छत्तीसगढ़ में 54 मानवाधिकार और नागरिक स्वतंत्रता संगठनों ने एक अपील में सरकार और माओवादी विद्रोहियों दोनों से तत्काल युद्ध विराम की घोषणा करने का आह्वान किया है.
इनकी मांग स्थानीय आदिवासी समुदायों को तबाह करने वाली बढ़ती हिंसा के जवाब में आई है.
इन संगठनों में करीब 150 प्रमुख कार्यकर्ता, बुद्धिजीवी और नागरिक समाज के सदस्य शामिल हैं.
संयुक्त बयान में दोनों पक्षों से सभी प्रकार की हिंसा-सैन्य अभियान, न्यायेतर हत्याएं, आईईडी विस्फोट और नागरिकों की मौतों को तुरंत रोकने और आगे कोई शत्रुता नहीं करने का आग्रह किया गया. इसने विशेष रूप से माओवादियों से तथाकथित जन अदालतों में मृत्युदंड जारी करने को रोकने के लिए कहा है.
शांति के लिए यह आह्वान केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के छत्तीसगढ़ के दो दिवसीय दौरे के समय हुआ है.
दरअसल, बस्तर क्षेत्र में नक्सल विरोधी अभियानों का आकलन करने के लिए 4 अप्रैल को पहुंचे शाह ने 5 अप्रैल को रायपुर में आयोजित सांस्कृतिक उत्सव बस्तर पंडुम के समापन समारोह के दौरान शांति, समृद्धि और आदिवासी विरासत के संरक्षण के लिए सरकार की प्रतिबद्धता की पुष्टि की.
उन्होंने आगामी चैत्र नवरात्रि तक बस्तर से वामपंथी उग्रवाद को खत्म करने की कसम खाई. अमित शाह ने कहा, “हथियारों से आप आदिवासी विकास को नहीं रोक सकते. मुख्यधारा में वापस आएं, आत्मसमर्पण करें और बस्तर की प्रगति का हिस्सा बनें.”
उधर 28 मार्च को प्रतिबंधित सीपीआई (माओवादी) ने इस शर्त पर शांति वार्ता में शामिल होने की इच्छा जताई कि सरकार माओवादी विरोधी अभियान बंद कर दे और नए सुरक्षा शिविर स्थापित न करे.
छत्तीसगढ़ सरकार ने बातचीत के लिए खुलेपन के साथ जवाब दिया लेकिन उसने किसी भी पूर्व शर्त को अस्वीकार कर दिया.
तनाव कम करने के प्रयास रुके हुए हैं
इन प्रयासों के बावजूद हिंसा बढ़ती जा रही है और तनाव कम करने के प्रयास रुके हुए हैं.
इसलिए नागरिक समाज समूहों ने समावेशी शांति वार्ता का आग्रह किया है और जोर देकर कहा है कि आदिवासियों को समान हितधारकों के रूप में मान्यता दी जानी चाहिए. उन्होंने जेल में बंद आदिवासियों की रिहाई और वार्ता प्रक्रिया में उनकी भागीदारी की मांग की.
संयुक्त बयान में कहा गया कि सरकार को जमीनी कार्रवाई को तुरंत रोककर अपनी मंशा दिखानी चाहिए. इस बात पर जोर देते हुए कि माओवादी संघर्ष नागरिकों से जुड़ा एक घरेलू मुद्दा है, न कि कोई बाहरी युद्ध.
बयान में राज्य से संवैधानिक मूल्यों को बनाए रखने और बिना शर्त शांति वार्ता शुरू करने का आग्रह किया गया.
उन्होंने कहा, “हम दोनों पक्षों से आदिवासियों और अन्य ग्रामीणों के सर्वोत्तम हितों पर विचार करने और संवैधानिक, लोकतांत्रिक और मानवाधिकारों पर आधारित वार्ता में शामिल होने का आह्वान करते हैं.”
बयान में कहा गया कि छत्तीसगढ़ में बस्तर, झारखंड में पश्चिमी सिंहभूम और महाराष्ट्र में गढ़चिरौली जैसे आदिवासी बहुल क्षेत्र संघर्ष के केंद्र बने हुए हैं और किसी भी शांति प्रक्रिया में स्थानीय निवासियों का जीवन और कल्याण पहली प्राथमिकता होनी चाहिए.
राज्य समर्थित लेकिन अब प्रतिबंधित सलवा जुडूम मिलिशिया द्वारा हत्या, गांवों को जलाने, यौन हिंसा, भुखमरी और बड़े पैमाने पर विस्थापन सहित अत्याचारों की लहर फैलाए जाने के 20 साल पूरे होने पर बयान में इस बात पर जोर दिया गया कि बस्तर के ग्रामीणों ने तब से बहुत कम शांति देखी है.
इसमें कहा गया है, “जैसे ही वे अपने गांवों में लौटे, उन्हें ऑपरेशन ग्रीन हंट और उसके बाद लगातार हमलों का सामना करना पड़ा. 2024 से ऑपरेशन कगार के तहत 400 से अधिक लोग मारे जा चुके हैं (2024 में 287, 2025 में 113).”
छत्तीसगढ़ में विष्णु देव साय की सरकार के सत्ता में आने के बाद से मानवाधिकार समूहों द्वारा “ऑपरेशन कगार” नाम के तीव्र सैन्य अभियानों को स्टेट-कॉर्पोरेट अभियान के रूप में देखा जाता है. जिसका उद्देश्य आदिवासी समुदायों की कीमत पर खनिज समृद्ध क्षेत्रों का दोहन करना है.
हताहतों की संख्या में असंतुलन को उजागर करते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि माओवादियों या सुरक्षा बलों की तुलना में नागरिकों की मृत्यु कहीं ज़्यादा है.
