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विश्व आदिवासी दिवस पर इन आदिवासियों ने गांवों को कानूनी मान्यता देने की मांग की

आदिवासियों ने 2006 के वन अधिकार अधिनियम को बहाल करने की भी मांग की. जिसके तहत उन्हें उन जंगलों पर अधिकार दिए गए थे, जिनकी वे पीढ़ियों से रक्षा करते आ रहे हैं.

शुक्रवार की सुबह यानि 9 अगस्त को विश्व आदिवासी दिवस मनाने के लिए मुंबई के आरे कॉलोनी में करीब 1,200 से 1,500 आदिवासी एकत्र हुए. यह कार्यक्रम एक उत्सव और मौन विरोध दोनों का रूप था.

आदिवासियों का दावा है कि वे मुंबई के आसपास के जंगलों के मूल निवासी है. वे कहते हैं कि वे पीढ़ियों से प्रकृति के साथ सामंजस्य बिठाते हुए अपनी जमीन पर खेती करते हैं और पर्यावरण को संरक्षित करते हैं.

इन जमीनों से उनके गहरे जुड़ाव के बावजूद उन्हें व्यवस्थित रूप से उनके अधिकारों से वंचित किया गया और हाशिए पर रखा गया.

“आदिवासी बचाओ यात्रा” के नाम से जाना जाने वाला विरोध मार्च, न्याय, समानता और मान्यता की गुहार थी, जिसका नेतृत्व काश्तकारी शेतकरी संगठन के विट्ठल लाड ने किया.

मान्यता और अस्तित्व के लिए संघर्ष

मुंबई में करीब 222 आदिवासी गांव हैं, जिनमें करीब 10 हज़ार निवासी हैं, जो शहर के जंगलों के मूल संरक्षक हैं.

विरोध के संयोजक विट्ठल लाड ने बताया, “उनके गांव, जहां वे सैकड़ों वर्षों से रह रहे हैं, उसको राजस्व गांव के रूप में मान्यता नहीं दी गई है, जिससे वे कानूनी रूप से अधर में लटके हुए हैं. मान्यता न मिलने के आदिवासियों को गंभीर परिणाम भुगतने पड़ते हैं…क्योंकि इससे उन्हें बुनियादी सुविधाएं, सरकारी लाभ और कानूनी सुरक्षा प्राप्त करने से वंचित होना पड़ता है.”

इस मार्च में सभी उम्र के लोगों ने हिस्सा लिया, जिनमें अपने भविष्य को लेकर चिंतित कई युवा भी शामिल थे.

युवा आदिवासी नेता रमेश गताल ने कहा, “हम इन ज़मीनों के असली मालिक हैं फिर भी हमारे साथ अतिक्रमणकारियों जैसा व्यवहार किया जाता है. हमारे पूर्वज शहर के अस्तित्व में आने से बहुत पहले से यहां रहते थे. हम मांग करते हैं कि हमारे गांवों को राजस्व गांव घोषित किया जाए ताकि हमारी कानूनी मान्यता और अधिकार सुरक्षित रहें.”

आदिवासियों ने 2006 के वन अधिकार अधिनियम को बहाल करने की भी मांग की. जिसके तहत उन्हें उन जंगलों पर अधिकार दिए गए थे, जिनकी वे पीढ़ियों से रक्षा करते आ रहे हैं.

लेकिन सरकार की बाद की नीतियों और परियोजनाओं के कारण इस अधिनियम को कमजोर किया गया है, जिससे उनका अस्तित्व खतरे में पड़ गया है.

आदिवासियों को डर है कि प्रस्तावित स्लम रिहैबिलिटेशन अथॉरिटी (SRA) परियोजनाओं और अन्य विकासों का उद्देश्य प्रगति की आड़ में उन्हें विस्थापित करना है.

आरे कॉलोनी की एक बुजुर्ग महिला वनिता ठाकरे ने कहा कि हमारी ज़मीनों पर बाड़ लगाई जा रही है और हमारी खेती की ज़मीनों को सरकारी ज़मीन बताकर ज़ब्त किया जा रहा है. हमें खेती करने के अधिकार से वंचित किया जा रहा है, जिससे हमारी आजीविका नष्ट हो रही है. यह ज़मीन से कहीं ज़्यादा है; यह हमारी पहचान और अस्तित्व का सवाल है.

बुनियादी अधिकारों से वंचित

कार्यकर्ताओं का तर्क है कि कई आदिवासी बस्तियों में अन्य शहरी निवासियों के लिए उपलब्ध जरूरी सेवाओं तक पहुंच का अभाव है.

कई गांवों में बच्चों को अपर्याप्त शिक्षा सुविधाओं का सामना करना पड़ता है. इसके अलावा स्वास्थ्य सेवा एक और बड़ी चिंता है. गांव अक्सर दूर-दराज के होते हैं, अस्पतालों से दूर…

ऐसे में आदिवासियों को आपात स्थिति में जुहू के कूपर अस्पताल जाना पड़ता है, इसकी वजह से अक्सर देरी के कारण जान चली जाती है.

पानी की उपलब्धता एक और मुद्दा है. करीब 45-50 घरों वाले खंबाचा पाड़ा गांव में एक नल से दिन में सिर्फ 15 मिनट पानी मिलता है, जबकि पास की एक गौशाला में पर्याप्त पानी मिलता है.

शहरी उपनिवेशीकरण: आदिवासियों के अस्तित्व के लिए ख़तरा

यहां के आदिवासियों के लिए “शहरी उपनिवेशीकरण” की अवधारणा एक महत्वपूर्ण ख़तरा है. जैसे-जैसे मुंबई का विस्तार हो रहा है, आदिवासी खुद को शक्तिशाली हितों द्वारा तेजी से विस्थापित होते हुए पा रहे हैं.

सरकार अक्सर वन भूमि को लक्षित करने वाले डेवलपर्स और निगमों का पक्ष लेती है, आदिवासियों को उनकी पैतृक भूमि पर अतिक्रमण करने वाला करार देती है.

आदिवासियों का कहना है कि शहर के लोग ही असली अतिक्रमणकारी हैं, आदिवासी नहीं. वे यहां आते हैं, हमारी जमीनों पर कब्जा करते हैं और फिर हमें अवैध कब्जाधारी कहते हैं. यह शहरी उपनिवेशीकरण है, जहां शक्तिशाली लोग शक्तिहीन लोगों का शोषण करते हैं. सरकार और राजनेता हमें केवल जमीन के टुकड़े के रूप में देखते हैं, मनुष्य के रूप में नहीं.

आदिवासियों को सरकारी संगठनों से भेदभाव और उत्पीड़न का भी सामना करना पड़ता है. स्थानीय पुलिस ने अग्रिम आवेदन के बावजूद उनके विरोध मार्च की अनुमति नहीं दी, जो व्यवस्थागत पक्षपात को उजागर करता है.

अपने गांवों को राजस्व गांव के रूप में मान्यता देने की मांग केवल कानूनी मुद्दा नहीं है बल्कि अस्तित्व का मामला है. इस मान्यता के बिना, आदिवासियों के पास अपनी ज़मीन को अतिक्रमण और शोषण से बचाने के लिए कानूनी आधार नहीं है.

विट्ठल लाड ने कहा, “आदिवासी दान नहीं मांग रहे हैं; वे न्याय, समानता और भूमि के मूल निवासियों के रूप में अपने अधिकारों के लिए सम्मान की मांग कर रहे हैं.”

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