वन अधिकार अधिनियम, 2006 पर सुप्रीम कोर्ट की महत्वपूर्ण सुनवाई से पहले शोधकर्ताओं और अभियानकर्ताओं को डर है कि सरकार ने दावों को खारिज करने की समीक्षा प्रक्रिया नहीं की होगी.
वहीं देश के 100 से अधिक आदिवासी और वनवासी अधिकार संगठनों ने 27 मार्च, 2025 को केंद्र और राज्य सरकारों से अपने संवैधानिक कर्तव्य को पूरा करने और अदालत में वन अधिकार अधिनियम (FRA) का बचाव करने का आग्रह किया.
सुप्रीम कोर्ट 2 अप्रैल को ‘वाइल्डलाइफ फर्स्ट एवं अन्य बनाम भारत संघ एवं अन्य’ मामले की सुनवाई करने वाला है. आदिवासी अधिकार संगठनों ने कहा कि यह मामला एफआरए, 2006 की संवैधानिकता को चुनौती देता है.
वन अधिकार अधिनियम पारंपरिक वनवासी समुदायों, जिनमें ज्यादातर आदिवासी लोग हैं, उनके अधिकारों को मान्यता देने की मांग को लेकर एक राष्ट्रव्यापी आंदोलन के बाद पारित किया गया था.
इस समूह ने एक पत्र में कहा, “सुप्रीम कोर्ट की आगामी सुनवाई में लाखों लोगों के खिलाफ बेदखली के आदेश जारी हो सकते हैं, जिनके अधिकारों को अवैध रूप से नकार दिया गया है. हम केंद्र और राज्य सरकारों से भारत के आदिवासियों और वनवासियों के अधिकारों की रक्षा करने और हमारे देश के सबसे अधिक उत्पीड़ित लोगों के खिलाफ अदालती आदेशों, आंतरिक तोड़फोड़ और घोर अवैधता का उपयोग करने की कोशिश बंद करने का आह्वान करते हैं.”
उन्होंने कहा कि एफआरए का उद्देश्य भारत के वन कानूनों के कारण हुए “ऐतिहासिक अन्याय” को ठीक करना था. लेकिन केंद्र और राज्य सरकारों दोनों द्वारा कानून का घोर उल्लंघन किया गया है और अधिकारों के लिए बड़ी संख्या में दावों को अवैध रूप से खारिज कर दिया गया है.
साल 2019 में न्यायालय द्वारा आदेश पर रोक लगाने से पहले 17 लाख से अधिक परिवारों को बेदखली का सामना करना पड़ा था. एक वन्यजीव एनजीओ ने उन लोगों को बेदखल करने की मांग की थी जिनके एफआरए दावे खारिज कर दिए गए थे, भले ही कई लोगों को अवैध रूप से अस्वीकार कर दिया गया था.
देशव्यापी विरोध के बाद अदालत ने फरवरी 2019 में खारिज किए गए दावों की समीक्षा का आदेश दिया. हालांकि, समूहों ने आरोप लगाया कि समीक्षा प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण रही, केंद्र और राज्य दोनों सरकारें कानून को ईमानदारी से लागू करने में विफल रहीं.
आदिवासी संगठनों ने मांग की कि 2 अप्रैल को केंद्र और राज्य सरकारें सुप्रीम कोर्ट को स्पष्ट रूप से बताएं कि एफआरए पूरी तरह से संवैधानिक है और दावों की समीक्षा और मान्यता जारी रहनी चाहिए.
उन्होंने कहा कि मामले को खारिज कर दिया जाना चाहिए. उन्होंने जनजातीय मामलों के मंत्रालय (MoTA) से यह सुनिश्चित करने का आग्रह किया कि खारिज किए गए दावों की समीक्षा स्पष्ट दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए की जाए, जिसमें ग्राम सभा को प्राथमिक निर्णय लेने वाली संस्था के रूप में बनाए रखा जाए.
उन्होंने कहा कि मंत्रालय को मनमाने ढंग से खारिज किए जाने को रोकने के लिए बाध्यकारी निर्देश जारी करने चाहिए, मौखिक गवाही और स्थानीय सत्यापन सहित कई तरह के साक्ष्यों के उपयोग को अनिवार्य बनाना चाहिए.
