झारखंड में चौथी बार मुख्यमंत्री बने हेमंत सोरेन की जीत की उनकी बहुआयामी रणनीति का परिणाम रही है. उनकी इस जीत के अलावा एक और बात इस चुनाव में साबित हो गई कि बीजेपी-आरएसएस पूरी ताकत लगा कर भी राज्य में आदिवासी का भरोसा नहीं जीत पाई.
झारखंड में आदिवासी आज हेमंत सोरेन पर भरोसा कर रहा है. मौटेतौर पर हेमंत सोरेन की जीत में आदिवासी पहचान और महिला सम्मान को अहम माना जा रहा है.
सोरेन सरकार की ‘मैया सम्मान योजना’ ने ग्रामीण महिलाओं को निर्णायक तौर पर हेमंत सोरेन के साथ खड़ा कर दिया. जबकि पुरुषों ने सोरेन को आदिवासी पहचान और उनके अधिकारों के संरक्षण के प्रतीक के रूप में अपनाया है.
झारखंड में लगातार दूसरी बार सत्ता हासिल करके हेमंत सोरेन ने इतिहास रच दिया है. इसके साथ ही आज उन्हें देश का सबसे बड़ा आदिवासी नेता माना जा रहा है.
ज़ाहिर है जब कोई नेता बड़ा बन जाता है तो उससे अपेक्षाएं भी बढ़ती हैं और शीर्ष पर कायम रहने की चुनौती भी होती है. हेमंत सोरेन के साथ भी ये दोनों बाते हैं. उन्हें आदिवासी समुदायों से किए गए वादों को पूरा करना होगा, साथ ही साथ राज्य का विकास भी सुनिश्चित करना होगा.
अगले पांच वर्षों में आदिवासी समुदायों की अपेक्षा और कॉरपोरेट जगत के दबाव के नाजुक संतुलन को हेमंत सोरेन कितना बना पाते हैं इस पर उनकी सरकार की कामयाबी निर्भर करेगी. जहां तक आदिवासी समुदायों का सवाल है तो ये कुछ मुद्दे हैं जिनपर हेमंत सोरेन का काम करना होगा –
अधिवास नीति पर बहस
हेमंत सोरेन की सरकार के पिछले कार्यकाल में बहुचर्चित 1932 खतियान-आधारित अधिवास विधेयक पारित हुआ था, जिसका उद्देश्य झारखंड के मूल निवासियों के अधिकारों की रक्षा करना था.
इस विधेयक में तीसरी और चौथी श्रेणी की सरकारी नौकरियों के लिए पात्रता को 1932 के भूमि अभिलेखों से जोड़ा गया था, जिसे कई लोगों ने मूल निवासी अधिकारों की रक्षा के लिए एक आवश्यक सुरक्षा उपाय के रूप में माना था.
हालांकि, इस नीति को काफी प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, खासकर उन लोगों से जिनके नाम भूमि स्वामित्व अभिलेखों में शामिल नहीं थे. इस विधेयक को बाद में संविधान की 9वीं अनुसूची में शामिल करने के लिए केंद्र सरकार को भेजा गया था. फिर भी इसके प्रभावी कार्यान्वयन को लेकर राजनीतिक दलदल एक सतत चुनौती बनी हुई है.
झारखंड का कोल्हान संभाग, जिसमें पश्चिमी और पूर्वी सिंहभूम और सरायकेला-खरसावां शामिल हैं, इस नीति से विशेष रूप से प्रभावित है.
1932 के खतियान-आधारित अधिवास कानून से कोल्हान जिले के अनुमानित 45 लाख लोग प्रभावी रूप से भूमिहीन हो जाएंगे.
1964 और 1970 के बीच किए गए सर्वेक्षण बंदोबस्तों को 1932 के अभिलेखों के भाग के रूप में मान्यता नहीं दी गई है, जिससे स्थिति और जटिल हो गई है.
इन विकट चुनौतियों के बावजूद सोरेन सरकार के पास इस मुद्दे को राजनीतिक रूप से भुनाने का अवसर है. जिससे वह खुद को आदिवासी अधिकारों के रक्षक के रूप में पेश कर सकती है, जबकि केंद्र सरकार को मूलनिवासियों के दुश्मन के रूप में पेश कर सकती है.
सरना धर्म संहिता
झारखंड के आदिवासी समुदायों की सबसे महत्वपूर्ण मांगों में से एक सरना धर्म संहिता के माध्यम से उनकी विशिष्ट धार्मिक पहचान की मान्यता है.
