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घर तक राशन पहुंचाने की स्कीम बंद करना आदिवासियों के साथ धोखा है

हर महीने राशन डिपो से राशन का स्टॉक मिनी ट्रकों में लोड किया जाता था जो गांवों और बस्तियों में तय मार्गों पर चलते थे. गांव या वार्ड के स्वयंसेवक निवासियों को डिलीवरी शेड्यूल के बारे में पहले से सूचित करते थे.

1 मई, 2025 को आंध्र प्रदेश सरकार ने आधिकारिक तौर पर राशन की डोरस्टेप डिलीवरी बंद कर दी.

हालांकि, इस योजना ने आंध्र प्रदेश को भारत के उन कुछ राज्यों में से एक बना दिया था जो मोबाइल वाहनों के माध्यम से लोगों के दरवाज़े तक जा कर सार्वजनिक वितरण प्रणाली (PDA) अनाज वितरित करते थे.

इससे हज़ारों आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों, विशेष रूप से पूर्वी घाट के दूरदराज के कोनों में रहने वाले आदिवासी परिवारों को अनाज मिलने में सुविधा होती थी.

वैसे इन लोगों को भोजन इकट्ठा करने के लिए एक कठिन और अक्सर दुर्गम चढ़ाई का सामना करना पड़ता है.

अल्लूरी सीताराम राजू (ASR) जिले के एक सुनसान गांव में रहने वाली बुजुर्ग और विधवा महिलाओं के लिए यह सिर्फ़ नीतिगत बदलाव नहीं है बल्कि यह उनकी खाद्य सुरक्षा पर सीधा प्रहार है.

एक 62 वर्षीय महिला, जो कभी हर महीने घर-घर जाकर राशन मंगवाती थी, उसको अब सबसे पास के राशन डिपो तक पहुंचने के लिए भी करीब 10 किलोमीटर की यात्रा करनी पड़ती है. एक अकेली बुजुर्ग महिला के लिए यह यात्रा बहुत मुश्किल है. खराब सड़कें और परिवहन सुविधाओं की कमी के कारण यह और भी मुश्किल हो जाती है.

इसी तरह की चुनौतियों का समाधान करने के लिए राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम (NFSA), 2013 की धारा 30 में यह अनिवार्य किया गया है कि केंद्र और राज्य सरकारें दूरदराज, पहाड़ी और आदिवासी क्षेत्रों में रहने वाले कमज़ोर समुदायों पर विशेष ध्यान दें ताकि उनकी खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके.

जनवरी 2021 में तत्कालीन मुख्यमंत्री वाईएस जगन मोहन रेड्डी द्वारा डोरस्टेप राशन डिलीवरी शुरू की गई थी. ये प्रणाली बुजुर्गों, विकलांग लोगों और भौगोलिक रूप से अलग-थलग क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए राशन की दुकानों तक पहुंच में मुश्किलों को दूर करने के लिए शुरू की गई थी.

प्रत्येक मोबाइल डिस्पेंसिंग यूनिट (MDU), जो कि एक मिनी ट्रक है, स्थानीय ग्राम स्वयंसेवकों द्वारा राशन कार्डधारकों के गांवों में सीधे राशन पहुंचाती है. इस प्रणाली को भ्रष्टाचार को कम करने, गुणवत्ता में सुधार करने, समय बचाने और यह सुनिश्चित करने के लिए डिज़ाइन किया गया था कि कोई भी पीछे न छूटे.

हर महीने, राशन डिपो से राशन का स्टॉक मिनी ट्रकों में लोड किया जाता था जो गांवों और बस्तियों में तय मार्गों पर चलते थे.गांव या वार्ड के स्वयंसेवक निवासियों को डिलीवरी शेड्यूल के बारे में पहले से सूचित करते थे.

डोरस्टेप डिलीवरी के लाभ

हर महीने राशन डिपो से राशन का स्टॉक मिनी ट्रकों में लोड किया जाता था जो गांवों और बस्तियों में तय मार्गों पर चलते थे. गांव या वार्ड के स्वयंसेवक निवासियों को डिलीवरी शेड्यूल के बारे में पहले से सूचित करते थे.

आदिवासी क्षेत्रों में यह प्रणाली काफी हद तक ऑफ़लाइन संचालित होती थी, बायोमेट्रिक प्रमाणीकरण की कोई आवश्यकता नहीं थी. इसके बजाय स्वयंसेवक राशन कार्ड के आधार पर वैरिफिकेशन करते थे.

