कर्नाटक के वन अधिकारियों के सामने एक कठिन समस्या खड़ी हो गई है. उन्हें यह तय करना है कि जंगल बचाने के लिए आदिवासियों को उनके इलाकों से हटाया जाए या उनके अधिकारों की रक्षा करने के लिए जंगल में ही सभी सुविधाएं उपलब्ध करवाई जाए.
क्या है मामला?
भारत में वन अधिकार अधिनियम 2006 के तहत जंगलों में रहने वाले आदिवासियों को कई अधिकार दिए गए हैं. बीते दशकों में आदिवासियों के साथ हो रहे अन्याय को देखते हुए 1 जनवरी 2008 से यह कानून लागू किया गया.
दूसरी ओर, नेशनल टाइगर कंजर्वेशन अथॉरिटी (NTCA) और पर्यावरण मंत्रालय ने सभी राज्यों को निर्देश दिया है कि जहां जरूरी हो वहां आदिवासियों को जंगलों से बाहर बसाया जाए.
दोनों पक्षों को ध्यान में रखते हुए किसी फैसले पर पहुंचना राज्य वन अधिकारियों के लिए काफ़ी दुविधापूर्ण है.
क्या कह रही है सरकार?
नवंबर 2024 में हुई एक समीक्षा बैठक में कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने निर्देश दिया कि जंगलों के किनारे रहने वाले आदिवासियों को सड़क, बिजली, पानी, शौचालय, स्कूल और गरीबी रेखा से नीचे (BPL) कार्ड जैसी सुविधाएं दी जाएं.
इसके अलावा, सरकार ने आदिवासियों को पुनर्वास के लिए मुआवजा भी बढ़ाकर 10 लाख से 15 लाख रुपये कर दिया है. साथ में खेती की जमीन और पक्के मकान देने का वादा भी किया गया.
वन अधिकारियों की दुविधा
वन अधिकारियों का कहना है कि आदिवासियों को जंगल के अंदर सुविधाएं देने से वन्यजीवों को नुकसान हो सकता है.
बिजली के तार बिछाने से हाथियों की मौत के मामले बढ़े हैं. साथ ही जंगलों में लौटने वाले आदिवासियों की वजह से इंसान और जानवरों के बीच संघर्ष के मामले भी बढ़ रहे हैं.
दूसरी तरफ कुछ जनप्रतिनिधियों ने अधिकारियों को धमकी दी है कि अगर वे आदिवासियों को ये सुविधाएं नहीं देंगे तो उनके खिलाफ कार्रवाई की जाएगी. ऐसे में वन अधिकारी दुविधा में हैं कि वे क्या करें.
विशेषज्ञों का क्या कहना है?
विशेषज्ञों का मानना है कि जंगलों के अंदर सुविधाएं देने से पर्यावरण को नुकसान होगा. आदिवासियों को जंगल से बाहर बसाने के बजाय उन्हें जंगलों के अंदर ही ऐसा रोजगार दिया जाए जिससे जंगलों को नुकसान न हो.
समाधान की जरूरत
कर्नाटक सरकार को इस मुद्दे पर स्पष्ट नीति बनानी होगी. यह जरूरी है कि जंगल और आदिवासी दोनों का संरक्षण किया जाए. आदिवासी समुदायों को उनके अधिकार मिले और साथ ही जंगलों की जैव विविधता भी बची रहे.
यह मुद्दा सिर्फ कर्नाटक का नहीं है बल्कि पूरे देश का है. पर्यावरण और सामाजिक न्याय के बीच संतुलन बनाना जरूरी है. इसके लिए सरकार, वन अधिकारी, पर्यावरणविद और आदिवासी समुदायों को मिलकर काम करना होगा.