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जनजातीय मंत्रालय ने राज्यों से बाघ अभयारण्यों से वनवासियों की बेदखली पर मांगी रिपोर्ट

मंत्रालय ने सहमति प्राप्त करने की प्रक्रिया और संभावित मुआवजे के बारे में भी जानकारी मांगी है.

जनजातीय मंत्रालय ने राज्यों से बाघ अभयारण्यों से वनवासियों को बेदखल करने के बारे में स्पष्टीकरण मांगा है. वन संरक्षण अधिनियम के तहत वनवासियों को अवैध बेदखली से बचाने के लिए जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने राज्यों को निर्देश दिया है कि वे कानून का अनुपालन सुनिश्चित करने के लिए एक इंस्टीट्यूशनल मैकेनिज्म बनाएं.

साथ ही मंत्रालय ने राज्यों से कहा है कि वो वनवासियों की शिकायतों को दूर करने के लिए भी एक मैकेनिज्म स्थापित करें.

मंत्रालय ने इसके लिए राज्यों को पत्र भी लिखा है. जो पिछले कुछ महीनों में कम से कम तीन राज्यों – मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र और पश्चिम बंगाल के टाइगर रिजर्व के अंदर स्थित दर्जनों गांवों से प्राप्त शिकायतों के बाद आया है.

जिसमें आरोप लगाया गया है कि निवासियों पर एफआरए और वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत उनके अधिकारों की उचित मान्यता के बिना अपनी पारंपरिक भूमि खाली करने का दबाव बनाया जा रहा है.

मंत्रालय को दिसंबर में मध्य प्रदेश के दुर्गावती टाइगर रिजर्व में 52 ग्राम सभाओं से वन अधिकारों की मान्यता न मिलने और जबरन बेदखली के प्रयासों से संबंधित शिकायत मिली थी. जिसके बाद उसने इस मुद्दे को हल करने के लिए राज्य के आदिवासी विकास विभाग को लिखा था.

साथ ही शिकायतों का संज्ञान लेते हुए जनजातीय मामलों के मंत्रालय (MoTA) ने मध्य प्रदेश सरकार को मामले की जांच करने और राज्य के वन विभागों और संबंधित जिला कलेक्टरों के परामर्श से इसे हल करने का निर्देश दिया था.

वहीं अक्टूबर में मंत्रालय ने महाराष्ट्र को ताडोबा टाइगर रिजर्व के रंतलोधी गांव से बेदखली की शिकायतों पर गौर करने का निर्देश दिया.

मंत्रालय ने राज्य के आदिवासी विकास और वन विभागों से बाघ अभयारण्यों में स्थित गांवों के नाम और संख्या का विवरण देने के लिए रिपोर्ट मांगी है. इसके अलावा, ऐसे गांवों में रहने वाली जनजातियों और वन-निवासी समुदायों को स्वीकृत और अस्वीकृत सभी वन अधिकार दावों के बारे में जानकारी दी जाएगी.

मंत्रालय ने सहमति प्राप्त करने की प्रक्रिया और संभावित मुआवजे के बारे में भी जानकारी मांगी है.

मंत्रालय ने कहा, “एफआरए के तहत प्रावधान वनवासी समुदायों को कानूनी रूप से उनके अधिकारों को मान्यता देकर उन्हें गैरकानूनी बेदखली से सुरक्षा प्रदान करके और यह सुनिश्चित करके सशक्त बनाते हैं कि कोई भी पुनर्वास उनकी सूचित सहमति और भागीदारी से किया जाए.”

मंत्रालय ने कहा कि एफआरए की धारा 4(2) सुरक्षा उपाय प्रदान करती है जो पुनर्वास के लिए ग्राम सभाओं की लिखित रूप में स्वतंत्र, सूचित सहमति प्राप्त करना अनिवार्य बनाती है. कानून उन क्षेत्रों में बसने के अधिकार भी प्रदान करता है जहां बसने का प्रस्ताव है.

यह मुद्दा पिछले साल जून में तब सुर्खियों में आया था, जब राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण ने राज्य वन विभागों से बाघ अभयारण्यों में 591 गांवों के स्थानांतरण के लिए समयसीमा मांगी थी.

