HomeLaw & RightsThe Adivasi Question: आदिवासियों के हक़ छीन लेने का बड़ा प्लान

The Adivasi Question: आदिवासियों के हक़ छीन लेने का बड़ा प्लान

यह लेख तो यह सोचने पर मजबूर करता है कि आख़िर यह लेख किस नीयत से लिखा गया है, और देश की राजधानी दिल्ली से छपने वाले सबसे बड़े अंग्रज़ी अख़बार में इस लेख को जगह क्यों दी गई है.

16 दिसंबर 2022 को देश के एक बड़े अंग्रेज़ी अख़बार Times of India में आदिवासियों पर एक लेख छपा. जब हम अख़बार पढ़ते हैं तो अक्सर पहले ख़बरें पढ़ते हैं और फिर समय रहे तो कोई बड़ा लेख भी पढ़ लतें हैं. लेकिन उस दिन मेरी इस लेख पर नज़र पड़ी तो  मैंने ख़बरें छोड़ दी और पहले इस लेख को पढ़ा…क्योंकि एक तो लेख आदिवासियों पर था और दूसरा इसका शीर्षक भी ऐसा था कि लगा कि पहले इस लेख को ही पढ़ा जाए. इस लेख का शीर्षक था..” How we Treat our first Citizens…यानि हम अपने देश के प्रथम नागरिकों के साथ कैसा सलूक करते हैं.

इस लेख का उप शीर्षक कहता है कि आज भी हमारे देश में ब्रिटिश राज के पूर्वाग्रहों के साथ बने क़ानून आदिवासियों को टार्गेट करते हैं. लेकिन इस लेख की Summary में जो लिखा गया था…उसने मुझे हिला कर रख दिया. इस लेख की समरी में कुल मिला कर कहा यह गया था कि संविधान के अनुसूची 5 और 6 की भाषा और तर्क उपनिवेशवादी सोच (colonial mindset) से प्रभावित है.

यह लेख आपको सोचने पर मजबूर करता है….ना – ना, मेरे कहने का मतलब यह नहीं है कि यह लेख इतने प्रभावशाली तरीक़े से लिखा गया है या फिर इसमें आदिवासियों से जुड़े ऐसे सवाल हैं जो आपको सोचने पर मजबूर कर देंगे. यह लेख तो यह सोचने पर मजबूर करता है कि आख़िर यह लेख किस नीयत से लिखा गया है, और देश की राजधानी दिल्ली से छपने वाले सबसे बड़े अंग्रज़ी अख़बार में इस लेख को जगह क्यों दी गई है.

इस लेख को दो रिसर्च फैलो  Argya Sen Gupta और Aditya Prasanna Bhattacharya ने मिल कर लिखा है. इस लेख को पढ़ने के बाद मेरे मन में यह विचार आया कि इस लेख का एक जवाब अख़बार को भेजा जाए. लेकिन फिर यह विचार इस ख़्याल से छोड़ दिया कि संविधान और क़ानून का कोई ना कोई बड़ा जानकार या फिर कोई राजनीति शास्त्री इस लेख का जवाब शायद मुझसे बेहतर लिखेगा.. और ज़रूर लिखेगा. 

लेकिन फिर भी मैंने अख़बार का वो पन्ना मोड़ कर अपने ऑफिस वाले बैग में रख लिया. आज याद आया कि अभी तक किसी ने भी इस लेख का जवाब नहीं लिखा है या फिर मेरी नज़र में नहीं आ पाया…तो सोचा चलिए इस लेख के बारे में आपसे बात करूँ…

दोस्तों मुझे ऐसा लगता है कि यह लेख एक बड़े प्लान का हिस्सा है. उस प्लान का हिस्सा जिसके तहत उन संवैधानिक प्रावधानों या क़ानूनों को ख़त्म करना है जो आदिवासी की जल, ज़मीन, जंगल और संस्कृति की रक्षा करने के लिए मौजूद हैं. 

इस लेख में संविधान की अनुसूची 5 और 6 के अलावा एक और महत्वपूर्ण क़ानून को ब्रिटिश राज के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त बताया गया है. यह क़ानून है संथाल परगना एक्ट 1855. 

संथाल परगना एक्ट 1855 कानून क्यों और कैसे बना…इस पर आगे चर्चा करेंगे, लेकिन आईए पहले देखते हैं कि इन दो महानुभावों ने इस क़ानून के बारे में क्या कहा है…तो सुनिये इस लेख में कहा गया है कि अंग्रेंज़ों ने इस कानून को यह मानते हुए बनाया था कि आदिवासी असभ्य लोग हैं और जिन पर कानून का राज नहीं चल सकता है. इस लेख को लिखने वाले कहते हैं वे यह बात किसी अनुमान से नहीं कही जा रही है,  बल्कि इस क़ानून की प्रस्तावना में यह बात साफ़ तरीके से लिखी गई है. इस लेख में आगे कहा जाता है…संथाल विद्रोह के नायक सिधु कान्हू मुर्मू को भारत के इतिहास की किताबों में शायद ही कभी जगह मिली हो…लेकिन 1855 में बना संथाल परगना एक्ट 1855 , क़ानून की किताबों में अभी भी मौजूद है…

अब कोई इनसे महानुभावों से पूछे कि जो अंग्रेज़ संथाल आदिवासियों से युद्ध में हार गए, क्या वे इस क़ानून की प्रस्तावना में यह लिखते कि हमने बड़े बड़े राजा-महाराजाओं को हरा दिया, लेकिन हम आदिवासियों को नहीं जीत सके. इसलिए हमें हार कर यह क़ानून बनाना पड़ रहा है जिसमें हम जल, जंगल और ज़मीन पर आदिवासी अधिकार को स्वीकार करते हैं. इसके साथ ही क्या अंग्रेज़ यह भी लिख देते कि आदिवासियों ने अंग्रेजों के बनाए क़ानूनों को मानने से मना कर दिया है इसलिए मजबूरी में वो संथाल परगना एक्ट 1855 बना रहे हैं. 

