ओडिशा के नबरंगपुर जिले के सिउनागुडा गांव में अपने परिवार के सदस्य को दफनाने के लिए चार आदिवासी ईसाइयों को हिंदू धर्म अपनाने के लिए मजबूर किया गया.
यह बात ओडिशा के बालासोर में समुदाय के नेताओं और ग्रामीणों से बातचीत के आधार पर वकीलों की छह सदस्यीय फैक्ट-फाइंडिंग टीम ने कही है.
इस फैक्ट-फाइंडिंग रिपोर्ट में कहा गया, घटनाओं की एक विचित्र कहानी में चार ईसाइयों को अपने परिवार के सदस्य, 70 वर्षीय श्री केसब सांता को दफनाने के लिए हिंदू बनने के लिए मजबूर किया गया.
सिउनागुडा गांव में हिंदू ग्रामीणों ने शवों को दफनाने की इस शर्त पर जोर दिया.
दरअसल, 2 मार्च 2025 को केसब सांता की मृत्यु हो गई थी. गांव में 30 हिंदू परिवारों में 3 ईसाई परिवार थे.
क्लारा डिसूजा, सुजाता जेना, गीतांजलि सेनापति, सोफिया मरियम, बाल्थाजार और अजय कुमार सिंह की टीम ने 15 मार्च को ग्रामीणों के बयान दर्ज किए.
जिसमें बालासोर जिले के रायबनिया पुलिस थाने के अंतर्गत दफनाने से इनकार करने, धार्मिक समारोह और गांव के समुदाय द्वारा बहिष्कार की धमकी सहित कई तरह के आरोपों पर बात की गई.
वकीलों की फैक्ट-फाइंडिंग टीम के मुताबिक, यह घटनाक्रम 18 दिसंबर, 2024 को हुई एक घटना से उत्पन्न अशांति के बाद हुआ. जब सरना माझी के बैनर तले एक भीड़ ने स्थानीय संथाल आदिवासी ईसाई बुधिया मुर्मू को दफनाने से रोक दिया था.
फैक्ट फ़ाइंडिंग टीम की रिपोर्ट में कहा गया है, “तनाव और बहस के बीच शवों को दफ़नाने में 12 घंटे से ज़्यादा का समय लग गया. आदिवासी ईसाई पहली बार अपने रिश्तेदारों को दफ़नाने के लिए अपने साथी आदिवासियों से इस तरह की धमकियां और डर देखकर हैरान रह गए. दफ़नाने का मुद्दा आगे चलकर धमकियों और बहिष्कारों की एक सीरीज में बदल गया.”
इसके बाद 23 दिसंबर को स्थानीय पुलिस ने पैरिश चर्च का दौरा किया और उनके खिलाफ शिकायतों के आधार पर उस पादरी की तलाश की, जिसने दफ़न संस्कार करवाया था. पुलिस ने शिकायत के बारे में बताए बिना पादरी से जाति प्रमाण पत्र दिखाने और पुलिस स्टेशन आने को कहा.
इस रिपोर्ट में कहा गया है, “पुजारी को अभी तक शिकायतों की विषय-वस्तु के बारे में पता नहीं है और न ही उन्हें कोई शिकायत मिली है.”
इसके बाद कई घटनाएं हुईं, जिसमें पुलिस और मजिस्ट्रेट कोर्ट द्वारा झड़प में शामिल दो समूहों को समन भेजना शामिल है. लेकिन इसका कोई हल नहीं निकला.
तहसीलदार के निर्देश पर इन समूहों की बैठक भी हुई, जहां माझी परगना ने इस बात पर जोर दिया कि “संविधान के अनुसार ईसाई आदिवासियों को कब्रिस्तान का अधिकार नहीं है.”
नतीजतन कोई आम सहमति नहीं बन पाई और मुद्दा अनसुलझा ही रह गया.
इसके बीच, 28 दिसंबर को बुधिया मुर्मू का शुद्धि अनुष्ठान पुलिस की मौजूदगी में आयोजित किया गया क्योंकि उपद्रवियों ने इसे बाधित करने की कोशिश की थी.
इस बीच, माझी परगना समूह द्वारा पड़ोसी गांव में प्रार्थना सेवाओं को बाधित कर दिया गया. दुधिया खाली के ग्रामीणों ने बालासोर जिले के रायबनिया पुलिस स्टेशन के तहत शिकायत दर्ज कराई.
इस अभियान को बढ़ाने में मीडिया की भूमिका पर प्रकाश डालते हुए रिपोर्ट में कहा गया है कि कुछ स्थानीय समाचार पत्रों ने ईसाई आदिवासियों के खिलाफ घृणा अभियान को बढ़ाने में खलनायक की भूमिका निभाई.