वर्तमान में आदिवासियों को हिंदू, ईसाई या “अन्य” के रूप में वर्गीकृत किया जाता है, जिससे उनकी विशिष्ट धार्मिक प्रथाओं और परंपराओं को कमजोर किया जाता है.
सरना धर्म के लिए एक अलग संहिता आदिवासी धार्मिक मान्यताओं को एक अलग पहचान के रूप में मान्यता प्रदान करेगी, जो प्रकृति और पारिस्थितिक सद्भाव के साथ घनिष्ठ संबंध में निहित है.
हालांकि, केंद्र सरकार इस मांग का समर्थन करने में अनिच्छुक रही है. मुख्य रूप से इस चिंता के कारण कि सरना को एक अलग धर्म के रूप में मान्यता देने से अन्य समुदायों की ओर से भी इसी तरह की मांगें भड़क सकती हैं, जिससे सामाजिक विखंडन हो सकता है.
लेकिन इसके बावजूद, सरना धर्म संहिता की मांग लगातार बढ़ रही है.
आदिवासी नेताओं का तर्क है कि यह मान्यता उनकी सांस्कृतिक और आध्यात्मिक प्रथाओं को संरक्षित करने के लिए जरूरी है.
यह मुद्दा आदिवासी पहचान और पर्यावरण के साथ उनके अनूठे रिश्ते के बीच गहरे संबंध को भी उजागर करता है. जैसा कि ओडिशा में वेदांता खनन मामले में सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप से प्रदर्शित होता है जिसने स्थानीय आदिवासी आबादी के धार्मिक अधिकारों की रक्षा की.
भूमि अधिग्रहण और भूमि बैंक विवाद
झारखंड के राजनीतिक विमर्श में भूमि अधिग्रहण का मुद्दा सबसे विवादास्पद विषयों में से एक है, जिसमें भूमि बैंक नीति बहस के केंद्र में है.
पिछली रघुबर दास सरकार के तहत भूमि बैंक की स्थापना खनन सहित कॉर्पोरेट परियोजनाओं के लिए भूमि अधिग्रहण की सुविधा के लिए की गई थी. इसमें गैर-खेती, आम और धार्मिक भूमि शामिल थी, जो स्थानीय आदिवासी समुदायों की नाराजगी का कारण बनी.
उनका तर्क है कि ये भूमि ग्राम सभा की है और इसका इस्तेमाल कॉर्पोरेट लाभ के लिए नहीं किया जाना चाहिए.
सोरेन सरकार ने अपने 2019 के घोषणापत्र में भूमि बैंक कानून को निरस्त करने का वादा किया था. लेकिन इस वादे को पूरा करने का कार्य अनुमान से कहीं अधिक कठिन साबित हुआ है.
भूमि बैंक के निर्माण के साथ-साथ सोशल इंपैक्ट असेसमेंट प्रक्रिया में ढील देने का उद्देश्य कॉर्पोरेट हितों के लिए भूमि अधिग्रहण को आसान बनाना था.
हालांकि, इसने स्थानीय आबादी, विशेष रूप से आदिवासी समुदायों के व्यापक विरोध को जन्म दिया है. जिनका मानना है कि उनकी पुश्तैनी ज़मीनों को उनकी सहमति के बिना कॉर्पोरेट संस्थाओं को बेचा जा रहा है.
खनन से होने वाले राजस्व पर राज्य की निर्भरता इस मुद्दे को और जटिल बनाती है क्योंकि खनन उद्योग स्थानीय राजनीति पर काफी प्रभाव रखता है.
सोरेन सरकार ने भूमि बैंक को निरस्त करने का इरादा जाहिर किया है लेकिन यह देखना बाकी है कि क्या वह इस वादे को पूरी तरह से लागू कर पाती है.
भूमि बैंक विवाद के अलावा झारखंड में अवैध भूमि हस्तांतरण का मुद्दा भी चिंता का विषय बना हुआ है. 2021 में विशेष जांच दल (SIT) की एक रिपोर्ट में 21 हज़ार एकड़ से अधिक आदिवासी भूमि को गैर-आदिवासियों को अवैध रूप से हस्तांतरित करने का खुलासा किया गया था.
निष्कर्षों की गंभीरता के बावजूद, सोरेन सरकार ने स्थिति को सुधारने के लिए कोई ठोस कार्रवाई नहीं की है. इन अवैध लेन-देन में शामिल लोगों के राजनीतिक प्रभाव ने सरकार की कार्रवाई करने की क्षमता को बाधित किया है, जिससे प्रभावित समुदाय असमंजस की स्थिति में हैं.