उन्होंने कहा, “बाघ अभयारण्यों और अन्य संरक्षित क्षेत्रों से तब तक कोई बेदखली और पुनर्वास नहीं किया जाना चाहिए. जब तक कि सभी दावों, जिनमें समीक्षाधीन दावे भी शामिल हैं, उनका निपटारा एफआरए के अनुपालन में नहीं हो जाता.”
समूहों ने इस बात पर भी जोर दिया कि खनन, इंफ्रास्ट्रक्चर और संरक्षण के लिए वन भूमि के हस्तांतरण में एफआरए प्रावधानों का सख्ती से पालन किया जाना चाहिए. विशेष रूप से ग्राम सभा की सहमति आवश्यक हो.
काफी लंबे वक्त से आदिवासी समुदाय बाघ संरक्षण के प्रयासों की आड़ में अपनी ज़मीनों से बेदखली का सामना कर रहे हैं.
वन अधिकार अधिनियम का हो रहा उल्लंघन
हाल ही में मध्य प्रदेश में रानी दुर्गावती टाइगर रिजर्व और उसके आसपास के क्षेत्रों में वन अधिकारों को मान्यता न दिए जाने और जबरन बेदखली के प्रयासों से संबंधित 52 गांवों की याचिकाओं और शिकायतों का संज्ञान लेते हुए जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने मध्य प्रदेश सरकार को मामले की जांच करने और राज्य के वन विभागों और संबंधित जिला कलेक्टरों के परामर्श से इसका समाधान करने का निर्देश दिया है.
केंद्र ने दमोह, नरसिंहपुर और सागर जिलों की 52 ग्राम सभाओं से ज्ञापन मिलने के बाद 23 दिसंबर को मध्य प्रदेश आदिवासी कल्याण विभाग को पत्र लिखा.
ज्ञापन में आरोप लगाया गया है कि सितंबर 2023 में वीरांगना दुर्गावती टाइगर रिजर्व को अधिसूचित किए जाने के बाद वन अधिकार दावों को अस्वीकार कर दिया गया और ग्रामीणों को जबरन रिजर्व से बाहर जाने के लिए मजबूर किया गया. जो वन अधिकार अधिनियम, 2006 और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 2006 का उल्लंघन है.
इसमें आरोप लगाया गया था कि ग्रामीणों को वन संसाधनों, वन उपज और खेतों तक पहुंचने से प्रतिबंधित किया गया.
इसके बाद जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने मध्य प्रदेश सरकार को लिखे अपने पत्र में कहा, ‘यह ध्यान दिया जा सकता है कि समुदायों को एफआरए, 2006 के तहत निर्धारित उनके अधिकारों का प्रयोग करने से अलग करना, अधिनियम का उल्लंघन है. इसलिए, चूंकि राज्य सरकारें एफआरए कार्यान्वयन प्राधिकरण हैं, इसलिए यह सलाह दी जाती है कि राज्य वन विभागों, संबंधित जिला कलेक्टरों और डीएफओ के परामर्श से मामलों की जांच और समाधान किया जा सकता है.’
इसी साल जनवरी में जनजातीय मंत्रालय ने राज्यों से बाघ अभयारण्यों से वनवासियों को बेदखल करने के बारे में स्पष्टीकरण मांगा है. वन संरक्षण अधिनियम के तहत वनवासियों को अवैध बेदखली से बचाने के लिए जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने राज्यों को निर्देश दिया है कि वे कानून का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए एक इंस्टीट्यूशनल मैकेनिज्म बनाएं.
साथ ही मंत्रालय ने राज्यों से कहा है कि वो वनवासियों की शिकायतों को दूर करने के लिए भी एक मैकेनिज्म स्थापित करें.
मंत्रालय ने इसके लिए राज्यों को पत्र भी लिखा है.
जबरन बेदखली से आदिवासी परेशान
दरअसल, भारत में वन्यजीव संरक्षण और आदिवासी अधिकारों के बीच संतुलन एक जटिल और बहुपरतीय विषय है. देश में बाघों की आबादी को संरक्षित करने के लिए कई बाघ अभयारण्य बनाए गए हैं. लेकिन इन प्रयासों के कारण आदिवासी समुदायों के विस्थापन का मुद्दा गहराता जा रहा है.
