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झारखंड में आदिवासी देउड़ी मां मंदिर को लेकर क्यों आंदोलन कर रहे हैं?

मंदिर को लेकर संघर्ष की शुरुआत स्थानीय स्तर पर हुई थी लेकिन वास्तव में यह इस क्षेत्र में आदिवासी और गैर-आदिवासी समुदायों के बीच भूमि, पहचान और संस्कृति के सवालों को लेकर गहरे तनाव को दर्शाता है.

5 सितंबर को सुबह करीब 6.30 बजे झारखंड (Jharkhand) के रांची जिले के देउड़ी गांव के आदिवासियों के एक समूह ने प्रसिद्ध दिउड़ी मां मंदिर (Deori Maa mandir) के द्वार कुछ घंटों के लिए बंद कर दिए गए थे.

आदिवासियों ने कहा कि ऐसा करना ज़रूरी था क्योंकि उन्होंने मंदिर से जुड़े विवादों पर चर्चा करने के लिए एक बैठक की योजना बनाई थी, जिसे स्थानीय मुंडा आदिवासियों की भाषा मुंडारी में देउड़ी दिरी के नाम से जाना जाता है.

आदिवासियों में शामिल किरण मुंडा ने कहा, “हमने उस दिन बाद में ग्राम सभा की बैठक रखी थी और हम चाहते थे कि स्थानीय दुकानदार और श्रद्धालु इसमें शामिल हों इसलिए हमने मंदिर के मुख्य द्वार को बंद कर दिया.”

लेकिन इस कदम से स्थानीय हिंदू समूहों में रोष फैल गया, जिन्होंने पुलिस और प्रशासन से हस्तक्षेप करने को कहा. कुछ घंटों बाद अधिकारियों ने ताला तोड़ दिया और भक्तों ने मंदिर के अंदर पूजा फिर से शुरू कर दी. फिर भी गुस्साए हिंदू समूहों ने मांग की कि मंदिर को बंद करने में शामिल लोगों को गिरफ्तार किया जाए.

उन्होंने तमाड़ ब्लॉक, जहां गांव स्थित है और पड़ोसी बुंडू ब्लॉक में बंद का आह्वान किया.

वहीं आदिवासियों ने जोर देकर कहा कि उनका कोई गलत भावना नहीं थी. आदिवासी भूमिज मुंडा चुआर संगम के एक सामुदायिक नेता मानिक सिंह सरदार ने कहा, “हमने बैठक इसलिए बुलाई थी क्योंकि देवरी दिरी के नियंत्रण को लेकर हमेशा भ्रम की स्थिति रही है और प्रशासन को चीजों को स्पष्ट करने की जरूरत है.”

आज मंदिर में बड़ी संख्या में हिंदू श्रद्धालु आते हैं लेकिन स्थानीय आदिवासी लोगों ने बताया कि पहले इसकी एक अलग पहचान थी.

मंदिर के आदिवासी पाहन या पुजारी राम सिंह मुंडा ने कहा, “देउड़ी मंदिर से पहले देउड़ी दिरी था. जिनका परिवार कई पीढ़ियों से मंदिर में पाहन के रूप में काम कर रहा है. यह आदिवासियों के लिए एक पवित्र स्थान है.”

समुदाय के नेता सरदार ने कहा कि हमारा इरादा किसी को भी मंदिर में प्रवेश करने से रोकना नहीं था.

8 सितंबर को पुलिस ने दो स्थानीय लोगों राधाकृष्ण मुंडा और पूर्णचंद्र मुंडा को गिरफ्तार किया. उन्होंने दंगा, गैरकानूनी तरीके से इकट्ठा होने और विभिन्न समूहों के बीच दुश्मनी को बढ़ावा देने जैसे अपराधों के लिए 17 स्थानीय लोगों और 100 अज्ञात लोगों के खिलाफ प्राथमिकी भी दर्ज की। 4 अक्टूबर को दोनों को जमानत पर रिहा कर दिया गया।

हालांकि मंदिर को लेकर संघर्ष की शुरुआत स्थानीय स्तर पर हुई थी लेकिन वास्तव में यह इस क्षेत्र में आदिवासी और गैर-आदिवासी समुदायों के बीच भूमि, पहचान और संस्कृति के सवालों को लेकर गहरे तनाव को दर्शाता है.

