राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) ने 19 जून को एक आदेश जारी कर वन अधिकारियों को 54 बाघ अभयारण्यों के मुख्य क्षेत्रों में स्थित 591 गांवों के 64 हज़ार 801 परिवारों के पुनर्वास में तेजी लाने का निर्देश दिया था.
अब राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) ने राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की जून की इस सलाह के खिलाफ उसे भेजे गए अभ्यावेदनों का संज्ञान लिया है.
एनसीएसटी ने 24 सितंबर को इस मुद्दे पर एक पूर्ण आयोग की बैठक की, जिसमें अध्यक्ष अंतर सिंह आर्य और इसके तीन सदस्य उपस्थित थे.
द इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के मुताबिक आयोग ने स्थानांतरण के मुद्दे पर एनटीसीए से एक रिपोर्ट मांगने का फैसला किया. सितंबर की बैठक के फैसले की पुष्टि अक्टूबर के अंतिम सप्ताह में की गई.
इसके अलावा आयोग ने बाघ अभयारण्यों से स्वेच्छा से बाहर निकलने का विकल्प चुनने वाले ग्रामीणों को दिए जाने वाले मुआवज़े के पैकेज को संशोधित करने के लिए अपनी 2018 की सिफारिशों पर केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय और एनटीसीए से कार्रवाई रिपोर्ट मांगने का भी फैसला किया.
एनसीएसटी ने अक्टूबर 2018 में कहा था कि मुआवज़ा पैकेज भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्स्थापन अधिनियम, 2013 के आधार पर प्रदान किया जाना चाहिए. इसमें कहा गया है कि मुआवज़े के पैकेज में 2013 अधिनियम के तहत प्रदान की गई पूरी तरह की योग्यता के साथ-साथ कंपनसेशन पैकेज भी शामिल होना चाहिए.
एनटीसीए ने 2021 में मुआवज़े को 10 लाख रुपये से संशोधित कर 15 लाख रुपये प्रति परिवार कर दिया था.
सूत्रों ने बताया कि आयोग एनटीसीए द्वारा 2018 की सिफारिशों और उसके अनुसार किए गए पुनर्वास पर की गई कार्रवाई के बारे में जानना चाहता है.
क्या है पूरा मामला?
दरअसल, एनटीसीए ने राज्य वन विभागों को पत्र लिखकर उन्हें प्राथमिकता के आधार पर गांवों के पुनर्वास को अपनाने और बाघ अभयारण्यों के मुख्य क्षेत्रों से गांवों के सुचारू पुनर्वास के लिए समयसीमा तय करने को कहा था.
एनटीसीए के पत्र के मुताबिक, 19 राज्यों के 54 बाघ अभयारण्यों में 64,801 परिवारों वाले 591 गांव महत्वपूर्ण बाघ आवासों के अंदर रहते हैं, जिन्हें मुख्य क्षेत्र भी कहा जाता है. अब तक 25,007 परिवारों वाले 251 गांवों को बाघ अभयारण्यों से बाहर स्थानांतरित किया जा चुका है.
बाद में सितंबर में 150 से अधिक आदिवासी अधिकार समूहों और व्यक्तियों के एक समूह ने एनसीएसटी, आदिवासी मामलों के मंत्रालय और पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय को पत्र लिखकर एनटीसीए के पत्र को वापस लेने की मांग की.
इसमें कहा गया है कि एनटीसीए का पत्र वन अधिकार अधिनियम, 2006 और वन्य जीव (संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2006 का उल्लंघन है. क्योंकि इसमें कानून के अनुसार स्वैच्छिक प्रक्रिया के लिए समयबद्ध ग्राम पुनर्वास योजनाओं की मांग की गई है.
सूत्रों ने बताया कि इस प्रतिनिधित्व का संज्ञान लेते हुए सितंबर में आयोग ने इस मुद्दे पर चर्चा की और समूह के कार्यकर्ताओं को अपने विचार प्रस्तुत करने के लिए आमंत्रित किया.
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वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत बाघ अभयारण्यों के केंद्र में मानव बस्तियों से मुक्त क्षेत्र बनाए जा सकते हैं. हालांकि, यह वन अधिकार अधिनियम, 2006 के तहत आदिवासी समुदायों के अधिकारों को मान्यता देने और संबंधित ग्राम सभा की सूचित सहमति के बाद किया जाना है.
इसके अलावा स्वैच्छिक पुनर्वास से पहले राज्य सरकार को पारिस्थितिकी और सामाजिक वैज्ञानिकों के साथ परामर्श के आधार पर यह निष्कर्ष निकालना होगा कि आदिवासी समुदायों या वनवासियों की गतिविधियां या उनकी उपस्थिति बाघों और उनके आवास को अपूरणीय क्षति पहुंचाने के लिए पर्याप्त हैं.
उन्हें यह भी निष्कर्ष निकालना होगा कि आदिवासी समुदाय के लिए बाघों के साथ सह-अस्तित्व के अलावा कोई अन्य उचित विकल्प नहीं है.
एनसीएसटी को दी गई याचिका में बताया गया कि एनटीसीए के पत्र में इन प्रावधानों पर ध्यान नहीं दिया गया, जिससे यह कानून का उल्लंघन है.
मौजूदा प्रावधानों के तहत स्वैच्छिक पुनर्वास का विकल्प चुनने वाले परिवारों को प्रति परिवार 15 लाख रुपये दिए जाने हैं.
इसके अलावा जो लोग पुनर्वास और पुनर्वास पैकेज का विकल्प चुनते हैं, उन्हें दो हेक्टेयर भूमि, रहने योग्य भूमि, घर निर्माण, एकमुश्त वित्तीय प्रोत्साहन, बुनियादी जल, स्वच्छता, बिजली और दूरसंचार सुविधाओं का अधिकार है.
प्रोजेक्ट टाइगर
प्रोजेक्ट टाइगर की शुरुआत 1973 में हुई थी जब गणना के बाद पाया गया कि भारत में बाघों की संख्या तेजी से घट रही है. तब उनके कुदरती आवास के लगातार घटने, अनियमित शिकार, अवैध शिकार और गांव में घुसे बाघों को लोगों द्वारा मारा जाना बड़ी वजहों में से थे.
माना जाता है कि तब बाघों की संख्या 1,800 के आसपास थी. लेकिन विशेषज्ञ इस आंकड़े को सही नहीं मानते. उनका कहना है कि 2006 तक गिनती का जो तरीका अपनाया जा रहा था, वह सटीक नहीं था.
बाघों की संख्या बढ़ाने के लिए कानून का सहारा लिया गया. इस कानून के तहत जो परियोजनाएं चलाई गईं, वे ऐसे संरक्षित क्षेत्र स्थापित करने के इर्द-गिर्द केंद्रित थीं, जिनसे लोगों की आबादी को दूर रखा जाए.
कई आदिवासी समूह कहते हैं कि यह रणनीति अमेरिकी संरक्षण नीति से प्रेरित थी जिनके जरिए ऐसे हजारों लोगों को विस्थापित कर दिया गया जो पीढ़ियों से जंगलों में रहते आए थे.