हाल ही में मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र में हुई दो घटनाओं ने आदिवासी छात्रावासों में रहने वाले छात्रों की सुरक्षा और मानसिक स्वास्थ्य पर गंभीर चिंताएं पैदा कर दी हैं.
दोनों घटनाओं में आदिवासी छात्रों ने आत्महत्या का प्रयास किया है. जिनमें से एक छात्र की मौत हो गई और दूसरे को समय पर हस्तक्षेप के कारण बचा लिया गया.
ये घटनाएं न केवल व्यक्तिगत त्रासदियों को उजागर करती हैं, बल्कि एक गहरे संस्थागत संकट की ओर भी इशारा करती हैं. इन मामलों ने सरकार और समाज को यह सोचने पर मजबूर कर दिया है कि आदिवासी छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य और शैक्षिक परिस्थितियों में किस प्रकार की संरचनात्मक खामियां मौजूद हैं.
यह खामिया जब तक दूर नहीं होती है तब तक आदिवासी छात्र ख़तरे में रहेंगे.
मध्य प्रदेश: गंधवानी तहसील का मामला
पहली घटना मध्य प्रदेश के धार ज़िले की गंधवानी तहसील में स्थित एक सरकारी छात्रावास की है. यहां एक आदिवासी छात्र ने आत्महत्या कर ली. यह छात्र मुख्यमंत्री राइज़ स्कूल में ग्यारहवीं कक्षा का छात्र था और उसने छात्रावास की चौथी मंज़िल से कूदकर अपनी जान दी.
इस घटना ने आस-पास के इलाके के लोगों को झकझोर कर रख दिया है. लेकिन क्या इस घटना ने प्रशासन में भी वैसी हरकत पैदा की जिसकी उम्मीद की जाती है. ऐसा लगता नहीं है क्योंकि प्रशासन ने अभी तक जो प्रतिक्रिया दी है वह रूटीन कार्रावाई ही नज़र आती है.
ज़िला एसडीएम राहुल गुप्ता ने मामले की जांच के आदेश दिए हैं ताकि यह पता लगाया जा सके कि छात्र ने आत्महत्या जैसा गंभीर कदम क्यों उठाया.
दो सदस्यों वाली एक जांच कमेटी का गठन किया गया है, जिसमें एसडीएम और आदिवासी कल्याण विभाग के असिस्टेंट कमिश्नर शामिल हैं. यानि इस कमेटी में वही अफ़सर शामिल हैं जिनकी जवाबदेही तय होनी चाहिए.
यह घटना एक बड़े प्रश्न की ओर इशारा करती है: आदिवासी छात्रावासों में रहने वाले छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर क्या पर्याप्त ध्यान दिया जा रहा है?
महाराष्ट्र: पालघर की घटना
दूसरी घटना महाराष्ट्र के पालघर ज़िले की है, जहां एक 17 वर्षीय आदिवासी छात्रा ने आत्महत्या का प्रयास किया. छात्रा पालघर के रानशेत में स्थित आदिवासी आश्रम स्कूल में दसवीं कक्षा की थी.
उसने शौचालय में दुपट्टे से फांसी लगाने की कोशिश की थी. सौभाग्य से, समय पर हस्तक्षेप करने से उसकी जान बच गई और उसे तत्काल अस्पताल ले जाया गया.
यह घटना भी छात्रों की मानसिक स्थिति और सुरक्षा उपायों की कमी को उजागर करती है. इस मामले में भी राज्य की जनजातीय परियोजना के कर्मचारी मामले की जांच कर रहे हैं.
लेकिन अब तक यह स्पष्ट नहीं हो पाया है कि छात्रा ने आत्महत्या का प्रयास क्यों किया. यहां एक सवाल उठता है.
आदिवासी छात्रावासों में मानसिक स्वास्थ्य के प्रति उदासीनता
इन घटनाओं से यह स्पष्ट है कि आदिवासी छात्रावासों में मानसिक स्वास्थ्य और सुरक्षा के मुद्दे गंभीर चिंता का विषय हैं. आदिवासी समाज से आने वाले ये छात्र अपनी सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि के कारण पहले से ही कई चुनौतियों का सामना कर रहे होते हैं.
उनके मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति उन सामाजिक और आर्थिक दवाबों का परिणाम भी हो सकती है, जिनसे वे संघर्ष कर रहे होते हैं.
आदिवासी छात्रावासों में सामान्यत: आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों के छात्र रहते हैं, जिनकी सामाजिक परिस्थितियां कई बार चुनौतीपूर्ण होती हैं.
आदिवासी छात्र जब परिवारों से दूर हॉस्टल में रहते हैं, तो यह उनके लिए बिलकुल अलग परिवेश होता है. जो उनके लिए एक भावनात्मक और मानसिक तनाव का कारण बन सकता है.
