HomeLaw & Rightsवाइल्डलाइफ़ बोर्ड के अध्यक्ष आदिवासियों को ज़मीन देने के विरोध में उतरे

वाइल्डलाइफ़ बोर्ड के अध्यक्ष आदिवासियों को ज़मीन देने के विरोध में उतरे

कर्नाटक वाइल्‍डलाइफ़ बोर्ड के चैयरमैन ने नागरहोल नेशनल पार्क में आदिवासियों को 3-3 एकड़ ज़मीन दिए जाने की योजना को सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के विरुद्ध बताया है.

कर्नाटक वाइल्डलाइफ़ बोर्ड (State Board of Wildlife, Karnataka) के अध्यक्ष बीके सिंह ने नागरहोल नेशनल पार्क (Nagarahole National Park) के कोर क्षेत्र में आदिवासियों को तीन-तीन एकड़ ज़मीन दिये जाने के फ़ैसले का विरोध किया है.

इस सिलसिले में उन्होंने मुख्यमंत्री सिध्दारमैया को एक पत्र लिखा है. इस पत्र में उन्होंने कहा है कि नागरहोल नेशनल पार्क के कोर एरिया में आदिवासियों को जो ज़मीन देने का फ़ैसला किया गया है वह वन्यजीवों और इंसानों के बीच टकराव को बढ़ा देगा.

अपने पत्र में मुख्यमंत्री से ज़मीन आंवटन की योजना को रद्द करने की अपील करते हुए उन्होंने कहा है कि जो ज़मीन आदिवासियों को दी जा रही है वह घास के हरे मैदान हैं. 

उन्होने पत्र में यह भी लिखा है कि उन्हें यह पता चला है कि इन हरे मैदानों को जल्दबाज़ी में लोगों को आवंटित करने की तैयारी चल रही है. उन्होंने दावा किया है कि राजस्व और समाज कल्याण विभाग के लोग इस योजना पर काम कर रहे हैं.

इस पत्र में यह दावा भी किया गया है कि आदिवासियों को ज़मीन आवंटन का यह फैसला सुप्रीम कोर्ट के आदेश का भी उल्लंघन होगा. 

बीके सिंह अपने पत्र में कहते हैं कि वन अधिकार क़ानून 2006 आदिवासियों के ज़मीन के अधिकार को मान्यता देने का क़ानून है. लेकिन इस क़ानून को भूमि आवंटन क़ानून की तरह से इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है.

नागरहोल नेशनल पार्क
कर्नाटक में स्थित नागरहोल (नागरहोले) राष्ट्रीय उद्यान भारत के महत्वपूर्ण वन्यजीव अभयारण्यों में से एक है. यह क्षेत्र बाघ संरक्षण परियोजना (Project Tiger) के तहत आता है. 

यहां के मूल निवासी आदिवासी समुदायों को कई दशकों से विस्थापन और वनाधिकार से जुड़े संघर्षों का सामना करना पड़ रहा है. हाल के दिनों में, सरकार और वन विभाग द्वारा किए जा रहे पुनर्वास प्रयासों को लेकर आदिवासी समुदायों में असंतोष और विरोध बढ़ा है.

सरकार की पुनर्वास योजना
कर्नाटक सरकार ने सितंबर 2021 में घोषणा की थी कि नागरहोल टाइगर रिज़र्व के लगभग 400 आदिवासी परिवारों को पुनर्वासित किया जाएगा. इस योजना को CAMPA (Compensatory Afforestation Fund Management and Planning Authority) के तहत वित्त पोषित किया जा रहा है. 

पुनर्वासित होने वाले प्रत्येक परिवार को ₹15 लाख की आर्थिक सहायता प्रदान की जा रही है.

राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) ने सरकार को इस पुनर्वास योजना में तेजी लाने का निर्देश दिया है. प्राधिकरण कहता है कि संरक्षित क्षेत्रों  में वन्यजीव संरक्षण को मजबूत बनाने के लिए आदिवासियों को वहां से हटाना ज़रूरी है. 

सरकारी आंकड़ों के अनुसार, नागरहोल क्षेत्र से 2,785 आदिवासी परिवारों में से लगभग एक तिहाई को पुनर्वासित किया जा चुका है.

