HomeAdivasi DailyUCC का समर्थन करने वाले भी आदिवासी समुदायों के लिए छूट की...

UCC का समर्थन करने वाले भी आदिवासी समुदायों के लिए छूट की मांग कर रहे हैं

समान नागरिक संहिता कानून को लेकर देश में चर्चा तो कई सालों से चल रही है लेकिन इसे लागू नहीं किया गया है. ये अभी 22वें विधि आयोग के पास है.

आजादी की 78वीं सालगिरह पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लाल किले से भाषण देते हुए एक बार फिर समान नागरिक संहिता (Uniform Civil Code) का जिक्र किया. पीएम मोदी ने कहा कि जो कानून धर्म के नाम पर बांटते हैं, उन्हें दूर किया जाना चाहिए.

पीएम ने यूसीसी पर बात करते हुए कहा कि अब देश को इसकी जरूरत है. लेकिन साथ ही इसका नामकरण करते हुए उन्होंने इस सेकुलर कोड बताया.

मोदी ने कहा कि हमने कम्युनल सिविल कोड में 75 साल बिताए हैं, अब हमें सेकुलर सिविल कोड की तरफ जाना होगा तभी हम धर्म के आधार पर भेदभाव से मुक्त हो सकेंगे.

कहा जा रहा है कि मोदी ने लालकिले से सेकुलर शब्द का इस्तेमाल करके एक तीर से दो निशाने साधे हैं. पहला तो यूसीसी का आधार मजबूत हुआ दूसरा विपक्ष को भी घेरने में कामयाब रहे.

वहीं पीएम मोदी ने सुप्रीम कोर्ट के आदेशों का उल्लेख किया और इस विषय पर देश में गंभीर चर्चा की जरूरत पर बल दिया.

प्रधानमंत्री मोदी ने कहा, ‘हमारे देश में सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार यूसीसी को लेकर चर्चा की है. अनेक बार आदेश दिए हैं. क्योंकि देश का एक बहुत बड़ा वर्ग मानता है कि जिस सिविल कोड को लेकर हम जी रहे हैं, वो सचमुच में एक कम्युनल और भेदभाव करने वाला है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘मैं चाहता हूं की इस गंभीर विषय पर व्यापक चर्चा हो, हर कोई अपने विचार लेकर आए. जो कानून देश को धर्म के आधार पर बांट दे, समाज में ऊंच-नीच का कारण बन जाए, ऐसे कानून का समाज में कोई स्थान नहीं है और इसलिए मैं तो कहूंगा और समाज की मांग है कि देश में एक सेकुलर सिविल कोड होना चाहिए.’

पीएम मोदी द्वारा यूसीसी के मुद्दे को उठाना, जिसे अब “धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता” कहा जाता है…अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण और अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद संघ परिवार के तीसरे बड़े मुख्य मुद्दे को पूरा करने के उनके प्रयास के रूप में देखा जा सकता है.

लेकिन भारतीय जनता पार्टी (BJP) के भीतर भी यह कदम जटिलताओं के बिना नहीं होगा.

मोदी सरकार ने अतीत में विधि आयोग से समान नागरिक संहिता की व्यवहार्यता का अध्ययन करने के लिए कहा है और इस उपाय को लागू करने की अपनी इच्छा के बारे में सभी उचित आवाज़ें उठाई हैं.

हालांकि, राजनीतिक रूप से इसे आदिवासी अपवादवाद के मुद्दे का सामना करना पड़ा, जिसे न सिर्फ भाजपा शासित राज्यों द्वारा बल्कि पूरे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) द्वारा आगे बढ़ाया गया.

जब यूसीसी का मुद्दा विधि एवं न्याय पर संसदीय स्थायी समिति के समक्ष आया तो दिवंगत भाजपा नेता सुशील कुमार मोदी ने घोषणा की थी कि यूसीसी आदिवासी समुदायों पर लागू नहीं होनी चाहिए. आदिवासियों को संविधान की पांचवीं और छठी अनुसूची का सम्मान करते हुए इसके दायरे से बाहर रखा जाना चाहिए.

यहां तक ​​कि यूसीसी लागू करने वाला दूसरा भारतीय राज्य उत्तराखंड और 3 से 4 फीसदी अनुसूचित जनजाति आबादी वाले राज्य ने भी आदिवासी समुदायों को अपने यूसीसी कानून के दायरे से बाहर रखा है.

इस साल मई में द हिंदू को दिए एक इंटरव्यू में असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने आदिवासी समुदायों को यूसीसी से बाहर रखने को उचित ठहराया था.

उन्होंने कहा था, “आदिवासियों के कुछ ऐतिहासिक रीति-रिवाज, परंपराएं हैं और हमें उनकी रक्षा करने की जरूरत है. ये कुछ शास्त्रों के कारण नहीं बल्कि पारंपरिक जीवन जीने के तरीके के कारण हैं. हमें उनका सम्मान करने की जरूरत है और इसकी तुलना कुछ धार्मिक अनुष्ठानों से नहीं की जा सकती जो उस धर्म के लिए मौलिक नहीं हैं.”