इसके अलावा, कई बार ये छात्र शैक्षिक प्रणाली के दबावों के कारण भी तनाव में आ जाते हैं, जो उनके मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करता है.
आदिवासी छात्रावासों में मानसिक स्वास्थ्य और सुरक्षा
छात्रावासों में बच्चों की सुरक्षा और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दे काफी व्यापक हैं. क्योंकि आदिवासी छात्रों को सामान्य श्रेणी के छात्रों की तुलना में ज़्यादा चुनौतियों का सामना करना पड़ता है. इसका सबसे पहला कारण सामाजिक परिवेश में बदलाव होता है.
जब आदिवासी छात्र हॉस्टल में आते हैं तो उनका मेल-मिलाप ग़ैर आदिवासी छात्रों से भी होता है. इन दोनों समाज के परिवेश और जीवन मूल्यों में काफ़ी फ़र्क होता है.
इसके अलावा कई मामलों में आदिवासी छात्रों को पढ़ाई लिखाई में भी परेशानी आती है. इसमें एक बड़ा कारण भाषा भी रहता है. इसके अलावा वंचित इलाकों से आए छात्रों को जब सामान्य वर्ग के छात्रों से प्रतियोगिता करनी पड़ती है तो उन पर मानसिक दबाव पड़ता है.
इसका एक कारण आदिवासी छात्रों के साथ भेदभाव भी हो सकता है.
मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र की घटनाएं इस बात की गवाही देती हैं कि छात्रों की मानसिक स्थिति को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. छात्रावासों में रहने वाले आदिवासी छात्रों के मानसिक स्वास्थ्य पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है.
अपने घरों को छोड़ कर हॉस्टल में रहने आए आदिवासी छात्रों की समस्या इस लिए भी बढ़ जाती है कि वे इसे अन्य लोगों के साथ शेयर नहीं कर पाते हैं. आदिवासी छात्रों में अपनी समस्या को दूसरों को बताने में एक झिझक रहती है.
इसलिए यह ज़रूरी है कि उनके साथ नियमित रूप से मानसिक स्वास्थ्य काउंसलिंग सत्र आयोजित किए जाएं, ताकि वे अपनी समस्याओं को साझा कर सकें और उन्हें समझने का मौका मिले.
मौजूदा स्थिति में सुधार के लिए सरकार और शिक्षण संस्थानों को छात्रों के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य के प्रति समग्र दृष्टिकोण अपनाना होगा. सबसे पहले, आदिवासी छात्रावासों में नियमित मानसिक स्वास्थ्य काउंसलिंग सत्र आयोजित करने की आवश्यकता है, ताकि छात्र अपनी भावनाओं और चिंताओं को साझा कर सकें.
इसके साथ ही, मानसिक स्वास्थ्य जागरूकता अभियान चलाए जाने चाहिए, जो छात्रों को मानसिक समस्याओं की पहचान और उनसे निपटने के उपायों के बारे में शिक्षित कर सकें.
दूसरी ओर, शिक्षकों और छात्रावास कर्मचारियों की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है. उन्हें छात्रों की मानसिक स्थिति को समझने और समय रहते मदद करने के लिए विशेष प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए. इसके तहत उन्हें मानसिक स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों की पहचान, प्रारंभिक सहायता और संवेदनशील मार्गदर्शन की जानकारी दी जा सकती है.
सुरक्षा उपायों को भी प्राथमिकता देनी होगी. छात्रावासों में कड़ी सुरक्षा व्यवस्था सुनिश्चित करनी चाहिए ताकि छात्रों को किसी प्रकार की असुरक्षा महसूस न हो. इसके साथ ही, छात्रों की गोपनीयता और सुरक्षा का ध्यान रखते हुए सुरक्षा प्रोटोकॉल तैयार किए जाने चाहिए.
आपातकालीन सहायता सेवाएं और शिकायत निवारण तंत्र भी प्रभावी तरीके से काम करने चाहिए ताकि संकट की स्थिति में छात्र तुरंत सहायता प्राप्त कर सकें.
सुरक्षा में सुधार लाने के लिए तकनीकी साधनों का भी उपयोग किया जा सकता है, जैसे सीसीटीवी कैमरे, आपातकालीन हेल्पलाइन, और फिजिकल सुरक्षा स्टाफ। इसके साथ ही, किसी भी तरह की समस्याओं को हल करने के लिए एक विश्वसनीय और गोपनीय शिकायत निवारण तंत्र स्थापित किया जाना चाहिए, जिससे छात्र बिना डर के अपनी समस्याओं को रख सकें और उचित समाधान प्राप्त कर सकें.