यह 29 सितंबर को देउड़ी से कुछ किलोमीटर दूर तोरंग मैदान में आयोजित एक रैली में स्पष्ट हुआ, जहां देउड़ी के आदिवासियों के मंदिर पर अधिकार के समर्थन में राज्य भर से आदिवासी समूह एकत्र हुए.

मंच पर आए कई वक्ताओं ने अपने भाषणों का समापन इस घोषणा के साथ किया कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं.

सरना धर्म के नेता बंधन तिग्गा ने कहा कि यह संघर्ष आदिवासियों के लिए अलग सरना धार्मिक संहिता की लड़ाई से जुड़ा है. उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का जिक्र करते हुए कहा, “आरएसएस आदिवासियों को हिंदू बनाना चाहता है. लेकिन हमारे रीति-रिवाज और जीवनशैली हिंदुओं से बहुत अलग हैं. वे मूर्तियों की पूजा करते हैं जबकि हम प्रकृति की पूजा करते हैं.”

तिग्गा ने बताया कि देउड़ी के अलावा झारखंड में कई अन्य मंदिर हैं, जो सरना और अन्य समुदायों के बीच विवादित दावों के स्थल हैं. जैसे रांची में पहाड़ी मंदिर, गिरिडीह में पारसनाथ मंदिर और बेरो में मुरहाद मंदिर.

एक दशक पुराना संघर्ष

देउड़ी दिरी – “दिरी” का मतलब मुंडारी में पत्थर होता है. यह मंदिर झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 60 किलोमीटर दूर, जमशेदपुर को जोड़ने वाले राजमार्ग पर स्थित है. हर साल हजारों लोग इसे देखने आते हैं, जिनमें भारतीय टीम के पूर्व क्रिकेट कप्तान एमएस धोनी भी शामिल हैं, जिन्होंने इसे लोकप्रिय बनाने में भूमिका निभाई.

सरदार ने कहा, “2011 में भारतीय क्रिकेट टीम ने विश्व कप जीता और कई लोगों का मानना ​​है कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि धोनी ने देउड़ी में इसके लिए प्रार्थना की थी.”

स्थानीय किंवदंतियों के मुताबिक, एक सदी पहले तक मंदिर के गर्भगृह में केवल एक पत्थर या देउड़ी थी, जिसकी आदिवासी पूजा करते थे. लेकिन मंदिर की प्रकृति में तब बदलाव आना शुरू हुआ जब तामार क्षेत्र के एक विशेष हिंदू राजा ने फैसला किया कि वह इस स्थल पर पूजा करना चाहता है और एक ब्राह्मण पुजारी या पंडा को बुलाया.

इसके बाद हिंदू मंदिर में अक्सर आने लगे और पत्थर पर देवी दुर्गा की 16 भुजाओं वाली मूर्ति बना दी गई, जिसकी पूजा आज भी सभी आने वाले श्रद्धालु करते हैं.

समय के साथ समूहों के बीच संघर्ष शुरू हो गया. देउड़ी ग्राम सभा के सदस्य संदीप मुंडा ने कहा कि यह संघर्ष दशकों से चल रहा है. उन्होंने कहा, “मुझे याद है कि जब मैं 30-40 साल पहले छोटा बच्चा था, तब अपने पिता के साथ इस मुद्दे पर एक प्रदर्शन में शामिल हुआ था.”

कुछ समय के लिए प्रशासन ने अलग-अलग समूहों को अलग-अलग समय आवंटित करके तनाव को कम करने की कोशिश की.

