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कहीं एंबुलेंस नहीं है, तो कहीं उसे चलाने के लिए पैसे नहीं, अंत में मारा तो आदिवासी ही जाता है

आदिवासियों और दूसरे ग़रीब लोगों की शिकायत है कि कुछ एम्बुलेंस चालक और पीएचसी डॉक्टर उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं, और जब वो एमरजेंसी में उनसे मदद मांगते हैं तो अक्सर उन्हें सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिलती.

तेलंगाना के अंदरूनी और एजेंसी इलाक़ों में रहने वाले आदिवासियों और दूसरे पिछड़े और ग़रीब वर्ग के लोगों को मेडिकल एमरजेंसी के दौरान एक बड़ी मुश्किल का सामना करना पड़ता है.

चाहे वो समय पर सही चिकित्सा मिलना हो, या फिर शहर के अस्पतालों से अपने परिजनों के शवों को गाँव वापस लाना, इसके लिए इन आदिवासियों को काफ़ी जद्दोजहद करनी पड़ती है.

उनके आने-जाने के लिए कोई गाड़ी नहीं है, और चिकित्सा विभाग अक्सर शवों को गांवों में शिफ़्ट करने के लिए आदिवासियों को एम्बुलेंस की सुविधा प्रदान नहीं करता. आदिवासी नेताओं का कहना है कि पुराने आदिलाबाद ज़िले में ऐसी कई घटनाएं हुई हैं.

एम्बुलेंस कर्मचारी शवों को बस निकटतम पीएचसी तक ले जाते हैं, लेकिन मृतकों के मूल स्थानों तक नहीं पहुंचाते.

आदिवासियों और दूसरे ग़रीब लोगों की शिकायत है कि कुछ एम्बुलेंस चालक और पीएचसी डॉक्टर उनके साथ अमानवीय व्यवहार करते हैं, और जब वो एमरजेंसी में उनसे मदद मांगते हैं तो अक्सर उन्हें सकारात्मक प्रतिक्रिया नहीं मिलती.

आदिवासी नेताओं ने सरकार से अपील की है कि आदिवासियों को एमरजेंसी सेवाएं प्रदान करने के लिए राज्य के अंदरूनी और एजेंसी इलाक़ों के पीएचसी को अधिक एम्बुलेंस आवंटित की जाएं.

कुछ स्थानीय विधायकों और मंत्रियों ने ‘गिफ्ट ए स्माइल’ योजना के तहत सरकार को अपनी व्यक्तिगत क्षमता में कुछ एम्बुलेंस दान की थीं, लेकिन पीएचसी के मेडिकल स्टाफ़ का कहना है कि डीज़ल भरने के लिए पैसों की कमी की वजह से वो एम्बुलेंस सेवा देने में असमर्थ हैं.

शवों को उनके पैतृक स्थानों या गांवों में शिफ़्ट करने के लिए शुरू की गई ‘पार्थिवा वाहनलु’ योजना का भी कुछ ज़्यादा असर नहीं दिखा है. कई 108 और 102 एम्बुलेंस पुरानी हो चुकी हैं और बार-बार मरम्मत के बावजूद बेकार पड़ी हैं.

गडीगुडा में कुनिकासा के ग्रामीणों ने डेक्कन क्रॉनिकल को बताया कि 22 अगस्त को रिम्स, आदिलाबाद में शिफ़्ट करने के दौरान 23 साल की गर्भवती आदिवासी महिला मडवी राजूबाई की मौत हो गई थी. तब एम्बुलेंस के ड्राइवर ने राजूबाई के पार्थिव शरीर को गडीगुडा पीएचसी में ही छोड़ दिया.

दरअसल एंबुलेंस के अर्जुनी गांव तक पहुंचने पर महिला की मौत हो गई. ड्राइवर शव को वापस गडीगुडा पीएचसी ले आया, और एम्बुलेंस से उतार दिया. इसके बाद परिजनों ने शव को गांव तक ले जाने के लिए एक निजी ऑटो किराए पर लिया, और गडीगुडा मंडल मुख्यालय से 20 किमी दूर अपने गांव कुनिकासा ले गए. गौरतलब यह है कि कुछ ही घंटे पहले इसी एंबुलेंस ने मरीज़ को कुनिकासा गांव से उठाया था.

एंबुलेंस ड्राइवर की लापरवाही का यह कोई पहला किस्सा नहीं है.

एक आदिवासी पिता द्वारा अपने 12 साल के लड़के के शव को कंधों पर लेकर अपने पैतृक गांव वडगाम तक 25 किलोमीटर पैदल चलकर ले जाने की यादें अभी भी इलाक़े के लोगों के मन में ताज़ा हैं.

उस पिता के पास निजी वाहन या ऑटो किराए पर लेने के लिए पैसे नहीं थे. और उत्नूर के मेडिकल स्टाफ़ ने बच्चे के माता-पिता को बिना कोई वाहन उपलब्ध कराए शव को अस्पताल से ले जाने के लिए कह दिया.

अधिकारी तभी हरकत मे आए जब लोगों के समर्थन से उस आदिवासी ने अपने मृत बेटे के शरीर के साथ रास्ता रोक दिया. इसके बाद उन्हें शव ले जाने के लिए एंबुलेंस दी गई.

ऐसी कई घटनाएं हुई हैं, लेकिन उसके बाद भी हालात में कोई सुधार नहीं हो रहा है. पीएचसी के एम्बुलेंस ड्राइवरों और डॉक्टरों का कहना है कि चूंकि एमरजेंसी स्थिति में वो मरीजों को रिम्स और उत्नूर ले जाने में व्यस्त रहते हैं. ऐसे में वो किसी एक मरीज़ के साथ ज्यादा समय नहीं बिता सकते.

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