HomeAdivasi Dailyप्रकृति का उत्सव सरहुल कल से शुरू

प्रकृति का उत्सव सरहुल कल से शुरू

उत्सव के आखिरी दिन एक भव्य सामुदायिक भोज होता है, जिसमें लोग हंडिया (चावल की बीयर) एक-दूसरे के साथ साझा करते हैं और कई प्रकार के व्यंजनों का आनंद लेते हैं. त्योहार का समापन पाहन के आशीर्वाद और ग्रामीणों की प्रार्थना के साथ होता है.

झारखंड और छोटानागपुर क्षेत्र के आदिवासी मंगलवार को सरहुल त्योहार के साथ नए साल और वसंत ऋतु का स्वागत करेंगे.

आदिवासी परंपरा में साल के पेड़ों (शोरिया रोबस्टा) की पूजा की जाती है. उन्हें सरना मां के निवास के रूप में देखा जाता है, जो गांव को प्रतिकूल प्राकृतिक शक्तियों से बचाती हैं.

सरहुल, जिसका शाब्दिक अर्थ है “साल के पेड़ की पूजा”, सबसे अधिक पूजनीय आदिवासी त्योहारों में से एक है. यह प्रकृति की पूजा पर आधारित है और सूर्य और पृथ्वी के प्रतीकात्मक मिलन का जश्न मनाता है.

गांव का एक पुरुष पुजारी (पाहन) सूर्य की भूमिका निभाता है, जबकि उसकी पत्नी (पाहेन) पृथ्वी बन जाती है.

यह मिलन पृथ्वी पर सभी जीवन के लिए महत्वपूर्ण है, जो सूर्य की किरणों और मिट्टी (पृथ्वी) के एक साथ आने पर निर्भर करता है. इस तरह सरहुल को जीवन चक्र के उत्सव के रूप में देखा जा सकता है.

अनुष्ठान पूरा होने के बाद ही आदिवासी लोग अपने खेतों की जुताई, फसल बोना या फसल इकट्ठा करने के लिए जंगल में प्रवेश करना शुरू करते हैं.

तीन दिवसीय उत्सव

तीन दिवसीय इस उत्सव के पहले दिन, घरों और सरना स्थलों पर त्रिकोणीय, लाल और सफेद सरना झंडे लगाए जाते हैं.

पहले दिन गांव का पाहन, जो कठोर उपवास रखता है, समारोहों के लिए पानी लाता है, घरों और सरना स्थलों की सफाई की जाती है और अनुष्ठानों के लिए साल के फूल इकट्ठे किए जाते हैं.

सरहुल के दूसरे दिन मुख्य अनुष्ठान सरना स्थलों पर होते हैं. देवता को साल के फूल चढ़ाए जाते हैं और मुर्गे की बलि दी जाती है. ग्रामीण समृद्धि, सुरक्षा और अच्छी फसल की कामना करते हैं.

इसके बाद पवित्र जल को पूरे गांव में छिड़का जाता है. फिर जादुर, गेना और पोर जादुर जैसे पारंपरिक गीत और नृत्य प्रस्तुत किए जाते हैं.

बाद में युवक पास के तालाबों और नदियों की ओर जाते हैं और औपचारिक भोज के लिए भोजन इकट्ठा करने के लिए मछली पकड़ने और केंकड़े पकड़ने में हिस्सा लेते हैं.

उत्सव के आखिरी दिन एक भव्य सामुदायिक भोज होता है, जिसमें लोग हंडिया (चावल की बीयर) एक-दूसरे के साथ साझा करते हैं और कई प्रकार के व्यंजनों का आनंद लेते हैं. त्योहार का समापन पाहन के आशीर्वाद और ग्रामीणों की प्रार्थना के साथ होता है.

