क्या प्राइवेट सेक्टर में दलितों और आदिवासियों को आरक्षण मिलना चाहिए? एक महत्वपूर्ण संसदीय समिति निजी क्षेत्र में आरक्षण के प्रस्ताव पर चर्चा करेगी. यह एक संवेदनशील मुद्दा है जिसके गंभीर राजनीतिक और सामाजिक परिणाम हो सकते हैं.
ये कमिटी अनुसूचित जाति/अनुसूचित जनजाति के कल्याण से जुड़ी संसदीय समिति है. चर्चा का विषय दलितों और आदिवासियों के लिए सरकारी क्षेत्र से निजी क्षेत्र तक आरक्षण का दायरा बढ़ाना है.
यह मांग कांग्रेस के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान प्रमुखता से उठी थी. लेकिन फिर ये मुद्दा ठंडा पड़ गया था.
मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार ने इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए एक समर्पित ‘मंत्रियों का समूह’ बनाया था. लेकिन लंबी चर्चाओं के बाद भी कोई ठोस नतीजा नहीं निकला.
यह दूसरी बार है जब कोई शीर्ष सरकारी या संसदीय समिति इस विषय पर चर्चा करेगी. समिति ने इसे अपने वार्षिक विचार-विमर्श के एजेंडे में इसे शामिल किया है.
सूत्रों ने बताया कि इस विषय को आजाद समाज पार्टी के सांसद चंद्रशेखर आजाद ने उठाया था. उन्होंने समिति की पहली बैठक में इसे एजेंडे में शामिल करने का अनुरोध किया था. उन्हें अन्य सदस्यों का भी समर्थन मिला.
निजी क्षेत्र में आरक्षण का प्रस्ताव सामाजिक न्याय के समर्थकों की ओर से उठाया गया.
हालांकि, यह कभी भी एक सशक्त मांग नहीं बन पाई. इसके समर्थकों का तर्क है कि तेजी से निजीकरण के चलते सरकारी क्षेत्र में सीटें सिकुड़ रही हैं. इसका असर आरक्षण के दायरे में आने वाली सीटों पर भी पड़ता है.
वहीं दूसरी ओर इसका विरोध करने वालों का कहना है कि इससे अर्थव्यवस्था को नुकसान होगा. उनका मानना है कि यह उद्योग और कॉरपोरेट जगत में नियुक्तियों की योग्यता से समझौता करेगा. कुछ लोगों का यह भी तर्क है कि निजी संस्थाओं में आरक्षण लागू करना असंवैधानिक होगा.
समिति के अध्यक्ष फग्गन सिंह कुलस्ते ने कहा कि मुद्दों पर फैसला सदस्य करते हैं. यह इस वर्ष का एजेंडा है और हम समय के साथ इस विषय को उठाएंगे.
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