HomeAdivasi Dailyगुजरात चुनाव में आदिवासी वोट निर्णायक साबित हो सकते हैं

गुजरात चुनाव में आदिवासी वोट निर्णायक साबित हो सकते हैं

हाल के विधानसभा चुनावों में, बीजेपी और कांग्रेस आदिवासी बहुल मतदाताओं वाली सीटों पर पहले स्थान पर रहे. लेकिन अब जब राज्य में मुकाबले के लिए तीसरी पार्टी यानि आप सामने है तो देखना दिलचस्प होगा कि कौन बाजी मारता है.

गुजरात विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद से बीजेपी, कांग्रेस और आम आदमी पार्टी के नेता राज्य के आदिवासी इलाकों में सक्रिय रूप से प्रचार कर रहे हैं. वैसे तो यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि बीजेपी न सिर्फ राज्य में विधानसभा चुनावों के लिए बल्कि अगले लोकसभा चुनावों के लिए भी आदिवासियों पर बहुत अधिक निर्भर है.

वहीं बीजेपी द्वारा भारत के राष्ट्रपति के रूप में द्रौपदी मुर्मू का चुनाव लंबे समय से लंबित आदिवासी प्रतिनिधित्व को मुख्यधारा में लाने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है. यह निस्संदेह भगवा पार्टी द्वारा उन लोगों को जीतने का प्रयास भी है जो उनके समर्थक नहीं रहे हैं.

राज्य में आदिवासी आबादी का दबदबा

इस बार, जब सभी तीन प्रमुख राजनीतिक दल गुजरात में बहुमत के लिए संघर्ष कर रहे हैं तो कोई भी राज्य की आबादी के 15 प्रतिशत से अधिक की उपेक्षा नहीं कर सकता है. और ये 15 प्रतिशत आबादी है आदिवासियों की जिनमें गुजरात के चुनावी भाग्य को महत्वपूर्ण रूप से प्रभावित करने की क्षमता है.

यह समुदाय जिस भी पार्टी की तरफ घूमेगा उससे राज्य के सियासी समीकरण बदल सकते हैं. वैसे तो आदिवासी कांग्रेस के परंपरागत वोटर माने जाते हैं लेकिन राज्य में हुए लोकसभा और विधानसभा के पिछले कुछ चुनावों में यह वोट वैंक कांग्रेस से छिटका है. 2019 के लोकसभा चुनाव में आदिवासी समुदाय ने बीजेपी को 50 फीसदी से ज्यादा वोट दिया था. इस समुदाय की बड़ी आबादी गुजरात के पूर्वी जिलों में रहती है. लेकिन अब जब राज्य में मुकाबले के लिए तीसरी पार्टी यानि आप सामने है तो देखना दिलचस्प होगा कि कौन बाजी मारता है.

आदिवासी बाहुल्य वाले जिलों में डांग में 95 फीसदी, तापी 84 फीसदी, नर्मदा 82 फीसदी, दाहोद 74 फीसदी, वलसाड 53 फीसदी, नवसारी 48 फीसदी, भरुच 31 फीसदी, पंचमहल 30 फीसदी, वडोदरा 28 फीसदी और सबारकांठा में 22 फीसदी हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक गुजरात में 89.1 लाख आदिवासी हैं, जो राज्य की कुल आबादी का 15 फीसदी बैठती है.

नि:संदेह गुजरात में बीजेपी का बहुत मजबूत जनाधार है. लेकिन यह देखते हुए कि आदिवासी जातीय समूह राज्य की आबादी का एक-सातवां हिस्सा बनाते हैं. ऐसे में आप ने भी आदिवासी वोटों को लक्षित करने के लिए चुना है और वो राज्य में लगातार बीजेपी को मुकाबला दे रहे हैं.

हाल ही में, गुजरात में एक अभियान के दौरान आम आदमी पार्टी के संयोजक, अरविंद केजरीवाल ने उपेक्षित आदिवासी आबादी से वादा किया कि अगर उनकी पार्टी सत्ता में आती है तो वह गुजरात के आदिवासी क्षेत्रों में संविधान की पांचवीं अनुसूची और पेसा एक्ट को लागू करेगी.

पूर्ण संख्या के संदर्भ में गुजरात में भारत में अनुसूचित जनजातियों की पांचवीं सबसे बड़ी आबादी है. जनगणना के अनुसार, वे राज्य की आबादी का एक-सातवां हिस्सा हैं और ज्यादातर राजस्थान और महाराष्ट्र के करीब पूर्वी क्षेत्रों में स्थित हैं. राज्य की एसटी आबादी का एक बड़ा हिस्सा बारह प्रमुख जनजातियों से बना है.

ज्यादातर आदिवासी समुदाय ग्रामीण गुजरात में रहते हैं, जहां वे आबादी का पांचवां हिस्सा बनाते हैं. अर्ध-शहरी क्षेत्रों में यह संख्या आधी हो जाती है और महानगरीय क्षेत्रों में सिर्फ 2 प्रतिशत लोग रहते हैं.

जहां तक ​​राज्य में आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षण की बात है तो उनके लिए 27 सीटें आरक्षित हैं. लेकिन दिलचस्प बात यह है कि आदिवासी महज इन आरक्षित 27 सीटों तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि इनका दबदबा 35 से 45 सीटों पर माना जाता है. गुजरात की 47 सीटें ऐसी हैं जहां आदिवासी आबादी 10 फीसदी से अधिक है. वहीं 40 विधानसभा सीटों पर 20 फीसदी से अधिक. जबकि 31 विधानसभा सीटों पर 30 फीसदी से ज्यादा एसटी लोग रहते हैं.