न्यूज पोर्टल लोकतंत्र19 को दिए एक इंटरव्यू में सीताराम बारी, जो 1984 में तमाड़ के सर्किल अधिकारी थे. उन्होंने बताया कि उन्होंने एक आदेश जारी किया था जिसके तहत पंडों को केवल मंगलवार को मंदिर में जाने की अनुमति थी. हालांकि, समय के साथ पंडों की संख्या में वृद्धि हुई और वे पाहनों के साथ मिलकर पूजा करने लगे.

रांची में रहने वाली और कई वर्षों से संघर्ष पर नज़र रखने वाली लोकतंत्र19 की पत्रकार सुनीता मुंडा ने कहा, “जब से धोनी ने मंदिर को लोकप्रिय बनाया है, तब से हिंदू भक्तों की संख्या में भी वृद्धि हुई है और वे आदिवासियों से कहीं ज़्यादा हैं क्योंकि उनके पास नियमित रूप से मंदिर जाने के लिए ज़्यादा धन और संसाधन हैं.”

पारंपरिक भूमि-स्वामित्व प्रणाली

कई स्थानीय लोगों का कहना है कि यह बदलाव आदिवासियों के भूमि पर अधिकारों का उल्लंघन है. उनका दावा है कि यह स्थल आदिवासियों का है और मुंडारी खुंटकट्टी भूमि प्रणाली के अंतर्गत आता है, जो उन लोगों को भूमि का संयुक्त स्वामित्व प्रदान करता है जिन्होंने पहले भूखंडों को खेती योग्य बनाने के लिए साफ किया था. यह भूमि उनके वंशजों को हस्तांतरित की जाती है.

स्थानीय लोगों के पास 1906 में हुए भूमि सर्वेक्षण के रिकॉर्ड हैं, जिसमें कहा गया है कि यह भूमि खूंटकट्टी स्वामित्व के अंतर्गत आती है.

हालांकि, उसी भूमि सर्वेक्षण में यह भी कहा गया है कि जिस भूमि पर मंदिर खड़ा है, वह मंदिर में काम करने वाले एक हिंदू पुजारी चमरू पंडा के नाम पर पंजीकृत थी. 

1932 में बाद में हुए भूमि सर्वेक्षण में केवल चमरू पंडा के पंजीकरण का उल्लेख है. सरदार ने कहा, “1906 के भूमि रिकॉर्ड स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि यह खूंटकट्टी भूमि है लेकिन यह भूमि भी एक पंडा के नाम पर पंजीकृत थी.”

उन्होंने कहा कि छोटानागपुर काश्तकारी अधिनियम 1908 में पारित किया गया था – बिरसा मुंडा के विद्रोह के जवाब में अंग्रेजों द्वारा अधिनियमित यह कानून आदिवासी लोगों की भूमि की सुरक्षा के लिए आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को बेचने पर रोक लगाता है.

यह झारखंड भर में लागू है, सिवाय संताल परगना डिवीजन के…

सरदार ने कहा, “आदिवासी जानना चाहते हैं कि अगर खूंटाखट्टी जमीन अहस्तांतरणीय है तो फिर किस आधार पर वह जमीन पंडा के नाम पर दर्ज की गई?”

2021 में जिन लोगों के पास पहले खूंटकट्टी अधिकार थे, उनके वंशजों ने झारखंड हाई कोर्ट में इस भूमि पर पंडा के मूल दावे को चुनौती दी, जिसने मामले को रांची के डिप्टी कमिश्नर के पास समाधान के लिए भेज दिया.

फिर 2023 में डिप्टी कमिश्नर ने याचिकाकर्ताओं की चुनौती को खारिज करते हुए एक आदेश जारी किया और कहा कि वे इस मामले में हाई कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के लिए स्वतंत्र हैं.

इस बीच, 2020 में प्रशासन ने एक ट्रस्ट का गठन किया जो अब मंदिर के संचालन का प्रबंधन करता है.