प्रोजेक्ट टाइगर के अतिरिक्त वन निदेशक और राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) के सदस्य सचिव गोबिंद सागर भारद्वाज ने कहा, “जब भी एनटीसीए को बेदखली के आरोपों पर कोई पत्र (communication) प्राप्त होता है तो इसे कार्रवाई के लिए संबंधित राज्यों को भेज दिया जाता है… गांवों के स्वैच्छिक पुनर्वास पर एनटीसीए का रुख यह है कि राज्यों को मौजूदा कानूनों के अनुरूप कार्य करने का निर्देश दिया गया है.”

क्या है पूरा मामला?

ये चिंताएँ राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण (NTCA) द्वारा जून में जारी निर्देश से उपजी हैं, जिसमें बाघ अभयारण्यों से ग्रामीणों को स्थानांतरित करने का आदेश दिया गया था.

NTCA के निर्देश ने देश भर के 848 गांवों के 89,808 परिवारों को प्रभावित किया, जिसमें समयबद्ध कार्य योजनाओं के साथ “प्राथमिकता के आधार पर” उनके पुनर्वास का आह्वान किया गया.

संरक्षणवादी संगठनों के मुताबिक, अब तक 257 गांवों, जिनमें 25,007 परिवार शामिल हैं, उनको स्थानांतरित किया जा चुका है. हालांकि, 591 गांव, जिनमें 64,801 परिवार रहते हैं, अधिसूचित मुख्य क्षेत्रों में बने हुए हैं.

निर्देश का संरक्षणवादियों और कार्यकर्ताओं ने विरोध किया है, जिनका तर्क है कि इस तरह की कार्रवाइयां FRA का उल्लंघन करती हैं.

वन्यजीव संरक्षण और आदिवासी अधिकारों का संतुलन

भारत में वन्यजीव संरक्षण और आदिवासी अधिकारों के बीच संतुलन एक जटिल और बहुपरतीय विषय है. देश में बाघों की आबादी को संरक्षित करने के लिए कई बाघ अभयारण्य बनाए गए हैं.

लेकिन इन प्रयासों के कारण आदिवासी समुदायों के विस्थापन का मुद्दा गहराता जा रहा है. हाल ही में जनजातीय मंत्रालय ने राज्यों से बाघ अभयारण्यों से वनवासियों को बेदखल पर जो सफ़ाई और जानकारी मांगी है, वह औपचारिकता अधिक है.

क्योंकि आदिवासी मामलों का मंत्रालय की भूमिका इस तरह के मामलों में हद से हद एक पोस्ट ऑफिस जैसी ही होती है. इस तरह के मामलों में पर्यावरण मंत्रालय और राज्य सरकारें फ़ैसला करती हैं.

बाघ संरक्षण और आदिवासी विस्थापन

बाघ भारत की जैव विविधता और सांस्कृतिक धरोहर का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं. 1973 में ‘प्रोजेक्ट टाइगर’ की शुरुआत की गई थी, जिसका उद्देश्य बाघों की गिरती आबादी को रोकना और उनके लिए संरक्षित क्षेत्र विकसित करना था. इस परियोजना के तहत 50 से अधिक टाइगर रिजर्व बनाए गए, जहां बाघों के प्राकृतिक आवासों को सुरक्षित रखने पर जोर दिया गया.

हालांकि, इन संरक्षण प्रयासों का एक अनपेक्षित परिणाम यह हुआ कि इन संरक्षित क्षेत्रों में रहने वाले आदिवासी समुदायों को विस्थापन का सामना करना पड़ा.

आदिवासी समुदाय पारंपरिक रूप से जंगलों में रहते आए हैं और उनकी आजीविका, संस्कृति और सामाजिक संरचना गहरी रूप से जंगलों से जुड़ी हुई है. वन अधिकार अधिनियम, 2006, आदिवासियों को उनके पारंपरिक निवास स्थान पर अधिकार प्रदान करता है, लेकिन व्यवहारिक रूप से, कई बार इस अधिनियम की अनदेखी कर दी जाती है.

