सुप्रीम कोर्ट की दो जजों की बेंच ने छत्तीसगढ़ के एक ईसाई आदिवासी सुभाष बघेल के अंतिम संस्कार को लेकर आए मामले में अलग-अलग राय दी.
सोमवार को सुनवाई के दौरान जस्टिस बीवी नागरत्ना ने गांव में अंतिम संस्कार करने की अनुमति न देने के लिए ग्राम पंचायत को फटकार लगाई. दूसरी तरफ़ जस्टिस एससी शर्मा ने कहा कि अंतिम संस्कार तय किए गए ईसाई कब्रिस्तान में ही होना चाहिए.
क्या है मामला?
बीमारी के कारण रमेश बघेल के पिता सुभाष बघेल की 7 जनवरी को मृत्यु हो गई थी. सुभाष एक इसाई आदिवासी थे.
उनके गांव के लोग ईसाई धर्म अपनाने की वजह से वहां अंतिम संस्कार करने का विरोध कर रहे थे लेकिन उनके बेटे रमेश उनका अंतिम संस्कार अपने पैतृक गांव में ही करना चाहते थे. प्रशासन ने भी उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी थी. इसलिए रमेश ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की थी.
दोनों जजों की राय अलग
जहां न्यायमूर्ति नागरत्ना ने प्रस्ताव दिया कि मृतक को उसके परिवार की निजी कृषि भूमि में दफनाया जाए, वहीं न्यायमूर्ति शर्मा ने छत्तीसगढ़ उच्च न्यायालय के आदेश को बरकरार रखा, जिसमें मृतक को उसके गांव की जमीन में दफनाने की अनुमति देने से इनकार कर दिया गया था.
जस्टिस बीवी नागरत्ना ने कहा कि यह संविधान के अनुच्छेद 14 और 15 (1) का उल्लंघन है. 1. अनुच्छेद 14 सभी नागरिकों को कानून के समक्ष समानता का अधिकार देता है. इसका मतलब है कि कानून सबके लिए समान रूप से लागू होगा, चाहे उनका पद, धन, भाषा, धर्म या सामाजिक स्थिति कुछ भी हो.
अनुच्छेद 15 (1) यानि राज्य किसी भी नागरिक के साथ उसके धर्म, नस्ल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव नहीं कर सकता. ये अनुच्छेद पहचान के आधार पर प्रतिबंध लगाने से भी रोकते हैं.
उन्होंने कहा कि गांव के ईसाई समुदाय के लिए कब्रिस्तान का अलग से प्रावधान होना चाहिए. यह सभी धर्मों के बीच समानता और भाईचारे को बढ़ावा देगा.
उन्होंने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि दो महीने के भीतर सभी ईसाई समुदायों के लिए अलग कब्रिस्तान चिन्हित करें.
न्यायाधीश बीवी नागरत्ना ने यह भी कहा कि यह मामला गांव में ही सुलझ सकता था लेकिन इसे जटिल बना दिया गया.
जस्टिस एससी शर्मा ने अपनी अलग राय में कहा कि ग्राम पंचायत के नियमों के अनुसार कब्रिस्तान तय स्थान पर होना चाहिए.
उन्होंने संविधान के अनुच्छेद 21 और 25 का ज़िक्र करते हुए कहा कि सभी को अंतिम संस्कार करने का अधिकार है लेकिन यह स्थान चुनने का अधिकार बिना शर्त नहीं हो सकता.
अनुच्छेद 21 जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार देता है. इसमें सम्मानपूर्वक अंतिम संस्कार का अधिकार भी शामिल है. वहीं अनुच्छेद 25 सभी नागरिकों को अपने धर्म का पालन, प्रचार और अभ्यास करने का अधिकार देता है. लेकिन यह अधिकार सार्वजनिक व्यवस्था और नैतिकता के अधीन है.
उन्होंने राज्य को यह सुनिश्चित करने का निर्देश दिया कि बघेल परिवार को पास के करकापाल गांव के ईसाई कब्रिस्तान में अंतिम संस्कार की सुविधा दी जाए.
उन्होंने कहा कि सार्वजनिक स्वास्थ्य और शांति बनाए रखने के लिए यह ज़रूरी है.
वैधानिक नियमों के अनुसार ग्राम पंचायत नियम यह तय करते हैं कि कब्रिस्तान कहां बनाए जाएंगे.
न्यायालय का अंतिम निर्णय
सुप्रीम कोर्ट ने राज्य सरकार को निर्देश दिया कि बघेल परिवार को करकापाल के ईसाई कब्रिस्तान में अंतिम संस्कार करने के लिए मदद दी जाए. साथ ही यह भी सुनिश्चित किया जाए कि ईसाई समुदायों के लिए अलग कब्रिस्तान का प्रावधान हो.
सुप्रीम कोर्ट को आदिवासी मान्यताओं और राजनीतिकरण को समझना चाहिए था
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने एक ईसाई आदिवासी के अंतिम संस्कार पर अलग अलग राय रखते हुए भी यह कहा कि उस व्यक्ति का सम्मान के साथ दफ़नाया जाए. सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में जीवन और समानता के अधिकार का ज़िक्र किया है.
इसके साथ ही कोर्ट ने एक ज़रूरी टिप्पणी करते हुए कहा कि यह मामला गाँव में ही सुलझाया जा सकता था. लेकिन इस मामले को इतना जटिल बना दिया गया कि इसमें सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड़ा है.
इस मामले में सबसे ज़रूरी पक्ष यही है कि आख़िर यह मामला इतना ज़टिल क्यों हुआ है? इसका कारण ये है कि देश के कई राज्यों के आदिवासी इलाकों में लगातार सांप्रदायिकता फैलाने की कोशिश की जा रही है. यह मामला उसी कड़ी का हिस्सा है.
देश के ज़्यादातर आदिवासी समुदायों में शव को दफ़नाया ही जाता है. इसके लिए अलग से भूमि भी तय की जाती है और कुछ परिवार अपने घर के पास या खेत में अपने प्रियजनों को मृत्यु के बाद दफ़नाते हैं.
लेकिन ताज़ा मामले की तरह ही आजकल यह देखा जा रहा है कि ईसाई धर्म अपना चुके आदिवासियों के शवों को दफ़नाने के मामले में विवाद हो रहा है. सुप्रीम कोर्ट में जब यह मामला आया था तो यह उम्मीद की जानी चाहिए थी कि इस मामले में कोर्ट स्थानीय प्रशासन को इस मामले में एक स्पष्ट आदेश देगा कि वह इस तरह की स्थिति में सांप्रदायिक तनाव की स्थिति पैदा नहीं होने दे.
लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने जो फ़ैसला दिया है वह एक ख़ास मामले तक ही सीमित रहा है.