आदिवासी ईसाइयों को स्थानीय पुलिस, तहसीलदार और कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा बुलाए गए अधिकारियों से हर बार मिलना पड़ता था. हालांकि, माझी परगन के उपद्रवी तत्व मतभेदों को सुलझाने के लिए कार्यकारी मजिस्ट्रेट द्वारा आदेशित एक बैठक को छोड़कर किसी भी बैठक में शामिल नहीं हुए.
हालांकि, कुछ स्थानीय समाचार पत्रों में दो महीने में कई लेखों में तथ्यों को गलत तरीके से प्रस्तुत करने से समूह का हौसला बढ़ गया, जिसमें आरोप लगाया गया कि ईसाई आदिवासी एक निश्चित धर्म को अपनाकर पारंपरिक आदिवासी संस्कृति को नष्ट कर रहे हैं.
रिपोर्ट में आगे कहा गया है कि आदिवासी ईसाइयों ने तीसरी पीढ़ी से पहले ईसाई धर्म अपना लिया था. फिर भी कुछ समाचार पत्र नियमित रूप से विवाद को बढ़ावा देते हैं क्योंकि हर बार जब क्षेत्र में प्रार्थना सेवा आयोजित की जाती है तो नए लोग धर्मांतरित हो जाते हैं.
इस मामले में फैक्ट फ़ाइंडिंग टीम ने सुप्रीम कोर्ट के छत्तीसगढ़ में एक ईसाई पादरी के शव को दफनाने के विवाद में खंडित फैसले का भी ज़िक्र किया है.
इस टीम का मानना है कि सुप्रीम कोर्ट के उस फ़ैसले का असर भी शायद इस घटना का एक कारण हो सकता है.
सुप्रीम कोर्ट ने छत्तीसगढ़ में एक ईसाई पादरी के मामले में एक बंटा हुआ फैसला सुनाया था. इस पादरी का निधन 7 जनवरी को हुआ था, और उनका शव तब से शवगृह में रखा था.
न्यायमूर्ति बी.वी. नागरत्ना और न्यायमूर्ति सतीश चंद्र शर्मा की पीठ में इस मामले पर मतभेद था. न्यायमूर्ति नागरत्ना ने पादरी को उनकी निजी कृषि भूमि पर दफनाने की अनुमति दी थी.
जबकि न्यायमूर्ति शर्मा ने कहा कि शव को केवल ईसाइयों के लिए निर्दिष्ट क्षेत्र में ही दफनाया जा सकता है. यह क़ब्रिस्तान उनके पैतृक गांव छिंदवाड़ा से लगभग 20-25 किलोमीटर दूर करकपाल नाम के गांव में स्थिति है.
सुप्रीम कोर्ट बेंच के बीच मतभेद के बावजूद, पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 142 के तहत निर्देश जारी किया कि पादरी के शव को करकापाल गांव के ईसाई कब्रिस्तान में दफनाया जाए.
राज्य सरकार और स्थानीय प्राधिकरण को निर्देश दिया गया कि वे शव को शवगृह से करकापाल गांव तक स्थानांतरित करने में परिवार की सहायता करें और पर्याप्त पुलिस सुरक्षा प्रदान करें.
इस निर्णय से पहले, सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा था कि यह दुखद है कि राज्य सरकार और उच्च न्यायालय इस मुद्दे का समाधान नहीं कर सके, जिससे परिवार को सर्वोच्च न्यायालय का रुख करना पड़ा.
फैक्ट-फाइंडिंग टीम ने राज्य से समाज के सभी वर्गों के बीच शांति और सांप्रदायिक सद्भाव को बढ़ावा देने और विशेष रूप से धार्मिक अल्पसंख्यकों को समानता और गैर-भेदभाव का आश्वासन देने का आग्रह किया है.
इस टीम ने जिला प्रशासन से जाति और पंथ के नाम पर विभाजन पैदा करने वाले असामाजिक तत्वों पर नज़र रखने, गलत सूचना फैलाने वाले और गलत सूचना प्रकाशित करके समुदायों के बीच दुर्भावना पैदा करने वाले स्थानीय समाचार पत्रों पर नज़र रखने का भी आग्रह किया है.
इसके साथ ही इस फैक्ट फ़ाइंडिंग टीम ने यह भी कहा है कि मतभेदों को सुलझाने के लिए समुदायों के बीच निरंतर संवाद की ज़रूरत है.
देश के अलग अलग राज्यों में दक्षिणपंथी संगठन आदिवासी इलाकों में धर्म परिवर्तन को लगातार मुद्दा बनाते रहे हैं. पिछले कुछ सालों में RSS से जुड़े संगठनों ने डीलिस्टिंग नाम से एक आंदोलन चलाया है.
इस आंदोलन में मांग की जा रही है कि जो आदिवासी धर्म परिवर्तन कर चुके हैं उन्हें अनुसूचित जनजाति की सूचि से बाहर किया जाना चाहिए.
इस आंदोलन ने भी आदिवासी समाज की एकता को नुकसान पहुंचाया है.