माओवादी कहलाने वाले कई लोगों को बाद में ग्रामीणों ने आम नागरिक के रूप में पहचाना. जिससेल यह स्पष्ट है कि आम लोग ज्यादा प्रभावित हैं.
बयान में साल 2024 में बच्चों की हत्या के कई मामलों का उल्लेख किया गया है और बताया गया है कि 2025 तक 15 नागरिक, 14 सुरक्षाकर्मी और 150 माओवादी मारे जा चुके हैं. इसमें कहा गया है कि सुरक्षा बलों को इन हत्याओं के लिए 8.24 करोड़ रुपये का इनाम मिला है.
सलवा जुडूम के फैसले को अभी तक लागू नहीं किया गया?
हालांकि गंभीर रूप से प्रभावित जिलों की संख्या घटकर छह हो गई है. लेकिन बयान में तर्क दिया गया है कि इसके बावजूद भारी सैन्यीकरण को उचित नहीं ठहराया जा सकता है.
इसमें कहा गया है, “सरकार ने एसपीओ को भंग करने और ऑपरेशन में पूर्व माओवादियों का इस्तेमाल बंद करने के सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अनदेखी की है. इसने डिस्ट्रिक्ट रिजर्व गार्ड और बस्तर फाइटर्स का विस्तार किया है, जिनमें से कई पूर्व सलवा जुडूम भर्ती के लोग हैं, जिनके अधिकारों के उल्लंघन के दस्तावेजी सबूत हैं.”
इसमें आगे कहा गया है कि 2011 के सलवा जुडूम फैसले को अभी तक लागू नहीं किया गया है.
160 से ज़्यादा नए सुरक्षा शिविरों की स्थापना हुई है, जो अक्सर गांव की ज़मीन पर बनाए जाते हैं. इसने आदिवासी समुदायों को चिंतित कर दिया है.
बयान में कहा गया, “अब हर नौ नागरिकों पर लगभग एक सुरक्षाकर्मी है. फिर भी शिक्षा, स्वास्थ्य सेवा और परिवहन जैसी बुनियादी सेवाएं सड़क निर्माण की गति से पीछे हैं.”
इसमें चेतावनी दी गई है कि खनन कंपनियों के साथ सरकार के सहमति ज्ञापनों से बेदखली, विस्थापन और पर्यावरण क्षरण की आशंकाएं और अधिक बढ़ गई हैं.
बयान में खनन और विस्थापन का विरोध करने वाले संवैधानिक आंदोलनों के दमन की भी निंदा की गई.
पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों में विस्तार) अधिनियम (पेसा) का हवाला देते हुए, इसने शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों के हिंसक दमन, विरोध स्थलों को ध्वस्त करने, शारीरिक हमलों और मोर्टार गोले और बमों के इस्तेमाल पर प्रकाश डाला. जिससे आदिवासियों में डर पैदा हुआ है और इससे उनकी रोजर्मरा बाधित हो रही है.
उदाहरण के तौर पर मूलवासी बचाओ मंच, जो बस्तर में युवाओं के नेतृत्व वाला एक आदिवासी समूह है, जो सैन्यीकरण, निगमीकरण और विस्थापन के खिलाफ अभियान चलाता है और साथ ही पेसा और वन अधिकार अधिनियम के तहत अधिकारों की वकालत करता है.
इस पर प्रतिबंध लगा दिया गया है और इसके युवा नेताओं को यूएपीए जैसे गंभीर आरोपों के तहत गिरफ्तार किया गया है.
और ऐसा करने का एकमात्र आधिकारिक कारण है कि उन्होंने सुरक्षा शिविरों और न्यायेतर हत्याओं के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया. जबकि संविधान विरोध करने के अधिकार की गारंटी देता है.
सरकार ने शांतिपूर्ण बातचीत के लिए सभी जगहें बंद कर दी हैं.
निर्दोष आदिवासी गंवा रहे अपनी जान
पिछले काफी वक्त से राज्य सरकार पर जंगलों में फर्जी मुठभेड़ में आदिवासियों को मारने का आरोप लगाए जा रहे हैं. हालांकि, राज्य सरकार इन आरोपों का खंडन करती रही है.
लेकिन छत्तीसगढ़ में सुरक्षा बलों और नक्सलियों के संघर्ष के बीच फंसे आदिवासी अब हिंसा और अस्थिरता के बीच जीवन जीने को मजबूर हैं.
दिसंबर 2023 में जब से भाजपा सरकार ने पहले आदिवासी मुख्यमंत्री विष्णु देव साई के नेतृत्व में सत्ता संभाली है, तब से नक्सलियों की मौत, गिरफ्तारी और आत्मसमर्पण की संख्या में पाँच गुना वृद्धि हुई है.
सरकार ने आदिवासी अधिकारों के लिए लड़ने वालों पर भी एक साथ कार्रवाई शुरू की है. क्योंकि उनका दावा है कि उनके माओवादियों से संबंध हैं.
अप्रैल 2022 में कांकेर में एक चुनावी रैली को संबोधित करते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने घोषणा की थी: “हम अगले दो वर्षों में छत्तीसगढ़ से नक्सलियों को जड़ से उखाड़ फेंकेंगे.” और अब ऐसा ही होता दिख रहा है.
सुरक्षा बलों का दावा है कि उन्होंने कई शीर्ष माओवादी नेताओं को मार गिराया है और विद्रोहियों के नेटवर्क में सेंध लगाई है.
लेकिन राज्य सरकार पर आरोप लग रहे हैं कि वो निर्दोष आदिवासियों को नक्सली बताकर फर्जी मुठभेड़ कर रही है.