लेकिन सरदार ने तर्क दिया कि यह कदम आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए बनाए गए कानूनों का उल्लंघन है. उन्होंने तर्क दिया कि स्थानीय ग्राम सभा की सहमति के बिना ट्रस्ट का गठन नहीं किया जाना चाहिए था क्योंकि यह क्षेत्र पांचवीं अनुसूची के अंतर्गत आता है.

पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम (PESA) के मुताबिक, जिसे संसद ने 1996 में अधिनियमित किया था, पांचवीं अनुसूची के तहत क्षेत्रों की ग्राम सभाओं को भूमि प्रबंधन के मामलों पर निर्णय लेने का अधिकार है.

स्थानीय आदिवासियों का आरोप है कि प्रशासन ने इन अधिकारों का उल्लंघन किया है. देउड़ी की निवासी किरण मुंडा ने आरोप लगाया कि 2020 के अंत में कोविड-19 महामारी के दौरान, स्थानीय प्रशासन के सदस्यों ने आदिवासी स्थानीय लोगों से संपर्क किया और मंदिर की चाबियां मांगीं.

उन्होंने कहा कि हमने उनसे कहा कि हम इस मामले पर चर्चा करने के लिए ग्राम सभा की बैठक करेंगे और फिर उन्हें चाबी दे देंगे. लेकिन इन लोगों ने गुप्त तरीके से परिसर पर नियंत्रण हासिल कर लिया.

उन्होंने कहा, “उन्होंने मंदिर में जाने के लिए कहा, जो हमने किया. लेकिन इसके बाद उन्होंने प्रवेश द्वार बंद कर दिया, दान पेटी से पैसे निकाल लिए, हमारा ताला तोड़ दिया और अपना ताला लगा दिया.”

वहीं देउड़ी मंदिर में काम करने वाले हिंदू पुजारी का कहना है कि देउड़ी मंदिर की जमीन मेरे पूर्वज चमरू पांडा को तमार के राजा ने उपहार में दी थी. मंदिर के आसपास की जमीन खूंटाखट्टी जमीन है और यह मुंडाओं की है, लेकिन मंदिर की जमीन हमारी है.

पुजारी ने दावा किया कि हिंदू पुजारी सदियों से वहां पूजा करते आ रहे हैं, पाहन बहुत बाद में आए.

विरोध के बारे में उन्होंने कहा कि मंदिर की जमीन पर आदिवासियों के दावे को झारखंड हाई कोर्ट और जिला आयुक्त दोनों ने खारिज कर दिया है.

मंदिर का ट्रस्ट

मंदिर को चलाने वाला ट्रस्ट अक्टूबर 2020 में बनाया गया था क्योंकि इस पर विवाद गहरा गया था. ट्रस्ट में जिला प्रशासन और पुलिस के सदस्य, तमाड़ के राजनीतिक प्रतिनिधि और कुछ स्थानीय लोग शामिल थे.

कुछ रिपोर्टों ने सुझाव दिया कि यह कदम समुदायों के बीच विवाद से संबंधित नहीं था. तमाड़ के सर्किल ऑफिसर ने टाइम्स ऑफ इंडिया को बताया कि प्रशासन ने “वित्तीय अनियमितताओं की कई शिकायतों के बाद मंदिर के मामलों के प्रबंधन में हस्तक्षेप किया था.”

वहीं स्थानीय आदिवासी इसकी स्थापना के बाद से ही ट्रस्ट का विरोध कर रहे हैं. राम सिंह मुंडा नामक एक पाहन ने कहा कि भक्त दूर-दूर से आते हैं और मंदिर में उदारतापूर्वक दान करते हैं, स्थानीय प्रशासन दान पेटी में आने वाले पैसे के लिए लालची हो गया. ट्रस्ट की स्थापना हम आदिवासियों से नियंत्रण छीनने के लिए की गई थी ताकि प्रशासन आदिवासियों को भगा सके और मंदिर को एक बड़े व्यवसाय में बदल सके.