हजारों आदिवासी लोग अपने पूर्वजों की भूमि से जबरन बेदखल किए जाने के खिलाफ पूरे भारत में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं, जिसे अब बाघ अभयारण्य के रूप में नामित किया गया है.
मूल निवासी समुदायों को उन जंगलों से जबरन हटाया जा रहा है, जहां वे पीढ़ियों से रहते आए हैं और जिन्हें उन्होंने संरक्षित किया है, यह सब वन्यजीव संरक्षण के नाम पर किया जा रहा है.
ये चिंताएं पिछले साल जून में राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) ने राज्य के वन्यजीव अधिकारियों पर इन बेदखलियों में तेज़ी लाने के लिए दबाव डाला. NTCA की योजनाएं एक RTI अनुरोध के ज़रिए सामने आईं, जिसने जुलाई 2024 में अपने डायरेक्टर के पत्रों को सार्वजनिक किया.
इस खुलासे ने मूल निवासी समूहों में रोष पैदा कर दिया है, जिनका कहना है कि उनकी ज़मीनों को संरक्षित क्षेत्रों में बदलने से पहले उनसे कभी सलाह नहीं ली गई और अब उन्हें अपने घरों से जबरन निकाला जा रहा है.
आलोचकों का तर्क है कि ये बेदखली राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय दोनों कानूनों का उल्लंघन करती है. 2006 का वन अधिकार अधिनियम मूल निवासी समुदायों को अपनी पैतृक भूमि पर बने रहने का अधिकार देता है, जब तक कि वे स्थानांतरित होने के लिए सूचित सहमति न दें.
लेकिन कानूनी सुरक्षा के बावजूद आदिवासी समुदाय को जबरन बेदखली का सामना करना पड़ रहा है.
पिछले साल नागरहोल, काजीरंगा, उदंती-सीतानदी, राजाजी और इंद्रावती जैसे प्रमुख बाघ अभयारण्यों में विरोध प्रदर्शन हुए. प्रदर्शनकारी सरकार द्वारा की जा रही गैरकानूनी कार्रवाइयों को तत्काल रोकने की मांग कर रहे थे.
भारत में लगभग 3,000 बाघ हैं. जो 75,000 वर्ग किलोमीटर के जंगल में फैले 53 बाघ अभयारण्यों में फैले हैं. हालांकि ये अभयारण्य बाघ संरक्षण के लिए महत्वपूर्ण हैं लेकिन इनकी वजह से लोगों को काफी नुकसान उठाना पड़ा है.
जबकि टाइगर रिज़र्व से जुड़ी स्टडी यह बताती हैं कि यह धारणा सिरे से गलत है कि जनजातीय समूह बाघों के आवासों को नुकसान पहुंचाते हैं. इसके बजाय रिसर्च से पता चलता है कि ये समुदाय वास्तव में बाघों की आबादी बढ़ाने और वन्यजीवों की भलाई को प्राथमिकता देने में मदद कर सकते हैं.
वन क्षेत्रों में उनकी उपस्थिति अक्सर ख़तरा पैदा करने के बजाय संरक्षण प्रयासों का समर्थन करती है.
FRA और आदिवासी
अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 को आमतौर पर वन अधिकार अधिनियम (FRA) के रूप में जाना जाता है. जो वनों में रहने वाले समुदायों और व्यक्तिगत निवासियों के वन अधिकारों और वन भूमि पर कब्जे को पहचानने और मान्यता प्रदान करने के लिए लाया गया.
अनुसूचित जनजाति और अन्य पारंपरिक वनवासी (वन अधिकारों की मान्यता) अधिनियम, 2006 के प्रावधानों के तहत, वन भूमि और वन संसाधनों का उपयोग करने के लिए अनुसूचित जनजातियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों के बीच पात्र व्यक्तियों और समुदाय के अधिकारों को मान्यता दी जाती है.
2006 के वन अधिकार अधिनियम में स्व-खेती और निवास के अधिकार शामिल हैं, जिन्हें व्यक्तिगत अधिकार माना जाता है, जबकि चराई, मछली पकड़ना, जंगल में जल निकायों तक पहुंच, पारंपरिक मौसमी संसाधनों तक पहुंच व वन संसाधनों के प्रबंधन आदि को सामुदायिक अधिकार माना जाता है.