बाघ अभयारण्यों के विस्तार और कठोर संरक्षण नीतियों के चलते हजारों आदिवासियों को जबरन उनके घरों से बेदखल किया गया है. उदाहरण के लिए, मध्य प्रदेश के कान्हा और पन्ना टाइगर रिजर्व, महाराष्ट्र के मेलघाट और राजस्थान के रणथंभौर जैसे संरक्षित क्षेत्रों में रहने वाले वनवासियों को विस्थापन का सामना करना पड़ा है.

कई मामलों में, विस्थापित परिवारों को पर्याप्त पुनर्वास सहायता नहीं मिलती, जिससे उनकी आजीविका संकट में पड़ जाती है.

भारत में वन संरक्षण और आदिवासी अधिकारों से संबंधित कई कानून मौजूद हैं, जिनमें मुख्य रूप से वन अधिकार अधिनियम, 2006 (FRA), वन्यजीव संरक्षण अधिनियम, 1972 और पर्यावरण संरक्षण अधिनियम, 1986 शामिल हैं।

वन अधिकार अधिनियम, 2006, आदिवासी समुदायों को उनके पारंपरिक वन संसाधनों पर अधिकार प्रदान करता है. इसके बावजूद कई मामलों में, वन विभाग और अन्य प्रशासनिक एजेंसियां बाघ अभयारण्यों के अंदर रहने वाले वनवासियों को अवैध मानकर बेदखल कर देती हैं.

आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने राज्यों से कहा है कि वो वनवासियों की शिकायतों को दूर करने के लिए भी एक मैकेनिज्म स्थापित करें. लेकिन आदिवासी मामलों के मंत्रालय का यह सुझाव वर्तमान स्थिति में कोई बदलाव ला पाएगा ऐसा दावा नहीं किया जा सकता है.

इस संदर्भ में फ़रवरी 2019 के सुप्रीम कोर्ट के एक फ़ैसले का ज़िक्र करना ज़रूरी है. यह एक ऐसा फ़ैसला था जिसने एक झटके में 11 लाख परिवारों को बेघर कर दिया. 13 फरवरी को जस्टिस अरुण मिश्रा, जस्टिस नवीन सिन्हा और जस्टिस इंदिरा बनर्जी की बेंच ने 16 राज्यों के करीब 11.8 लाख आदिवासियों के जमीन पर कब्जे के दावों को खारिज कर दिया.

कोर्ट ने राज्य सरकारों को आदेश दिया था कि वे अपने कानूनों के मुताबिक जमीनें खाली कराएं. कोर्ट ने 17 राज्यों के मुख्य सचिवों को आदेश जारी कर कहा था कि वे 24 जुलाई से पहले हलफनामा दायर कर बताएं कि उन्होंने तय समय में जमीनें खाली क्यों नहीं कराईं.

शीर्ष अदालत ने विशेष रूप से 17 राज्यों के मुख्य सचिवों को निर्देश जारी किए हैं कि उन  सभी मामलों में जहां भूमि स्वामित्व के दावे खारिज कर दिए गए हैं  उन्हें12 जुलाई, 2019 तक बेदखल किया जाए. ऐसे मामलों में जहां सत्यापन/ पुन: सत्यापन/ पुनर्विचार लंबित है, राज्य को चार महीने के भीतर प्रक्रिया पूरी करनी चाहिए और एक रिपोर्ट प्रस्तुत करनी चाहिए. 

इस मामले का सबसे दुखद पक्ष यह रहा कि वन अधिकार क़ानून के तहत भूमि के पट्टे के अलग अलग राज्यों में ख़ारिज करने वाली सरकारों ने सुप्रीम कोर्ट में इस मामले पर आदिवासियों का पक्ष रखने में कोई रुचि नहीं दिखाई.

सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद जब यह लगा कि लाखों आदिवासियों का एक साथ बेघर होना सरकार के लिए ख़तरा बन सकता है, तब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट से अपने इस फ़ैसले पर रोक लगाने का आग्रह किया था.

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