पारंपरिक आदिवासी व्यंजन मुख्य आकर्षण

सरहुल के त्यौहार के दौरान पारंपरिक आदिवासी व्यंजन मुख्य आकर्षण होते हैं.आदिवासी संस्कृति में गहराई से निहित त्योहार अपनी समृद्ध और विविध खाद्य परंपराओं के बिना अधूरा है. सरहुल उत्सव परिवारों और समुदायों को एक साथ लाता है, जिसमें एक दावत होती है जिसमें पारंपरिक सामग्री और सदियों पुरानी खाना पकाने की तकनीकें शामिल होती है.

हंडिया (किण्वित चावल की बीयर), धुस्का (तला हुआ चावल और दाल के पैनकेक), अरसा रोटी (गुड़ से बनी चावल की रोटी), छिल्का रोटी (चावल के आटे की रोटी), पिठा और सूरी भात जैसे व्यंजन पूरे राज्य में घरों में बनाए जाते हैं.

महुआ के फूल, साल के बीज और जंगली पत्तेदार साग सहित मौसमी वन उपज इन व्यंजनों में एक अलग स्वाद जोड़ते हैं.

वहीं मांस के शौकीन लोग अपने तरीके से पकाई गई मछली, लाल चिकन और केकड़ा और साल के पत्तों में लिपटी मछली का लुत्फ़ उठाते हैं, जो देहाती स्वाद को और बढ़ा देता है.

खाना सिर्फ़ सरहुल उत्सव का हिस्सा नहीं है बल्कि आदिवासी पहचान, स्थिरता और प्रकृति के साथ सामंजस्य का प्रतीक है.

छोटानागपुर और उससे आगे

सरहुल को ओरांव, मुंडा, संताल, खड़िया और हो जैसी जनजातियों द्वारा मनाया जाता रहा है. जिनके त्यौहार के लिए अनोखे नाम और जश्न मनाने के खास तरीके हैं.

मानवविज्ञानी शरत चंद्र रॉय ने अपनी रचना ओरांव धर्म और रीति-रिवाज (1928) में लिखा है कि समय के साथ सरहुल शिकार-केंद्रित परंपरा से विकसित होकर कृषि प्रक्रियाओं के इर्द-गिर्द घूमने वाली परंपरा बन गई.

उन्होंने कहा कि यह छोटानागपुर में आदिवासियों की विकसित होती जीवनशैली को दर्शाता है.

19वीं और 20वीं सदी की शुरुआत में जब मुंडा, ओरांव और संथाल जैसी जनजातियों को गिरमिटिया मजदूर के तौर पर दूर-दूर तक भेजा गया, तो सरहुल उनके साथ ही गया.

आज यह त्यौहार असम के चाय बागानों से लेकर अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, नेपाल, बांग्लादेश और भूटान तक कई जगहों पर मनाया जाता है.

1960 के दशक में आदिवासी नेता बाबा कार्तिक उरांव, जिन्होंने सामाजिक न्याय और आदिवासी संस्कृति के संरक्षण की वकालत की. उन्होंने रांची के हातमा से सिरमटोली सरना स्थल तक सरहुल जुलूस शुरू किया.

पिछले 60 वर्षों में जुलूस सरहुल का एक महत्वपूर्ण हिस्सा बन गया है. जिसमें सिरमटोली स्थल जुलूसों के लिए एक प्रमुख स्थल बन गया है. इसने सरहुल को और अधिक राजनीतिक बना दिया है और आदिवासी पहचान को मुखर करने का एक अवसर भी बना दिया है.

यह ऐसे समय में और अहम हो जाती है जब कुछ जनजातियों ने हिंदू धर्म से अपनी विशिष्टता का दावा कर रही है.

सरना धर्म का पालन करने वाले आदिवासियों ने पिछले 20 वर्षों में भारत की जाति जनगणना में सरना धर्म का कॉलम शामिल करने की मांग की है. हालांकि, आरएसएस से जुड़े कई आदिवासी समूहों ने तर्क दिया है कि आदिवासी हिंदू धर्म का हिस्सा हैं.

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