HomePVTGये 8 जनजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर

ये 8 जनजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर

ग्रेट अंडमानी, जारवा, ओंग, सेंटिनेलिस, कोरवा, कार्बोंग, टोटो और लेप्चा जैसी जनजातियों को अनिश्चित भविष्य का सामना करना पड़ रहा है.

भारत में 700 से ज़्यादा आदिवासी समुदाय हैं और यह दुनिया के सबसे प्राचीन और विविधतापूर्ण मूल निवासी समुदायों का घर है. देश की आबादी का 8.6 फीसदी हिस्सा बनाने वाले आदिवासी समुदाय हज़ारों सालों से फल-फूल रहे हैं. उनकी भाषाएं, परंपराएं और जीवन जीने के तरीके ज़मीन के ताने-बाने में समाए हुए हैं.

लेकिन इस जीवंत विरासत के नीचे एक खामोश संकट छिपा है…कई जनजातियां विलुप्त होने की कगार पर हैं, उनकी संख्या घट रही है. आधुनिकीकरण, विस्थापन और पर्यावरणीय उथल-पुथल के बोझ तले उनकी संस्कृतियां लुप्त हो रही हैं.

अंडमान द्वीप समूह के एकाकी तटों से लेकर मेनलैंड की वन-पहाड़ियों तक ग्रेट अंडमानी, जारवा, ओंग, सेंटिनेलिस, कोरवा, कार्बोंग, टोटो और लेप्चा जैसी जनजातियों को अनिश्चित भविष्य का सामना करना पड़ रहा है.

ग्रेट अंडमानी (Great Andamanese)

ग्रेट अंडमानी, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह का एक मूल निवासी समुदाय है, जिसकी संख्या घटकर 50 से भी कम रह गई है. कभी हज़ारों की संख्या में रहने वाले, औपनिवेशिक युग की बीमारियों और आवास के नुकसान के कारण उनकी आबादी में तेज़ी से गिरावट आई.

आज उन्हें सांस्कृतिक आत्मसात और सीमित जीन पूल से गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. बो जैसी भाषाओं का लुप्त होना उनकी गिरावट को और भी रेखांकित करता है, जिससे वे गंभीर रूप से संकटग्रस्त स्थिति में आ गए हैं.

ग्रेट अंडमानी मूल रूप से दस अलग-अलग जनजातियां थीं. जिनमें जेरू, बी, बो, खोरा और पुसीकवार शामिल थे. प्रत्येक की अपनी भाषा थी और उनकी संख्या 200 से 700 के बीच थी.

जब 1858 में ब्रिटिश बसने वाले यहां आए तो द्वीपों में 5,000 से ज़्यादा ग्रेट अंडमानी रहते थे. हालांकि, ब्रिटिश आक्रमण से अपने क्षेत्रों की रक्षा करते समय संघर्षों में सैकड़ों लोग मारे गए, और हज़ारों लोग खसरा, इन्फ्लूएंजा और सिफलिस की विनाशकारी महामारी में मारे गए. ये सभी अंग्रेज़ों द्वारा लाए गए थे.

1860 के दशक में अंग्रेजों ने एक ‘अंडमान होम’ की स्थापना की, जहां उन्होंने पकड़े गए ग्रेट अंडमानी लोगों को रखा. इस होम में सैकड़ों लोग बीमारी और दुर्व्यवहार से मर गए और वहां पैदा हुए 150 बच्चों में से कोई भी दो साल से ज़्यादा जीवित नहीं रहा.

1970 में भारतीय अधिकारियों ने बचे हुए ग्रेट अंडमानी लोगों को छोटे से स्ट्रेट द्वीप पर भेज दिया, जहां वे अब भोजन, आश्रय और कपड़ों के लिए सरकार पर निर्भर हैं.

आज 50 से भी कम ग्रेट अंडमानी लोग बचे हैं.

जारवा (Jarawa)

अंडमान और निकोबार द्वीप समूह से जारवा जनजाति की आबादी भी कम हो रही है और इनके करीब 300-400 होने का अनुमान है.

इन पर ग्रेट अंडमान ट्रंक रोड के ज़रिए बाहरी लोगों के संपर्क में आने से बीमारी और शोषण का जोखिम बढ़ता जा रहा है. साथ ही अवैध पर्यटन और अवैध शिकार उनके वन क्षेत्र पर अतिक्रमण करते हैं, जिससे उनकी जीवनशैली बाधित होती है.

अंडमान द्वीप की चार जनजातियों में से जारवा की स्थिति सबसे ज़्यादा ख़तरनाक है.