दरअसल, नरेंद्र मोदी सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान भाजपा शासित राज्यों को राज्यवार समान नागरिक संहिता लागू करने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा था, जिसमें उत्तराखंड सबसे पहले आगे आया. वहीं गुजरात और असम सहित अन्य राज्यों ने घोषणा की कि वे राज्य-विशिष्ट समान नागरिक संहिता लागू करने के तरीके और साधन तलाश रहे हैं.

भाजपा ने 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए अपने घोषणापत्र के एक प्रमुख हिस्से के रूप में समान नागरिक संहिता का उल्लेख किया और पीएम मोदी द्वारा “धर्मनिरपेक्ष नागरिक संहिता” के लिए घोषित इरादे को उनकी पार्टी के लिए एक संकेत के रूप में देखा जाता है कि वह अभी भी उस पर कायम हैं.

UCC और आदिवासी

यूसीसी को लेकर आदिवासी समाज के डर की सूची में सबसे ऊपर अपने कड़ी मेहनत से लड़े गए भूमि अधिकारों को खोना है. इसके बाद विवाह, विरासत और बच्चे को गोद लेने की उनकी आदिवासी सांस्कृतिक प्रथाएं आती हैं.

आदिवासी समाज के भीतर प्रथागत कानूनों द्वारा शासित एक विशिष्ट न्यायिक प्रणाली मौजूद है. इसके अलावा अनुसूचित क्षेत्रों में पंचायत विस्तार (PESA) अधिनियम 1996 उन्हें विशेष संवैधानिक अधिकार प्रदान करता है.

पूर्वोत्तर में जनजातीयों के परंपरागत तरीके से चली आ रही कई प्रथागत कानूनों की सुरक्षा की गारंटी भारत के संविधान के तहत दी गई है. देश के पूर्वोत्तर राज्यों में करीब 220 से अधिक विभिन्न जातीय समूह निवास करते हैं और इसे दुनिया के सांस्कृतिक रूप से सबसे विविध क्षेत्रों में से एक माना जाता है.

जनजातीय समूहों के बीच उत्तराधिकार प्रथाओं में कोई एकरूपता नहीं है. पूर्वोत्तर में कुछ लोग मातृसत्तात्मक रीति-रिवाजों का पालन करते हैं लेकिन झारखंड में संपत्ति पुरुष उत्तराधिकारियों को दे दी जाती है. इसलिए आदिवासियों पर यूनिफॉर्म सिविल कोड को लागू करना आसान नहीं है.

सेकुलर सिविल कोड की बात क्यों?

दरअसल, समान नागरिक संहिता का मुद्दा मोदी सरकार के टॉप एजेंडे में रहा है. बीजेपी ने अपने चुनावी घोषणा पत्र में राम मंदिर का मुद्दा, कश्मीर से 370 हटाना के अलावा यूसीसी भी शामिल था. जिसमें से दो मुद्दे पूरे हो चुके हैं और यूसीसी को लागू करना बाकी है.

अगर एक लाइन में समझा जाए तो कहा जा सकता है कि यूनिफॉर्म सिविल कोड या समान नागरिक संहिता यानी सभी धर्मों के लिए एक ही कानून. आसान भाषा में कहें तो एक देश-एक कानून. अभी शादी, तलाक, गोद लेने के नियम, उत्तराधिकारी, संपत्तियों से जुड़े मामलों के लिए सभी धर्मों में अलग-अलग कानून हैं.

समान नागरिक संहिता आती है तो फिर सभी के लिए एक ही कानून होगा, फिर चाहे वो किसी भी धर्म या जाति का ही क्यों न हो.

UCC को लेकर संविधान क्या कहता है?

समान नागरिक संहिता को लेकर भारत के संविधान में भी देश के सभी नागरिकों के लिए एक समान कानून की बात कही गई है. इसका अनुच्छेद 44 नीति निर्देशों से संबंधित है, जिसका उद्देश्य संविधान की प्रस्तावना में दिए गए धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक गठराज्य के सिद्धांत का पालन करना है. अनुच्छेद 44 में कहा गया है कि सभी नागरिकों के लिए यूसीसी बनाना सरकार का दायित्व है.

परेशानी कहां है?

2018 में विधि आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था कि समान नागरिक संहिता पर कोई आम सहमति नहीं होने के कारण पर्सनल लॉ में ही थोड़े सुधार करने की जरूरत है.

आयोग ने कहा था कि इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि पर्सनल लॉ की आड़ में मौलिक अधिकारों का हनन तो नहीं हो रहा है और इसे दूर करने के लिए कानूनों में बदलाव करना चाहिए.

फिलहाल समान नागरिक संहिता का मामला 22वें विधि आयोग के पास है. विधि आयोग ने पिछली साल इस पर आम जनता से राय भी मांगी थी.

हालांकि, जानकार मानते हैं कि समान नागरिक संहिता को लागू करना बेहद मुश्किल है. वो सिर्फ इसलिए नहीं क्योंकि सभी धर्मों के अपने अलग-अलग कानून हैं बल्कि इसलिए भी क्योंकि हर धर्म के जगह के हिसाब से भी अलग-अलग कानून हैं.

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Most Popular

Recent Comments