सोरेन सरकार पर इस मुद्दे को हल करने का बहुत दबाव है, खासकर पंचायत (अनुसूचित क्षेत्रों तक विस्तार) अधिनियम (पेसा), 1996 और वन अधिकार अधिनियम (एफआरए), 2006 को लागू करके.
ये दोनों कानून ग्राम सभाओं को भूमि, जल और वन संसाधनों को नियंत्रित करने का अधिकार देते हैं, जिससे आदिवासी समुदायों को अपने अधिकारों का दावा करने के लिए एक शक्तिशाली तंत्र मिलता है.
हालांकि, उनके महत्व के बावजूद झारखंड सरकार इन कानूनों को प्रभावी ढंग से लागू करने में विफल रही है. पेसा और एफआरए के क्रियान्वयन में देरी आदिवासी समुदायों के अधिकारों को कमजोर कर रही है, जिससे कॉरपोरेट हितों को बिना रोक-टोक काम करने का मौका मिल रहा है.
PESA और FRA
केंद्र सरकार ने पेसा को लागू करने में विफल रहने के लिए झारखंड से धन रोकने की धमकी भी दी है. लेकिन राज्य सरकार स्थानीय समुदायों के अधिकारों पर कॉरपोरेट हितों को प्राथमिकता दे रही है.
सोरेन सरकार को इन कानूनों को लागू करने के लिए तेजी से काम करना चाहिए क्योंकि ऐसा न करने पर आदिवासी समुदाय शोषण के लिए असुरक्षित हो जाएगा.
पेसा और एफआरए को लागू करके सरकार न सिर्फ स्थानीय समुदायों को सशक्त बनाएगी, बल्कि यह भी सुनिश्चित करेगी कि विकास परियोजनाएं (विशेष रूप से खनन और औद्योगिक क्षेत्रों में) प्रभावित ग्राम सभाओं की स्पष्ट सहमति के बिना आगे न बढ़ें.
यह झारखंड की आदिवासी आबादी के अधिकारों की रक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण कदम होगा. लेकिन इसके लिए सरकार को पावरफुल कॉर्पोरेट हितों को चुनौती देने की भी जरूरत होगी, जिन्होंने लंबे समय से राज्य के राजनीतिक और आर्थिक परिदृश्य पर कब्ज़ा कर रखा है.
झारखंड जैसे-जैसे आगे बढ़ रहा है, सरकार को अपने आदिवासी समुदायों की जरूरतों को कॉर्पोरेट संस्थाओं के दबावों के साथ संतुलित करना एक मुश्किल काम है.
अधिवास नीति, सरना धर्म संहिता, भूमि अधिग्रहण कानून और आदिवासी भूमि अधिकारों की सुरक्षा झारखंड के मूल निवासी समुदायों की पहचान और अस्तित्व के साथ गहराई से जुड़ी हुई है.
ऐसे सोरेन सरकार को अपने रास्ते में आने वाली कई बाधाओं के बावजूद इन अधिकारों को बनाए रखने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति का प्रदर्शन करना चाहिए.
‘अबुआ सरकार’ से ‘अबुआ राज’ तक का सफर आसान नहीं है. इसके लिए सोरेन सरकार को पावरफुल कॉरपोरेट ताकतों के सामने निर्णायक और साहसपूर्ण तरीके से काम करने की जरूरत है. साथ ही झारखंड के आदिवासी और मूल निवासी समुदायों के कल्याण के प्रति अपनी प्रतिबद्धता पर अडिग रहना होगा.
अगले पांच वर्षों में इस राजनीतिक प्रयोग की सफलता या विफलता झारखंड के शासन मॉडल और उसके आदिवासी समुदायों के अधिकारों का भविष्य निर्धारित करेगी.
अब कार्रवाई का समय आ गया है. अगर सोरेन सरकार इन चुनौतियों से निपट पाती है और अपने वादों को पूरा कर पाती है, तो वह आदिवासी अधिकारों और सामाजिक न्याय के चैंपियन के रूप में इतिहास में अपनी जगह मजबूत कर लेगी.
हालांकि, दांव ऊंचे हैं और आगे की राह अनिश्चित है. आने वाले साल यह तय करेंगे कि क्या ‘अबुआ सरकार’ वास्तव में ‘अबुआ राज’ में बदल सकती है.