इस आसान प्रक्रिया ने यह सुनिश्चित किया कि भले ही घर का मुखिया अनुपस्थित हो लेकिन परिवार का कोई सदस्य या पड़ोसी भी कार्ड दिखा करके उनकी ओर से राशन ले सकता है. अगर कोई परिवार अपना राशन लेने से चूक जाता है, तो वे उस शाम बाद में गांव या वार्ड सचिवालय में मिनी ट्रक से ले सकते हैं.

ग्रामीण डोरस्टेप डिलीवरी सिस्टम तक दो तरीके से पहुंच सकते थे… पहला तो स्थानीय बस्तियों में एमडीयू डिलीवरी के माध्यम से. वहीं दूसरा उस शाम बाद में स्थानीय सचिवालय में खड़े मिनी ट्रक से.

इस फ्लेक्सिबिलिटी ने यह सुनिश्चित किया था कि कोई भी व्यक्ति अपना राशन लेने से न चूके. कई मौकों पर तो मिनी ट्रक उसी महीने में दूसरी बार आती थी जब पहली बार में बड़ी संख्या में राशन कार्डधारक छूट जाते थे.

सरकार का यह दावा कि लोगों की डोरस्टेप डिलीवरी प्रणाली के तहत पहुंच कम हो रही है, सरासर झूठ है. जबकि इस प्रणाली ने पहुंच का विस्तार किया है और इसे सरल बनाया है.

हालांकि इसे “डोरस्टेप डिलीवरी” के नाम से जाना जाता है लेकिन मिनी ट्रक हमेशा अलग-अलग घरों के सामने नहीं रुकते थे. इसके बजाय वे हर गली या घरों के समूह में पार्क होते थे.

लेकिन फिर भी इसने लोगों को कई किलोमीटर की दूरी तय कर राशन लेने जाने की समस्या को कम कर दिया था.

आदिवासी क्षेत्रों में जहां परिवार अक्सर दूर-दराज के राशन डिपो तक पहुंचने के लिए दोपहिया वाहनों, शेयरिंग ऑटो या यहां तक कि घोड़ों पर निर्भर रहते थे, इस बदलाव ने एक महत्वपूर्ण अंतर पैदा किया था. साथ ही आने-जाने की लागत, मजदूरी के काम से दूर रहने का समय और शारीरिक तनाव सभी काफी कम हो गए थे.

NFSA के तहत राशन डिपो को पूरे महीने सभी वर्किंग-डे पर खुला रहना चाहिए. लेकिन डोरस्टेप डिलीवरी प्रणाली ने वितरण को महीने के पहले 15 दिनों तक सीमित कर दिया है.

वैसे एक प्रणाली को खत्म करने के बजाय इसे बेहतर बनाया जा सकता था. सरकार दोनों प्रणालियों की अनुमति दे सकती थी. महीने के पहले आधे हिस्से में मिनी ट्रकों के माध्यम से राशन की डिलीवरी और छूटे हुए लोगों के लिए राशन डिपो तक पहुंच.

यह दोहरी प्रणाली विशेष रूप से आदिवासी क्षेत्रों में संभव थी क्योंकि राशन डिपो राज्य के स्वामित्व वाली गिरिजन सहकारी निगम द्वारा चलाए जाते हैं.

इस डोरस्टेप डिलीवरी सिस्टम को वापस लेने का गहरा प्रभाव पड़ेगा. खासकर आदिवासी समुदायों के लिए क्योंकि आदिवासी क्षेत्रों में डोरस्टेप राशन डिलीवरी सीधे तौर पर अंतिम मील सेवा वितरण में सुधार और ऐतिहासिक रूप से मुख्यधारा के विकास से बाहर रहने वाले समुदायों के बीच भोजन के अधिकार की रक्षा करता है.

सरकार ने राशन वापस लेने के पीछे जो तर्क दिया है, वह यह है कि डोरस्टेप डिलीवरी सिस्टम की वजह से लोगों को राशन नहीं मिल पा रहा था.

हालांकि, यह अभी अटकलें है. लेकिन ऐसा लगता है कि यह फैसला राशन डिपो मालिकों की एक पावरफुल लॉबी के प्रभाव में लिया गया है. खासकर गैर-आदिवासी इलाकों से जिन्हें डोरस्टेप डिलीवरी सिस्टम द्वारा शुरू की गई बढ़ी हुई पारदर्शिता से ख़तरा महसूस हो रहा.

