes) श्रेणी में गैर-आदिवासी लोगों को शामिल कर रही है.”
इन संगठनों ने सड़कों को अवरुद्ध कर दिया था. जिससे बांकुड़ा, झारग्राम और पश्चिम मेदिनीपुर जैसे कई जिलों में यातायात बाधित हो गया था.
खबरों के मुताबिक, प्रदर्शनकारियों ने झारग्राम जिले में 16 जगहों पर सड़कों और राजमार्गों को जाम कर दिया था. जिले भर में सुबह से ही दुकानें और बाजार बंद रहे. बांकुड़ा में प्रदर्शनकारियों ने सुबह छह बजे से 40 से अधिक स्थानों पर सड़कों को जाम कर दिया. नतीजतन रानीगंज-खड़गपुर राष्ट्रीय राजमार्ग और बांकुड़ा-पुरुलिया राष्ट्रीय राजमार्ग पर यातायात प्रभावित हुआ.
प्रदर्शनकारियों ने बांकुड़ा-शाल्टोरा, बांकुड़ा-कमलपुर, बांकुड़ा-दुर्गापुर, बांकुड़ा-झारग्राम और बांकुड़ा-रानीबांध राज्य राजमार्गों पर वाहनों को भी अवरुद्ध कर दिया. विरोध करने वाले संगठनों में से एक
आदिवासी कल्याण समिति की झारग्राम शाखा के अध्यक्ष मनोज कुमार मंडी ने कहा, “सरकार क्षत्रिय कुड़मी को अनुसूचित जनजाति श्रेणी में शामिल करने की कोशिश कर रही है. इसके विरोध में सभी आदिवासी संगठनों द्वारा 12 घंटे के बंगाल बंद का आह्वान किया गया था. आज सुबह से बंद का व्यापक असर रहा. हम एंबुलेंस, पानी के ठेले और दूध के ठेले जैसी आवश्यक सेवाओं को चलने दे रहे हैं. दवा की दुकानें भी खुली रहीं.”
मंच के नेताओं में से एक, देशबंधु सिंह सरदार ने कहा, “राज्य सरकार सांस्कृतिक अनुसंधान संस्थान (CRI) की रिपोर्ट को बदलने और गैर-आदिवासी लोगों को आदिवासी का शीर्षक देने की कोशिश कर रही है. हमारा विरोध उनके खिलाफ है.”
कुड़मी समाज की माँग
कुड़मी समुदाय, जो वर्तमान में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) श्रेणी में सूचीबद्ध है, अनुसूचित जनजाति का दर्जा देने और अपनी कुड़माली भाषा को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने की मांग कर रहा है.
कुड़मी समाज के लोग एसटी का दर्जा पाने की मांग को लेकर समय-समय पर आंदोलन कर रहे हैं. वे अपने आंदोलन में मुख्य रूप से रेलवे को निशाना बना रहे हैं और ट्रेन अवरोध कर दे रहे हैं. यह आंदोलन लगातार कई दिनों तक चलता रहता है. जिससे रेलवे को भारी नुकसान होता है. ट्रेन को रोके जाने से यात्रियों को भारी परेशानियों का सामना करना पड़ता है.
अप्रैल के पहले हफ्ते में ओडिशा और बंगाल की सीमा से सटे झारखंड के जिलों में कुड़मी-महतो समुदाय का पांच दिवसीय विरोध प्रदर्शन काफी शक्तिशाली था. मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक, प्रदर्शनकारियों ने 60 किलोमीटर लंबे हाईवे को जाम कर दिया था. इस दौरान रेलवे को लगभग 200 ट्रेनें रद्द करनी पड़ी थीं और कई राज्यों की ट्रेन सेवाएं बुरी तरह प्रभावित हुई थीं.
जातीय टकराव के हालात
जहां एक तरफ कुड़मी समुदाय एसटी श्रेणी में शामिल किए जाने की मांग को लेकर लगातार आंदोलन कर रहा है. वहीं दूसरी तरफ आदिवासी संगठन इस मांग के खिलाफ हैं. अब वो सड़क पर उतर रहे हैं और आए दिन इसके विरोध में ओडिशा, बंगाल और झारखंड में प्रदर्शन कर रहे हैं.
