केरल हाई कोर्ट के आदेश के बाद 9 नवंबर को जिला कानूनी सेवा प्राधिकरण (डीएलएसए) सचिव और जज एम. शब्बीर इब्राहिम (M. Shabir Ibrahim) मरून आदिवासी बस्तियों (Maroon Adivasi hamlets ) में जांच के लिए गए थे.
यहां 300 आदिवासी परिवार रहते हैं. यहां तक पहुंचने के लिए जज को पहले नदी के ऊपर बने बांस की पुलिया को पार करना पड़ा.
कुछ समय पहले केरल प्रदेश कांग्रेस कमेटी (केपीसीसी) के महासचिव आर्यदान शौकत (Aryadan Shoukath ) और वानियामपुझा गांव से वाना समरक्षा समिति के पूर्व सदस्य वी.के. सुधा (V.K. Sudha) ने याचिका दायर की थी.
इस याचिका में उन्होंने अदालत को बताया था कि यहां रहने वाले 300 से अधिक आदिवासी परिवारों की स्थिति काफी दयनीय है. इसलिए कोर्ट को इस मामले में हस्तक्षेप करना चाहिए जिससे आदिवासियों को कम से कम बुनियादी सुविधाएं मिल सकें.
इस इलाके में 2019 में आई बाढ़ की वजह से पुल टूट गया था. जिसके बाद से यहां के लोगों को काफी समस्याएं आई.
इस याचिका के बाद जज एम. शब्बीर इब्राहिम ने यहां की बास्तियों की जांच कर रिपोर्ट हाई कोर्ट को सौंपी थी. जिसके बाद हाई कोर्ट ने सरकार को यह आदेश दिया की इन बस्तियों में शौचालय और पेयजल की सुविधा दी जाएं.
लेकिन सरकार द्वारा हाई कोर्ट के आदेश का पूरी तरह से पालान नहीं किया गया. जब इसका जवाब मांगा गया तो एकीकृत जनजातीय विकास कार्यक्रम (आईटीडीपी) के जिला अधिकारी के.एस. श्रीरेखा ने हलफ़नामा देते हुए अदालत को बताया कि उन्होंने अभी तक तीन शौचालय इस बस्ती में बनवाये हैं. इसके अलावपा पीने के पानी की सुविधा भी दी गई है.
सरकारी अधिकारी ने ये भी बताया की इरूटुकुथी गाँव में रहने वाले 35 परिवारों के पास घर मौजूद है. इनमें से जिनके भी घर बाढ़ के कारण टूट गए थे. उनके घर लाइव स्कीम के तहत ठीक करवा दिए गए थे.
लेकिन शौकत के वकील द्वारा सरकार के इस हलफ़नामे पर सवाल उठाए गए . जिसके बाद मुख्य न्यायधीश ने डीएलएसए को यह आदेश दिया की चार हफ्ते के भीतर वह बस्तियों की जांच के बाद एक नई रिपोर्ट पेश करें.
इस जांच में जो तथ्य सामने आए हैं उनके अनुसार आदिवासी बस्तियों में सरकारी ऐंजेसियों ने कुछ काम ज़रूरी किया है. लेकिन अदलात में जो दावे सरकारी अधिकारियों ने किये हैं वे सही नहीं हैं.
मसलन लोगों ने जांच के दौरान ये बताया की वो आज भी झरनों से मिलने वाला पानी पीते हैं. जबकि झरनों से मिलने वाला पानी पीने के लायक नहीं है.
अदलात के सामने एक बार फिर यह रिपोर्ट आई है कि स्थानीय प्रशासन आदिवासी बस्तियों में मूलभूत सुविधाओं के मामले में गंभीर नहीं रहते हैं. कम से कम अब यह उम्मीद की जानी चाहिए की हाईकोर्ट की निगरानी के दबाव में ही सही यहां की आदिवासी बस्तियों पीने का पानी और शौचालय जैसी मूलभूत सुविधाएं उपलब्ध करा दी जाएँगी.