परंपरागत रूप से इन डिपो संचालकों ने स्थानीय स्तर पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाला है और अक्सर ब्यूरोक्रेट्स के साथ अच्छे संबंध बनाए रखते हैं, जिससे उन्हें प्रभाव और प्रतिरक्षा दोनों मिलती है.

जबकि इसके उलट अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, पिछड़ा वर्ग और अल्पसंख्यक समुदायों से आने वाले एमडीयू संचालक सीमित संस्थागत समर्थन लेकिन अधिक सार्वजनिक जवाबदेही के साथ काम करते हैं.

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि अनुसूचित क्षेत्रों में जनजातीय कल्याण विभाग ही पीडीएस राशन डिपो चलाता है.

फिर भी इन क्षेत्रों से बाहर के प्रभावशाली डिपो मालिकों के हित प्रबल होते दिखाई देते हैं, जिससे दूरदराज के आदिवासी इलाकों को लाभ पहुंचाने वाली अधिक समावेशी और प्रभावी प्रणाली को दरकिनार कर दिया जाता है.

आदिवासी लोग क्या महसूस करते हैं

अधिक परेशान करने वाली बात यह है कि राशन डिपो मॉडल की वापसी शोषण के उस पैटर्न को पुनर्जीवित करती है जिसे डोरस्टेप डिलीवरी सिस्टम ने काफी हद तक कम कर दिया था. कई क्षेत्रों में डिपो मालिक नियमित रूप से राशन कार्डधारकों पर चावल के साथ साबुन, तेल या अन्य किराने का सामान खरीदने के लिए दबाव डालते हैं.

ये खरीददारी इस डर से मजबूरी में की जाती है कि इनकार करने पर राशन देने से इनकार किया जा सकता है.

डोरस्टेप डिलीवरी सिस्टम ने इस जबरदस्ती के चक्र को तोड़ने में मदद की. लोगों के घरों के पास राशन मिलने से लोगों को बिना किसी उत्पीड़न या हेरफेर के उनके उचित अधिकार प्राप्त हुए.

पाडेरू आईटीडीए क्षेत्र में 790 आदिवासियों के इंटरव्यू पर आधारित लिबटेक इंडिया द्वारा हाल ही में किए गए स्टडी के आंकड़े इस बात साबित करते हैं:

. 75 प्रतिशत ने कहा कि राशन डिपो सिस्टम में चावल गायब होने की घटनाएं अधिक हैं.

. 65 प्रतिशत ने कहा कि राशन डिपो सिस्टम में उन्हें चावल के साथ-साथ अतिरिक्त सामान खरीदने के लिए मजबूर होना पड़ता है.

. 83 फीसदी ने राशन डिपो मॉडल की तुलना में डोरस्टेप डिलीवरी सिस्टम को प्राथमिकता दी.

. 90 प्रतिशत ने कहा कि उन्हें डोरस्टेप डिलीवरी सिस्टम में अपना राशन लेने के लिए कम यात्राएं करनी पड़ती हैं.

. 75 फीसदी ने कहा कि उन्हें राशन डिपो सिस्टम के तहत अक्सर उनके हक से कम मिलता है.

राशन डिपो सिस्टम के तहत कई लाभार्थियों को घंटों लाइन में लगना पड़ता था, लेकिन भीड़भाड़ या मनमाने बहाने के कारण उन्हें वापस कर दिया जाता था. कई बार कुछ किलो अनाज लेने के लिए एक दिन की मजदूरी गंवानी पड़ती थी. शिकायत निवारण तंत्र लगभग न के बराबर था.

इसके विपरीत डोरस्टेप डिलीवरी मॉडल ने अधिक मानवीय इंटरफ़ेस बनाया और आवश्यक सेवाओं को लोगों के घरों के करीब लाया. दिहाड़ी मजदूरों, बुजुर्गों और विकलांग व्यक्तियों के लिए यह केवल कल्याणकारी योजना नहीं थी, यह एक जीवन रेखा थी.

परामर्श, क्षेत्र मूल्यांकन या साक्ष्य के बिना इस प्रणाली को बंद करने का निर्णय न सिर्फ प्रतिगामी है बल्कि कानूनी और नैतिक रूप से भी संदिग्ध है.

खाद्य सुरक्षा केवल स्टॉक की उपलब्धता या रसद के बारे में नहीं है. यह सुनिश्चित करने के बारे में है कि अधिकार वास्तव में उन लोगों तक पहुंचें जिन्हें इसकी सबसे अधिक जरूरत है.

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