अब आते हैं उनकी दूसरी बात पर कि आदिवासी नायकों सिदो कान्हू को इतिहास की किताबों में जगह नहीं मिली है. यह एक आम धारणा है कि आदिवासी नायकों के बारे में उनके योगदान और इतिहास के बारे में आज़ाद भारत के इतिहास में कम लिखा गया है. 

यह बात शायद किसी हद तक सही भी हो…लेकिन यह कहना कि संथाल नायकों सिदो कान्हो के बारे में भी नहीं लिखा गया है, शायद सही नहीं होगा. बल्कि अफ़सोस की बात तो ये है कि आदिवासियों, आदिवासी नायकों और आज़ादी की लड़ाई में उनके योगदान के बारे में जितना लिखा गया है, उसे भी ढंग से पढ़ा नहीं गया है. 

बहरहाल इतिहास लेखन पर कभी फिर बात करेंगे…लौटते हैं संथाल परगना एक्ट 1855 पर जिसे एक अंग्रेज़ी अख़बार के लेख में उपनिवेशवादी पूर्वाग्रह की निशानी बताया गया है. 

संथाल परगना एक्ट 1855 औपनिवेशिक ताक़त यानि अंग्रेज़ों के ख़िलाफ़ संथाल आदिवासियों के संघर्ष और शहादत का नतीजा था. यह कहना कि इस क़ानून का निर्माण इसलिए किया गया था कि अंग्रेज़ों ने यह मान लिया था कि संथाल इतने असभ्य हैं कि उन पर क़ानून का राज नहीं चल सकता.

आदिवासियों और उनके संघर्ष का अपमान है. इस क़ानून के निर्माण के पीछे की सच्चाई ये है कि अंग्रेजों ने यह मान लिया था कि उनकी सेना… अब संथाल इलाक़ों में आदिवासियों को लूटने वाले साहूकारों और ज़मींदारों को नहीं बचा सकेगी.

इसलिए उन्हें यह क़ानून लाना पड़ा, इस क़ानून को ग़ुलामी का प्रतीक बताने वालों को इतिहास फिर से पढ़ना चाहिए, तब शायद उन्हें यह समझ में आएगा कि यह एक क़ानून मात्र नहीं है बल्कि भारत की आज़ादी की लड़ाई से जुड़ा एक अहम दस्तावेज़ भी है.

लेकिन शायद ना तो उन्होंने इतिहास पढ़ा है और ना ही वे  इस इतिहास को पढ़ना चाहेंगे. क्योंकि उनका आग्रह इतिहास को समझना है ही नहीं…फिर वो क्या चाहते हैं. वो चाहते हैं उन क़ानूनों और संवैधानिक प्रावधानों को ख़त्म करना जो आदिवासी इलाक़ों में उन्हें ज़मीन अधिग्रहण से रोकते हैं.

इस लेख का उद्देश्य समझना बहुत मुश्किल नहीं है…अगर थोड़ा पीछे पलटें तो दिखाई पड़ता है की आदिवासी अधिकारों से जुड़े क़ानूनों को बदल दिये जाने की एक बेचैनी और जल्दबाज़ी है.  

इस सिलसिले में जब पीछे की तरफ़ चलेंगे तो पर्यावरण संरक्षण नियम, 2022 पर नज़र पड़ेगी. इन नियमों के तहत जंगल पर आदिवासी के अधिकार को ख़त्म कर दिया गया है. इस क़ानून के  बारे में तो राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग को भी कहना पड़ा कि ये आदिवासी अधिकारों पर हमला है. 

और थोड़ा पीछे चलिए, क़रीब 6 साल पहले झारखंड में संथाल परगना टेनेंसी एक्ट और छोटा नागपुर टेनेंसी एक्ट के प्रावधानों को बदलने का प्रयास किया गया. इन क़ानूनों में बदलाव का एक ही मक़सद था, आदिवासियों की ज़मीन हासिल की जा सके. 

भूमि अधिग्रहण क़ानून में संशोधन के प्रयास भी किये गए थे….आपको याद ही होगा…

दरअसल बुलेट ट्रेन, भारत माला प्रोजेक्ट, या फिर कोयला, लोहा और दूसरे खनिज हों, इन सभी के लिए आदिवासी की ज़मीन चाहिए…वो भी बिना किसी सहमति, पुख़्ता पुनर्वास नीति और पर्याप्त मुआवज़े के….इसलिए संविधान की अनुसूची 5-6 और संथाल परगना एक्ट में कुछ लोगों को ग़ुलामी की निशानी नज़र आती है, लेकिन सच्चाई ये है कि ये प्रावधान और क़ानून आदिवासी के संसाधनों पर उनके हक़ की गारंटी है. 

जो आदिवासी सम्मान की बात कर रहे हैं….जो गुलाम मानसिकता को तोड़ने का दावा कर रहे हैं…उनके इरादों को समझना बेहद ज़रूरी है….

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