स्थानीय लोगों ने बताया कि इसके गठन के बाद ट्रस्ट ने मंदिर के प्रवेश द्वार के पास एक रेट चार्ट बनाया जिसमें विभिन्न सेवाओं के लिए निर्धारित दरें दर्शाई गई थीं.

उदाहरण के लिए, छह या उससे अधिक पहियों वाले वाहन की पूजा के लिए 500 रुपये, विवाह समारोह के लिए 1,150 रुपये और 200 रुपये देकर मंदिर में जल्दी प्रवेश किया जा सकता है.

स्थानीय लोगों ने इस कदम का कड़ा विरोध किया. उनका कहना है कि रेट तय नहीं होनी चाहिए. ऐसा करके वे पवित्र स्थान को व्यवसायिक स्थल में बदल रहे हैं.

इसके अलावा अन्य योजनाओं ने भी स्थानीय लोगों को चिंता में डाल दिया है. इस साल मार्च में जब चंपई सोरेन झारखंड के मुख्यमंत्री थे, राज्य सरकार ने घोषणा की कि वह मंदिर के सौंदर्यीकरण के लिए करीब 9 करोड़ रुपये आवंटित करेगी.

योजनाओं में 30 दुकानें, एक प्रशासनिक ब्लॉक, एक लंच हॉल, एक विवाह हॉल और एक वीआईपी गेस्ट हाउस का निर्माण शामिल है. मंदिर के आस-पास की दुकानें चलाने वाले स्थानीय लोगों को डर है कि जब स्थल का सौंदर्यीकरण शुरू होगा तो उन्हें विस्थापित कर दिया जाएगा.

दुकानदारों का कहना है कि स्थानीय प्रशासन ने हमें अपनी दुकानें बंद करने के लिए नोटिस देने की कोशिश की लेकिन हमने उन्हें लेने से इनकार कर दिया. हम उनसे बहुत दबाव में हैं. जब भी हम इकट्ठा होने और बैठकें करने की कोशिश करते हैं तो वे आकर हमें धमकाते हैं.

इस कदम का विरोध 29 सितंबर की रैली में भी किया गया. लोगों का कहना है कि वो ट्रस्ट नहीं चाहते हैं, ग्राम सभा को मंदिर का प्रबंधन करने दिया जाना चाहिए. कार्यकर्ताओं ने कहा कि जब तक उनकी मांगें पूरी नहीं हो जातीं, वे रैलियां और प्रदर्शन करते रहेंगे.

8 और 9 सितंबर को देवरी के स्थानीय लोग मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन से मिलने उनके आवास पर रांची गए. लेकिन सोरेन ने दोनों ही दिन स्थानीय लोगों से मुलाकात नहीं की.

सरकार की ओर से कोई प्रतिक्रिया न मिलने से निराश होकर 1 अक्टूबर को आदिवासी कार्यकर्ता रांची के अल्बर्ट एक्का चौक पर एकत्र हुए और सोरेन और तमाड़ विधायक विकास सिंह मुंडा की कठपुतलियों को जलाया.

देउड़ी के कुछ स्थानीय लोगों का तर्क है कि देउड़ी-दिरी पर विवाद केवल भूमि और उसके स्वामित्व को लेकर है, न कि धर्म को लेकर.

सरदार ने कहा, “हम आस्था के आधार पर किसी को भी मंदिर में आने से नहीं रोक रहे हैं. हर किसी को देवरी आने की अनुमति है. हम मंदिर के विकास के खिलाफ भी नहीं हैं लेकिन फंड ग्राम सभा को मिलना चाहिए और उन्हें संचालन का प्रबंधन करना चाहिए.”

लेकिन अन्य लोगों का मानना ​​है कि समस्या और भी गहरी है और ट्रस्ट की स्थापना और स्थल का अधिग्रहण स्थल पर मुंडा आदिवासी के दावों को मिटाने और इसे केवल हिंदू मंदिर बनाने का प्रयास है.

उनका कहना है कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं और यह लड़ाई सरना पहचान की लड़ाई का हिस्सा है.

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