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उत्तराखंड के मलेथा गुलदार का नंतराम नेगी

नंतराम नेगी की वीरता आज की लोकगाथाओं में भी जीवित है. जौनसार-बावर क्षेत्र के गांवों में लोक गीतों में उनकी वीरता और शौर्य के किस्से गाए जाते हैं. इस क्षेत्र का मशहूर हारूल नृत्य, नंतराम नेगी की याद में ही किया जाता है.

उत्तराखंड की वीरभूमि में एक ऐसा आदिवासी योद्धा हुआ जिसने मात्र पच्चीस वर्ष की आयु में अपनी वीरता और साहस से इतिहास रच दिया था.

ये वीर आदिवासी योद्धा नंतराम नेगी थे जिन्हें मलेथा गुलदार गांव के स्थानीय लोग आज भी गुलदार मानते हैं.

दरअसल, पहाड़ी इलाकों में तेंदुए को गुलदार कहा जाता है. हालांकि नंतराम नेगी शुरूआत से ही तेंदुए की तरह बहादुर थे, लेकिन 1781 में उन्होंने अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए महत्तवपूर्ण योगदान दिया जिसके बाद उन्हें गुलदार की उपाधि से सम्मानित किया गया और उनके गांव को मलेथा गुलदार के नाम से जाना जाने लगा.

आखिर उन्होंने ऐसा क्या किया था कि उन्हें ये महत्तवपूर्ण उपाधि दी गई और ये उपाधि उन्हें किसने दी?

जानिए उनके अदम्य साहस और योगदान की पूरी कहानी.

नंतराम नेगी का जीवन परिचय

नंतराम नेगी का जन्म वर्ष 1725 में उत्तराखंड के जौनसार-बावर क्षेत्र के मलेथा गांव में हुआ था.

वे किशोरावस्था से ही शस्त्र विद्या में निपुण थे और अपने क्षेत्र की रक्षा के लिए तैयार रहते थे. उनकी वीरता की गूंज दूर-दूर तक फैल चुकी थी.

उनकी प्रतिभा और युद्श कौशल के कारण उन्हें अपने क्षेत्र की सिरमौर रियासत की सेना में जगह मिली.

उनके साहस और निपुणता को देखते हुए कुछ ही दिनों बाद उन्हें एक सैन्य टुकड़ी का मुखिया बना दिया गया और उन्होंने अपने नेतृत्व में क्षेत्र की रक्षा के लिए कई साहसिक युद्ध लड़े.

इतिहास में स्वर्णिम अध्याय

नंतराम नेगी ने एक ऐसे समय में अपनी वीरता का परिचय दिया जब उत्तराखंड के क्षेत्र पर बाहरी हमलावरों का खतरा मंडरा रहा था.

1781 में गुलाम कादिर नाम के रूहेला सेनापति ने सहारनपुर पर कब्ज़ा करके यमुना नदी को पार कर पांवटा दून में पड़ाव डाल लिया और सिरमौर की राजधानी नाहन पर हमला करने की योजना बनाने लगा.  

अपेक्षित हमले की जानकारी मिलने के बाद सिरमौर के राजा शमशेर प्रकाश और उनके सेनापति ने इस युद्ध की ज़िम्मेदारी नंतराम नेगी को सौंप दी.

यह एक निर्णायक युद्ध का समय था और नंतराम नेगी ने अपनी सेना के साथ बहादुरी से मुकाबला किया.

बागडौर नंतराम नेगी के हाथ में थी इसलिए उन्होंने अपनी बुद्धिमता दिखाई और गुलाम कादिर को योजनाबद्ध तरीके से नाहन पर हमला करने का मौका ही नहीं दिया.

इससे पहले कि कादिर हमला कर पाता, नंतराम नेगी ने अपनी सेना के साथ रूहेली सेना के शिविर को घेरकर धावा बोल दिया.

नंतराम नेगी ने गुलाम कादिर के शिविर में घुसकर अपनी धारदार तलवार से उसका सर काट दिया.

इस युद्ध में रूहेला सेना हार गई लेकिन सिरमौर को इसके लिए अपने महान आदिवासी योद्धा नंतराम नेगी के प्राणों की आहुति देनी पड़ी.

लोकगाथाओं में अमर

जब नंतराम नेगी वीरगति को प्राप्त हुए, उसके बाद राजा शमशेर प्रकाश ने उनके शौर्य और योगदान को सम्मानित करने के लिए उन्हें गुलदार की उपाधि दी. तब से उनके गांव को भी मलेथा गुलदार कहा जाता है.

नंतराम नेगी की वीरता आज की लोकगाथाओं में भी जीवित है. जौनसार-बावर क्षेत्र के गांवों में लोक गीतों में उनकी वीरता और शौर्य के किस्से गाए जाते हैं.

इस क्षेत्र का मशहूर हारूल नृत्य, नंतराम नेगी की याद में ही किया जाता है.

उनके सम्मान में उनके पैतृक गांव में एक प्राचीन मंदिर भी बनाया गया है. उनके इस मंदिर में आज भी वह तलवार मौजूद है जिससे उन्होंने गुलाम कादिर का वध किया था.

स्थानीय आदिवासी हर साल दशहरे के दिन इस मंदिर में इकट्ठा होते हैं और उनके शस्त्र, तलवार और बख्तर-बंद आदि की पूजा करते हैं.

प्रेरणा का स्रोत

नंतराम नेगी द्वारा किए गए अद्वितीय कार्य हमारे लिए एक प्रेरणा हैं और आने वाली पीढ़ियों को साहस, निष्ठा और बलिदान का महत्व समझाते हैं.

आज नंतराम नेगी का नाम उत्तराखंड के वीरों की सूची में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है.

उनकी स्मृति और योगदान को संजोए रखना हमारा कर्तव्य है. इसलिए हमें उनके बारे में जानना और दूसरों को बताना चाहिए.

Photo credit: Jagran media

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