उनके इलाके से होकर गुज़रने वाली सड़क हज़ारों बाहरी लोगों को, जिनमें पर्यटक भी शामिल हैं, उनके इलाके में ले आती है. पर्यटक जारवा को सफारी पार्क में जानवरों की तरह मानते हैं.

बाहरी लोग जिसमें स्थानीय निवासी और अंतर्राष्ट्रीय शिकारी दोनों ही शामिल हैं. उनके समृद्ध वन क्षेत्र में घुसकर शिकार चुरा लेते हैं.

वे बाहरी बीमारियों के प्रति संवेदनशील बने रहते हैं, जिनके प्रति उनमें बहुत कम या कोई प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती. 1999 और 2006 में जारवा को खसरे की बीमारी का सामना करना पड़ा, जो बाहरी लोगों के संपर्क में आने के बाद दुनिया भर में कई जनजातियों को खत्म कर चुकी है. महामारी जनजाति को तबाह कर सकती है.

ओंग (Onge)

ओंगे जनजाति लिटिल अंडमान द्वीप, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह से हैं. उनकी आबादी लगभग 100-120 होने का अनुमान है.

2004 की सुनामी, कटाई और बस्तियों ने उनके क्षेत्र को कम कर दिया. ओंग जनजाति संकट के कगार पर है, उनकी जनसंख्या कमजोर है और संस्कृति लुप्त हो रही है.

1940 के दशक तक ओंग जनजाति लिटिल अंडमान के एकमात्र स्थायी निवासी थे, जब उनकी ज़मीन भारत, बांग्लादेश और निकोबार द्वीप समूह से आए लोगों ने छीन ली थी.

जब 100 साल पहले ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों के साथ इनका जबरन संपर्क हुआ, तब से इनकी आबादी में गिरावट आई है, साथ ही उनके स्वास्थ्य और कल्याण में भी गिरावट आई है.

पहले खानाबदोश लोग रहे ओंगे को 1976 में भारतीय सरकार ने जबरन बसाया था ताकि उन्हें ‘स्वच्छ जीवन जीने और प्रकृति के तत्वों से सुरक्षा के लिए बुनियादी सुविधाएँ’ मिल सकें. अब वे डुगोंग क्रीक में एक रिजर्व में रहते हैं जो उनके मूल क्षेत्र के आकार का एक अंश है.

2004 में सुनामी के कारण ओंग की नई बस्तियां पूरी तरह से नष्ट हो गईं लेकिन सभी ओंग बच गए.

सरकारी राशन और चिकित्सा देखभाल के बावजूद उनके बसने के बाद से उनका स्वास्थ्य गिरता गया है और वे कुपोषण, शिशु मृत्यु दर और ख़तरनाक रूप से कम विकास दर की उच्च दर से पीड़ित हैं. उनके बसने के बाद के वर्षों में शिशु और बाल मृत्यु दर दोगुनी हो गई.

2008 में ओंग की आबादी को एक और विनाशकारी झटका लगा जब आठ ओंग लोगों की मौत एक अज्ञात ज़हरीले तरल पदार्थ को पीने से हो गई जो उन्हें तट पर मिला था.

सेंटिनलीज (Sentinelese)

सेंटिनलीज लोग उत्तरी सेंटिनल द्वीप, अंडमान और निकोबार द्वीप समूह से हैं. लगभग 50-150 सेंटिनलीज बचे हैं.

यह जनजाति अलग-थलग है और अगर वे संपर्क में आते हैं तो बीमारी से संभावित विनाश का सामना करते हैं.

उत्तरी सेंटिनल द्वीप पृथ्वी पर बहुत कम स्थानों में से एक है जहां आगंतुकों को सख्ती से अनुमति नहीं है. इंडियन कोस्ट गार्ड द्वीप के आसपास के पानी में गश्त करता है.

सेंटिनलीज लोगों को किसी भी बाहरी व्यक्ति के प्रति बहुत आक्रामक माना जाता है. वे बाहरी लोगों के साथ सभी संपर्क का विरोध करते हैं, जो भी उनके पास आता है उस पर हमला करते हैं.

नवंबर 2018 में जॉन एलन चाऊ (John Allen Chau) नामक एक अमेरिकी मिशनरी को सेंटिनली लोगों ने मार डाला था, जब वह उन्हें ईसाई धर्म में परिवर्तित करने की कोशिश कर रहा था.

संपर्क करने के उसके अवैध प्रयास से पूरे सेंटिनली जनजाति का सफाया हो सकता था, क्योंकि इससे फ्लू जैसी नई बीमारियाँ फैल सकती थीं, जिनके प्रति उनमें कोई प्रतिरोधक क्षमता नहीं होती.

