रोहिणी ने कॉलेज जाना छोड़ दिया है. तमिलनाडु के अनामलाई टाइगर रिज़र्व के कादंबरई बस्ती में कादर आदिवासी समुदाय की 11वीं कक्षा की छात्रा रोहिणा अकेली कॉलेज या स्कूल ड्रॉपआउट नहीं है.
अपने परिवार के पास एक स्मार्टफोन होने के बावजूद वो उसका इस्तेमाल ऑनलाइन क्लास में भाग लेने के लिए नहीं कर सकती थी. क्योंकि मोबाइल फोन नेटवर्क उपलब्ध नहीं है. ऐसे में रोहिणी के पास बिजली की कमी के कारण पढ़ाई छोड़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं था.
पश्चिमी घाट के अनामलाई पहाड़ियों में 34 आदिवासी बस्तियों में ऐसे कई छात्र हैं जिन्होंने करीब डेढ़ साल से स्कूल बंद होने के चलते किसी तरह की शिक्षा प्राप्त नहीं की है. यहां तक कि कुछ बस्तियां ऐसी है जहां बिजली आपूर्ति है तो उन्हें मोबाइल फोन नेटवर्क की समस्या से जूझना पड़ता है.
कोविड-19 महामारी के दौरान अक्सर ये देखने को मिला कि कैसे छात्रों ने बारिश और ठंड से निपटने के साथ बेहतर सेल्युलर कनेक्टिविटी प्राप्त करने के लिए सड़कों के किनारे जाकर ऑनलाइन क्लास में हिस्सा लिया.
आदिवासी समुदायों का मानना है कि उनके बच्चों की शिक्षा ही उनके हाशिए के अस्तित्व से मुक्ति का एकमात्र साधन है. सरकार द्वारा निराश किए जाने के बाद उन्होंने महामारी के दौरान शिक्षा की कमी के चलते अपने बच्चों के पिछड़ने और व्यवस्था से बाहर होने की शिकायत की.
न्यूज क्लिक की रिपोर्ट के मुताबिक जंगल में बुनियादी सुविधाओं की कमी के चलते कुछ आदिवासी बच्चों को महामारी से पहले आवासीय विद्यालयों में भर्ती कराया गया था. लेकिन लॉकडाउन की घोषणा के बाद उनके माता-पिता निराश थे. राजलक्ष्मी एक ऐसी ही अभिभावक हैं जो लॉकडाउन के बाद अपने दो लड़कों को हॉस्टल से वापस ले आईं.
राजलक्ष्मी ने न्यूज़क्लिक को बताया, “शिक्षकों ने हमें कुछ किताबें दीं और हमें अपने बच्चों को पढ़ाने के लिए कहा. मैं उन्हें कैसे पढ़ा सकती हूँ? मैं पढ़ी-लिखी नहीं हूं इसलिए मैंने उन्हें एक हॉस्टल में भेज दिया था.”
अब राजलक्ष्मी के दोनों लड़के सारा दिन खेलते हैं. कल्लारगुडी बस्ती में कादर समुदाय से ताल्लुक रखने वाली राजलक्ष्मी ने कहा, “वो अब अपने पिता के पेशे को सीखने के लिए उत्सुक हैं और पढ़ाई में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं है.”
ऐसे ही कई माता-पिता को लगता है कि उनके बच्चों की शिक्षा के लिए उनकी जो योजनाएं थीं वे कभी पूरी नहीं होंगी.
बिजली के लिए संघर्ष
कई परिवार जिनके पास एंड्रॉइड फोन हैं लेकिन बिजली की आपूर्ति नहीं है. ऐसे में वे अक्सर दुकानदारों और सरकारी कर्मचारियों से अपने फोन को चार्ज करने का अनुरोध करते हैं. लेकिन वे अपने बच्चों को ऑनलाइन कक्षाओं के लिए उनका इस्तेमाल नहीं करने दे सकते।
प्रिया ने कहा, “हम अपने फोन को पास के गार्डरूम में चार्ज करते हैं. हालांकि गार्ड ज्यादातर हमें अपने फोन चार्ज करने की अनुमति देते हैं लेकिन वे कई बार वो बहुत असभ्य होते हैं. अगर हमारे पास उचित बिजली कनेक्शन होता तो हम उन पर निर्भर नहीं होते.”
सोलायार हाइड्रोइलेक्ट्रिक प्रोजेक्ट स्टेशन के आसपास रहने के बावजूद इन जनजातियों के पास बिजली की आपूर्ति नहीं है. अपने घरों से कुछ ही मीटर की दूरी पर बिजली की लाइनें होने के बावजूद बिजली की कमी से निराश और नाराज नागमलाई बस्ती के कुछ परिवारों ने झिझक के साथ स्ट्रीट लाइट से बिजली चोरी करने की बात स्वीकार की.
प्रिया ने कहा, “कई बच्चे हैं जो संघर्ष कर रहे हैं और पढ़ रहे हैं लेकिन उनके लिए यह आसान नहीं है. इस तरह आगे बढ़ना मुश्किल है.”
केरोसीन लैंप पर निर्भरता
बिजली कनेक्शन के बिना बच्चों के पास शाम को केरोसीन लैंप के नीचे पढ़ने के अलावा कोई विकल्प नहीं बचा है. पहाड़ी क्षेत्रों में मिट्टी का तेल एक मूलभूत आवश्यकता है क्योंकि यह रात में खाना पकाने, घर को रोशन करने और हाथियों को भगाने में काम आता है.
स्थानिय निवासियों ने शिकायत की कि सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत दिया गया मिट्टी का तेल पिछले कुछ सालों में मात्रा कम होने के कारण पर्याप्त नहीं है.
अजिता ने कहा, “हमारे पास बिजली कनेक्शन नहीं है. हमारे बच्चे मिट्टी के तेल के दीये के सहारे पढ़ते हैं. पिछले कुछ सालों में हर महीने पांच लीटर केरोसिन की आपूर्ति तीन लीटर तक कम हो गई है. हम मिट्टी के तेल का इस्तेमाल बहुत ही समझदारी से करते हैं क्योंकि यह 10 दिनों से अधिक नहीं टिकता है.”
रोहिणी ने बताया पढ़ाई छोड़ने का कारण है कॉलेज का दूर होना है. उन्होंने कहा, “अगर वे स्पेशल क्लास लगाते हैं तो हमें सुबह 6 बजे वहां पहुंचना होगा. मौजूदा परिस्थितियों में सिर्फ मिट्टी तेल के दीये से मैं जल्दी उठकर तैयार नहीं हो सकती. इसलिए मैंने पढ़ाई करना चाहते हुए भी कॉलेज जाना बंद कर दिया है. हमें बिजली कनेक्शन चाहिए और हमारे क्षेत्र में बस कनेक्टिविटी बढ़ाई जानी चाहिए. यहाँ बहुत बच्चे हैं. उन्हें मेरी तरह पढ़ाई नहीं छोड़नी चाहिए और उन्हें शिक्षित किया जाना चाहिए.”
न्यूज़क्लिक ने जिन बस्तियों का दौरा किया, उनमें एक भी बच्चा ऑनलाइन कक्षाओं में भाग लेते या किताब पढ़ते नहीं देखा गया.
(Image Credit: News Click)