पीढि़यों से ये लोग ऐसे जंगलों में निवास कर रहे हैं लेकिन उनके अधिकार दर्ज नहीं हो सके हैं. यह अधिनियम वन क्षेत्रों में उनकी पैतृक भूमि और आवास आदि को मान्यता प्रदान करता है. लेकिन वन अधिकारों को मान्यता देने के काम को आज भी पर्याप्त रूप से लागू नहीं किया जा रहा है.
जिसके चलते वनवासियों के साथ ऐतिहासिक अन्याय हुआ, जो वन पारिस्थितिकी तंत्र के अस्तित्व और स्थिरता के अभिन्न अंग हैं.
जनजातीय कार्य मंत्रालय की अधिकारिक वेबसाइट के मुताबिक, 1 फरवरी 2025 तक देशभर में वन भूमि पर मालिकाना हक के लिए 2 लाख 1 हज़ार 337 सामुदायिक दावे दायर किए गए और 1 लाख 17 हज़ार 683 पट्टे वितरित किए गए हैं.
वहीं अगर व्यक्तिगत दावों की बात की जाए तो देशभर में 49 लाख 2 हज़ार 427 दावे दायर किए गए लेकिन 23 लाख 80 हज़ार 502 पट्टे ही वितरित किए गए.
अगर राज्य स्तर पर आंकड़ों को देखे तो, छत्तीसगढ़ में 8 लाख 88 हज़ार 28 व्यक्तिगत दावे दायर किए गए थे इसमें से 4 लाख 78 हज़ार 563 पट्टे वितरित किए गए. वहीं 53 हज़ार 949 सामुदायिक दावे दायर किए गए और जिसमें से 49 हज़ार 270 पट्टे वितरित किए गए.
ओडिशा में 6 लाख 91 हज़ार 757 व्यक्तिगत दावे दायर किए गए और 4 लाख 61 हज़ार 418 पट्टे वितरित किए गए.
वहीं तेलंगाना में 6 लाख 51 हज़ार 822 व्यक्तिगत दावे दायर किए गए लेकिन सिर्फ 2 लाख 30 735 पट्टे वितरित किए गए.
मध्य प्रदेश में 5 लाख 85 हज़ार 326 व्यक्तिगत दावे दायर किए गए जिसमें से 2 लाख 66 हज़ार 901 पट्टे वितरित किए गए.
महाराष्ट्र में 3 लाख 97 हज़ार 897 व्यक्तिगत दावे दायर किए गए और 1 लाख 99 हज़ार 667 पट्टे वितरित किए गए.
गुजरात में 1 लाख 82 हज़ार 869 व्यक्तिगत दावे दायर किए गए 98 हज़ार 289 पट्टे वितरित किए गए.
भूमि अधिकारों की कानूनी मान्यता चाहते हैं आदिवासी
रिसर्च कंसल्टेंसी, लैंड कॉन्फ्लिक्ट वॉच (LCW) के विश्लेषण के मुताबिक, 2016 से एफआरए से जुड़े भूमि विवाद 117 हैं, जिनका असर भारत में 611,557 नागरिकों पर पड़ा है.
इन कुल मामलों में से इन विवादों में प्राथमिक कानूनी और प्रक्रियात्मक मुद्दे एफआरए के प्रमुख प्रावधानों के गैर-कार्यान्वयन या उल्लंघन से संबंधित हैं, जो 88.1 प्रतिशत मामलों को प्रभावित करते हैं.
एलसीडब्ल्यू द्वारा साझा की गई डेटाशीट में उल्लेख किया गया है, “इसके अतिरिक्त, 49.15 प्रतिशत मामलों में भूमि अधिकारों पर कानूनी सुरक्षा की कमी शामिल है. जबकि 40.68 प्रतिशत मामलों में जबरन बेदखली और भूमि से बेदखल करना शामिल है.”
इन प्रभावित समुदायों की मांग भूमि अधिकारों की कानूनी मान्यता है, जो 60.2 प्रतिशत मामलों में है. भूमि लेनदेन में प्रक्रियात्मक उल्लंघनों के बारे में शिकायतें 52.5 प्रतिशत मामलों में हैं.