आदिवासी समुदायों का विरोध
सरकार और वन विभाग द्वारा पुनर्वास को एक सकारात्मक कदम बताया जा रहा है. लेकिन आदिवासी समुदायों का कहना है कि यह प्रक्रिया उनके अधिकारों का उल्लंघन है. 

वे इस जंगल को केवल अपना घर ही नहीं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक विरासत और आजीविका का महत्वपूर्ण हिस्सा मानते हैं.

बुडाकट्टू कृषिकर संघ (BKS) जैसे संगठनों ने इस मुद्दे पर कड़ा विरोध जताया है. उनका कहना है कि पुनर्वास प्रक्रिया में कई खामियां हैं और यह सुनिश्चित नहीं किया जा रहा कि विस्थापित परिवारों को समुचित सुविधाएं मिलें.

प्रदर्शन और कानूनी चुनौतियां

पिछले कुछ वर्षों में, नागरहोल और अन्य संरक्षित वन क्षेत्रों से आदिवासियों को हटाने के खिलाफ बड़े स्तर पर विरोध प्रदर्शन हुए हैं. 2024 के अंत में, लगभग 700 आदिवासी नागरहोल के प्रवेश द्वार पर धरना देने पहुंचे थे. 

उनका मुख्य मांग थी कि उन्हें जबरन जंगल से न हटाया जाए और वनाधिकार अधिनियम, 2006 के तहत उन्हें उनके पारंपरिक अधिकार दिए जाएं.

सर्वाइवल इंटरनेशनल की एक रिपोर्ट के अनुसार, भारत में करीब 4 लाख आदिवासियों को बाघ अभयारण्यों से बाहर किए जाने की योजना है. इस रिपोर्ट से यह स्पष्ट होता है कि यह केवल नागरहोल तक सीमित मुद्दा नहीं है, बल्कि एक व्यापक राष्ट्रीय समस्या है.

वनाधिकार अधिनियम 2006 की अनदेखी
वनाधिकार अधिनियम, 2006, आदिवासियों को उनके पारंपरिक निवास क्षेत्रों में रहने और वहां खेती करने का कानूनी अधिकार प्रदान करता है. हालांकि, नागरहोल के आदिवासियों ने आरोप लगाया है कि इस अधिनियम को सही ढंग से लागू नहीं किया जा रहा है.

अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे कई परिवारों के वनाधिकार दावों को जिला प्रशासन द्वारा खारिज कर दिया गया है. इन दावों को ख़ारिज इसलिए किया गया क्योंकि वे दस्तावेजी प्रमाण नहीं दे सके.  कई आदिवासी संगठनों का कहना है कि सरकार वन्यजीव संरक्षण के नाम पर आदिवासियों को उनके अधिकारों से वंचित कर रही है.


नागरहोल राष्ट्रीय उद्यान में आदिवासियों का पुनर्वास और उनका विरोध एक जटिल मुद्दा बना हुआ है. जहां सरकार इसे वन्यजीव संरक्षण के लिए आवश्यक मान रही है, वहीं आदिवासी इसे जबरन विस्थापन और उनके परंपरागत अधिकारों का हनन मानते हैं.

इस पूरे मामले में जो चिंता की बात ये है कि पर्यावरण और वन्यजीवों के संऱक्षण के लिए काम करने वाले संगठन सरकार और सुप्रीम कोर्ट तक दबाव बनाने में कामयाब रहते हैं. लेकिन आदिवासियों के हक़ की लड़ाई में राज्य सरकारें लापरवाही बरतती रही हैं. 

मसलन साल 2019 में सुप्रीम कोर्ट ने उन सभी आदिवासी परिवारों को जंगल से बाहर निकालने का आदेश दे दिया था जिनके पास ज़मीन का वैध पट्टा नहीं था. इस फ़ैसले का व्यापक विरोध हुआ तो आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने हस्तक्षेप करते हुए कोर्ट को बताया कि कई मामलों में प्रक्रिया की खामियों की वजह से आदिवासियों को पट्टा नहीं मिल पाया था.

इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले को लागू करने पर रोक लगा दी थी. अब यह मामला जल्दी ही फिर से सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के लिए आ रहा है. लेकिन अभी भी लाखों आदिवासियों के पट्टों के आवेदन या लंबित पड़े हैं या फिर खारिज़ कर दिए गए हैं. 

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