पिछले विधानसभा चुनाव में आदिवासी समुदाय ने कांग्रेस पर ज्यादा भरोसा जताया था. कांग्रेस को इन आरक्षित 27 सीटों में से 15 सीटों पर जीत हासिल हुई थी, जबकि बीजेपी को 8 सीटों पर जीत मिली थी और बीटीपी ने 2 सीटें जीती थीं, वहीं एक सीट निर्दलीय के खाते में गई थी.

आदिवासियों को लुभाने की कोशिश

गुजरात के आदिवासी बहुल दाहोद इलाके में पीएम नरेंद्र मोदी ने इस साल अप्रैल में एक कार्यक्रम में शिरकत की थी. राज्य के आदिवासियों के कल्याण के लिए गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में अपने खुद के प्रयासों पर जोर देने के अलावा, एक भीड़ को संबोधित करते हुए आदिवासी जैकेट पहने हुए पीएम मोदी ने महान स्वतंत्रता सेनानी बिरसा मुंडा और अन्य आदिवासी नायकों के बारे में बात की.

बीजेपी न सिर्फ गुजरात बल्कि हिमाचल प्रदेश में भी अनुसूचित जनजातियों का समर्थन हासिल करने का प्रयास कर रही है. राज्य में विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले ही हिमाचल प्रदेश के हाटी समुदाय को केंद्र की बीजेपी सरकार से “जनजाति” का दर्जा मिला था.

गुजरात में बीजेपी 1995 से सत्ता में है. लेकिन स्वाभाविक रूप से अधिक आदिवासी आबादी वाले स्थानों में पार्टी का प्रदर्शन खराब रहा है. हालांकि, 1980 के दशक तक बीजेपी ने एसटी-आरक्षित सीटों पर लगभग 60 प्रतिशत वोट प्राप्त किए. जब 1990 के विधानसभा चुनाव में गुजरात की उन आरक्षित सीटों में कांग्रेस की हिस्सेदारी घटकर 36 प्रतिशत रह गई, तो यह परिपाटी समाप्त हो गई.

उल्लेखनीय बात यह है कि ढाई दशक से सत्ता से बाहर रहने के बावजूद कांग्रेस पार्टी गुजरात में अपना एसटी आधार बनाए रखने में सफल रही है. दूसरी ओर बीजेपी ने 2019 में एसटी-आरक्षित सीटों पर 52 फीसदी वोट हासिल किए थे.

बीजेपी ने 2012 के विधानसभा चुनाव से 2017 तक इन आरक्षित सीटों पर अपने समर्थन में 5 प्रतिशत की वृद्धि की, जब उसे 1990 के बाद पहली बार गंभीर विरोधी लहर का सामना करना पड़ा. भले ही एसटी-आरक्षित जिलों में वोट शेयर में वृद्धि हुई हो लेकिन बीजेपी जीती गई सीटों के मामले में अभी भी कांग्रेस से पीछे है. पिछले तीन विधानसभा चुनावों में आरक्षित सीटों पर कांग्रेस ने बीजेपी को मात दी थी. 2017 के विधानसभा चुनावों में राज्य में आदिवासी वोट वरीयता के मामले में बीजेपी और कांग्रेस आमने-सामने थे.

इस चुनाव में क्या अलग है

2017 के विधान सभा चुनाव में आदिवासी इलाक़ों में कांग्रेस के अलावा बीटीपी यानि भारतीय ट्राइबल पार्टी को दो सीटें हासिल हुई थीं. इस पार्टी के दो बड़े नेता छोटु भाई वसावा और महेश भाई वसावा विधायक चुने गए थे.

पार्टी की इस जीत के बाद यह उम्मीद जताई जाने लगी थी कि अब आदिवासी अपनी स्वतंत्र राजनीतिक उपस्थिति चाहते हैं. भारतीय ट्राइबल पार्टी ने ज़ोर शोर से यह प्रचार किया था कि राष्ट्रीय पार्टियों में जो आदिवासी नेता हैं वे अपनी बात नहीं रख पाते हैं.

इस चुनाव में भारतीय ट्राइबल पार्टी के कम से कम 25 उम्मीदवार मैदान में हैं. लेकिन उसके लिए हालात अच्छे नहीं हैं. उनके राष्ट्रीय अध्यक्ष महेश वसावा को चुनाव नहीं लड़ने का फ़ैसला लेना पड़ा.

क्योंकि विधान सभा चुनाव से पहले पंचायत चुनावों में यह साफ़ हो चुका था कि भारतीय ट्राइबल पार्टी से लोग नाराज़ हैं. इसलिए महेश भाई वसावा ने चुनाव में अपने विधान सभा क्षेत्र डेडियापाड़ा से कदम पीछे खींच लिए थे.

गुजरात की राजनीति में एक उम्मीद बन कर उभरी भारतीय ट्राइबल पार्टी बेहद कमज़ोर नज़र आ रही है. क्योंकि उसके प्रमुख नेता और कार्यकर्ता पार्टी छोड़ चुके हैं.

उनमें से ज़्यादातर नेताओं और कार्यकर्ताओं ने आम आदमी पार्टी का दामन थाम लिया है.

जबकि आम आदमी पार्टी का प्रदर्शन अभी तक ज्ञात नहीं है, जब एसटी की आरक्षित सीटों की बात आती है तो कांग्रेस का अधिक दबदबा रहा है. जनजातीय क्षेत्रों में बीजेपी की व्यापक पहुंच का प्रभाव चुनावों में देखा जाना बाकी है.

आदिवासी वोटों से तय होगा प्रदेश का भविष्य गुजरात के आदिवासी इलाकों में कांग्रेस को लगातार बहुमत मिला है लेकिन बीजेपी ने लगातार अपनी संभावनाएं बढ़ाई हैं.

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