सेंटिनली वर्षावन में शिकार करते हैं और इकट्ठा करते हैं और तटीय जल में मछलियाँ पकड़ते हैं. ये लोग नावें बनाते हैं जो की बहुत ही संकरी होती है.

सेंटिनली महिलाएं अपनी कमर, गर्दन और सिर के चारों ओर फाइबर की डोरियां बांधती हैं. वहीं पुरुष भी हार और हेडबैंड पहनते हैं. लेकिन कमर पर मोटी बेल्ट के साथ वे भाले, धनुष और तीर रखते हैं.

कोरवा (Korwa)

झारखंड और छत्तीसगढ़ के कोरवा जनजाति की संख्या लगभग 26 हज़ार. यह एक विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (PVTG) है, जो खनन, गरीबी और शिक्षा की कमी के कारण विस्थापन से पीड़ित है.

आत्मसात के माध्यम से सांस्कृतिक क्षरण एक धीमा लेकिन वास्तविक ख़तरा है.

कोरवा लोगों को विस्थापन और उनके आवास में बदलाव के कारण चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, जिससे उनकी पारंपरिक जीवनशैली में गिरावट आई है.

इस समुदाय के लोगों में कुपोषण और उदासीनता एक मुख्य समस्या है.

कोरवा आदिवासी आज भी जंगली कांदे (Wild Tubers) या फिर जंगल में अलग अलग मौसम में मिलने वाले फल खाते हैं. जंगल से अभी भी सिर्फ़ अपने खाने लायक ही कांदे या फल लाते हैं.

कार्बोंग-हलम (Karbong-Halam)

त्रिपुरा में स्थित कार्बोंग-हलम की जनसंख्या 250-300 है. इस हलम उप-जनजाति में बुनियादी सुविधाओं (स्वास्थ्य सेवा, पानी) का अभाव है और अंतर्जातीय विवाह और आधुनिकीकरण के कारण पहचान खोने का सामना करना पड़ रहा है. हस्तक्षेप के बिना सांस्कृतिक विलुप्ति का ख़तरा है.

अंतर-जनजातीय विवाह, गरीबी और उचित शिक्षा की कमी के कारण कार्बोंग की आबादी तेजी से कम हो रही है. 

टोटो (Toto)

पश्चिम बंगाल में भूटान सीमा के पास स्थित टोटो जनजाति की आबादी लगभग 1,500 से 1,600 होने का अनुमान है. सबसे बड़ा खतरा अद्वितीय टोटो भाषा और उनकी पारंपरिक प्रथाओं का खत्म होना है.

इंडो-भूटानी जनजाति टोटो, पश्चिम बंगाल के अलीपुरद्वार जिले के टोटोपारा गांव में केंद्रित है.

विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूह (PVTG) टोटो को अक्सर विलुप्त होने के कगार पर खड़ी जनजाति के रूप में वर्णित किया जाता है.

पिछले कई दशकों के दौरान न केवल इनकी संख्या कम हो रही है, बल्कि इनकी संभ्यता और संस्कृति पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं.

टोटो जनजाति की आबादी, भाषा और संस्कृति पर मंडरा रहे संकट को देखते हुए पश्चिम बंगाल सरकार ने इस समुदाय में परिवार नियोजन पर रोक लगाई हुई है. इसके बावजूद टोटो जनजाति अपनी आबादी सीमित रखने पर जोर दे रहे हैं. इसके लिए इस समुदाय की अधिकतर महिलाएं चोरी-छिपे सरकारी और निजी अस्पतालों में अपना नाम बदलकर इसे अंजाम देती हैं.

ऐसा नहीं है कि टोटो समुदाय में अपने अस्तित्व पर मंडराने वाले खतरों को लेकर सचेत नहीं है. इस समुदाय का एक बड़ा हिस्सा अपनी संस्कृति और परंपरा को कायम रखने के लिए अन्य समुदाय के साथ वैवाहिक संबंध बनाने से बचता है.

लेप्चा (Lepcha)

लेप्चा सिक्किम, पश्चिम बंगाल (दार्जिलिंग) और भूटान और नेपाल के कुछ हिस्सों से हैं. उनकी आबादी लगभग 50 से 60 हज़ार है.

पूर्वी हिमालय के मूल निवासी लेप्चा को तत्काल जनसंख्या हानि के बजाय सांस्कृतिक और भाषाई विलुप्ति का सामना करना पड़ रहा है. उनकी रोंगरिंग भाषा गंभीर रूप से ख़तरे में है (यूनेस्को के अनुसार). युवा पीढ़ी नेपाली, बंगाली या अंग्रेजी की ओर रुख कर रही है.

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