अभी जब आदिवासी संगठनों ने कुड़मियों की मांग के खिलाफ 8 जून को बंगाल बंद का ऐलान किया. इससे पहले इसी मुद्दे पर झारखंड में भी आदिवासी संगठनों ने बीते 4 जून को झारखंड के चांडिल में एक बड़ी रैली और आक्रोश जनसभा का आयोजन कर आंदोलन तेज़ करने का ऐलान किया.
ऐसे में कुड़मी बनाम आदिवासी विवाद जोर पकड़ रहा है. और इस स्थिति को देखकर लगता है कि आने वाले दिन में ये मुद्दा मुश्किल हालात पैदा कर सकता है.
कुड़मी समुदाय का दावा
इस मामले के जानकारों के मुताबिक कुर्मी समुदाय को आदिवासी बनाने का विवाद काफी पुराना रहा है. कुर्मी को आदिवासी बनाने की मांग करने वालों का तर्क है कि 1931 तक यह समुदाय आदिवासी की श्रेणी में शामिल रहा है, जिसे बाद में हटा दिया गया.
वहीं इस मांग का विरोध करनेवाले आदिवासी समुदाय के लोगों और संगठनों का आरोप है कि कुड़मियों की यह मांग आदिवासियत का अतिक्रमण और उनके स्वतंत्र सामुदायिक अस्तित्व पर हमला है. उनका कहना है कि आदिवासी समुदाय को मिलने वाले संवैधानिक विशेषाधिकारों और आरक्षण के लाभ पर कुड़मियों की नज़र है.
आदिवासी नेताओं का यह भी कहना है कि देश भर के आदिवासी आज अपने लिए अलग धर्म कोड की मांग को लेकर आंदोलनरत हैं लेकिन कुर्मी समुदाय के लोग कभी भी इस मांग को नहीं उठाते हैं. जो साबित करता है कि पहले से ही वे किसी न किसी धर्म के अंतर्गत जी रहें हैं और उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है.
आदिवासी नेताओं का कहना है कि कुड़मी समुदाय के जिन लोगों का दावा है कि वे 1950 के पहले एसटी की सूची में शामिल थे तो उन्हें अपने तर्कों और तथ्यों के साथ सुप्रीम कोर्ट में जाना चाहिए. इसे करने की बजाय रेल रोको, सड़क जाम और प्रदर्शन हंगामा करके बेवजह सामाजिक बखेड़ा नहीं खड़ा करना चाहिए.
अनुसूचित जनजाति कौन है
किसी आदिवासी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने की कोई स्पष्ट परिभाषा नहीं है. लेकिन लोकुर कमेटी की सिफ़ारिशों के आधार पर किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने के कुछ आधार तय किये गए हैं.
फिलहाल किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति में शामिल करने के लिए सबसे पहले ट्राइबल रिसर्च इंस्टिट्यूट को उस समुदाय के बारे में शोध करने की ज़िम्मेदारी दी जाती है. उसके बाद शोध में पाए गए तथ्यों के आधार पर राज्य सरकार किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने की सिफ़ारिश भेजती है. उसके बाद यह सिफ़ारिश राष्ट्रीय जनजाति आयोग को भेजी जाती है.
आयोग अगर सिफ़ारिशों से संतुष्ट होता है तो फिर यह सिफ़ारिश भारत के महारजिस्ट्रार को भेजी जाती है. वहां से फिर प्रस्ताव कैबिनेट में पेश किया जाता है. कैबिनेट की मंजूरी के बाद इस प्रस्ताव को संसद में पेश किया जाता है. संसद की अनुमति के बाद ही किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने की सिफ़ारिश राष्ट्रपति को भेजी जाती है.
मोटेतौर पर यह कहा जा सकता है कि किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने का अंतिम फैसला केंद्र सरकार के हाथ में ही है.
इस बात में कोई दो राय नहीं है कि किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति की सूचि में शामिल करने का फैसला एक राजनीतिक मुद्दा बना हुआ है. लेकिन इस मुद्दे को राजनीतिक मुद्दा बनाने के लिए विपक्ष को दोष नहीं दिया जा सकता है.
इस मुद्दे को चुनाव में फायदा पाने की मंशा से बीजेपी की केंद्र सरकार ने ही राजनीतिक मुद्दा बनाया है.