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एक बार फिर सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासी महिलाओं के लिए संपत्ति अधिकारों में समानता की सिफारिश की

सुप्रीम कोर्ट ने दूसरी बार सरकार से कहा है कि वह आदिवासी महिलाओं को पिता की संपत्ति में हिस्सा देने का कानून प्रावधान करे. लेकिन सरकार सुप्रीम कोर्ट के सुझाव को नज़रअंदाज़ करती रही है. दरअसल यह मुद्दा ऐसा है जिसके राजनीतिक और सामाजिक पहलू बेहद संवेदनशील हैं.

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार से हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम (HSA), 1956 में संशोधन करने पर विचार करने का आग्रह किया है. क्योंकि अनुसूचित जनजाति (Scheduled tribe) की महिला को पैतृक संपत्ति में हिस्सा देने के मामले में पुरुष के बराबर नहीं माना जाता है.

जस्टिस सीटी रविकुमार और संजय करोल की पीठ ने गुरुवार को एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट के 2022 के फैसले का हवाला देते हुए यह सिफारिश की है. इस फैसले में कहा गया था कि पिता की संपत्ति में किसी महिला को उसके अधिकार से वंचित करना “कानूनी रूप से ग़लत” है.

दरअसल हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम का एक प्रावधान यह निर्धारित करता है कि उत्तराधिकार का कानून अनुसूचित जनजाति के सदस्यों पर तब तक लागू नहीं होगा जब तक कि केंद्र सरकार “नोटिफिकेशन” जारी करके अन्यथा निर्देश नहीं देती.

इस तरह प्रावधान में यह शामिल है कि एसटी समुदाय की बेटी कानूनी रूप से पिता की संपत्ति में अपना हिस्सा नहीं मांग सकती है.

भारत की आजादी के सात दशक बाद भी इस प्रावधान के जारी रहने पर दुख जताते हुए 2022 के फैसले में कहा गया कि जब गैर-आदिवासी समूहों की बेटी पिता की संपत्ति में बराबर की हिस्सेदारी की हकदार है, तो आदिवासी समुदायों की बेटी को इस तरह के अधिकार से वंचित करने का कोई कारण नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट के ताज़ा फैसले ने 2002 के फैसले का समर्थन किया. जिसमें कहा गया, “महिला आदिवासियों के लिए उत्तरजीविता के अधिकार (Rights of Survival) को सुरक्षित करने के उपायों पर विचार करने के लिए केंद्र सरकार को दी गई सिफारिश/सुझाव को दोहराया जाता है.”

सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने 2022 के फैसले से संबंधित हिस्से को भी दोहराया है. उस फैसले में कहा गया था: “महिला आदिवासी बिना वसीयत के उत्तराधिकार में पुरुष आदिवासी के साथ समानता की हकदार है. भारत के संविधान के 70 वर्षों की अवधि के बाद भी आदिवासी समुदाय की बेटियों को समान अधिकार से वंचित करना, जिसके तहत समानता के अधिकार की गारंटी दी गई है. केंद्र सरकार के लिए इस मामले पर गौर करने और अगर आवश्यक हो तो हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम के प्रावधानों में संशोधन करने का समय आ गया है, जिससे यह अधिनियम अनुसूचित जनजातियों के सदस्यों पर लागू नहीं होता है.”

पिछले फैसले में कहा गया था: “हमें उम्मीद और भरोसा है कि केंद्र सरकार इस मामले पर गौर करेगी और भारत के संविधान के अनुच्छेद 14 (समानता का अधिकार) और 21 (जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार) के तहत गारंटीकृत समानता के अधिकार को ध्यान में रखते हुए उचित निर्णय लेगी.”

कोर्ट छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट के 2019 के फैसले को चुनौती देने वाली अपील पर सुनवाई कर रही थी, जिसमें सवारा जनजाति के सदस्यों की याचिका को खारिज कर दिया गया था लेकिन वे विरासत के मामलों में हिंदू कानून द्वारा शासित होना चाहते थे.

इसके साथ ही हाई कोर्ट ने कुछ आदिवासी महिलाओं, संपत्ति के मालिक की बेटियों को न्याय, इक्विटी और अच्छे विवेक के आधार पर मुकदमे की संपत्ति में हिस्सा देने के लिए केंद्रीय प्रांत कानून अधिनियम, 1875 को लागू किया.

यह देखते हुए कि संपत्ति के मालिक की मृत्यु 1951 में हो गई थी यानि हिंदू उत्तराधिकार अधिनियमन से पहले, जिसने आदिवासी महिलाओं के खिलाफ प्रतिबंध लगाया था.

तो ऐसे में सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासी महिलाओं को संपत्ति के अधिकार देने के लिए 1875 के अधिनियम को लागू करने में हाई कोर्ट के विचारों की पुष्टि की.

इस बात में कोई दो राय नहीं है कि आदिवासी महिलाओं को पिता की संपत्ति में हिस्सा एक क़ानूनी अधिकार होना चाहिए. सुप्रीम कोर्ट ने दूसरी बार सरकार से इस बारे में विचार करने का सुझाव दिया है.

लेकिन किसी भी सरकार के लिए यह फ़ैसला आसान नहीं है. क्योंकि इस मुद्दे के सामाजिक और राजनीतिक पहलू काफ़ी संवेदनशील हैं. भारत के ज़्यादातर आदिवासी समुदाय इस मामले में अपने परंपरागत नियमों और परंपराओं (Customary Laws and Traditions) का हवाला देते हैं.

देश के कई राज्यों में आदिवासी महिलाएं पिता की संपत्ति में हिस्सा दिए जाने की मांग करती रही हैं, लेकिन देश के ज़्यादातर राजनीतिक दल इस मुद्दे पर कोई स्पष्ट स्टैंड लेने से बचते हैं.

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