किसी बस्ती या इलाक़े के विकास के लिए 30 साल शायद काफ़ी होते होंगे, है ना? लेकिन आप अगर देश की किसी आदिवासी बस्ती या इलाक़े के निवासी हैं, तो यह बात आपको सही नहीं लगेगी.
ऐसा इसलिए कि सबसे बुनियादी सुविधाओं के लिए भी आदिवासियों को लंबी लड़ाई लड़नी पड़ती है. चेन्नई के पास गुम्मिडीपूंडी की मेट्टू तेरू आदिवासी बस्ती को ही देख लीजिए, जहां नारिकुरवर आदिवासी पिछले तीन दशकों से बसे तो हैं, लेकिन शौचालय और पीने के साफ़ पानी जैसी बुनियादी सुविधाओं को अब तक मौहताज हैं.
औरतों और बच्चों पर डर का साया
बस्ती में 23 परिवार रहते हैं, जिसमें कई औरतें और बच्चे हैं. हर बार शौचालय जाना इनकी जान और इज़्ज़त के लिए एक बड़ा ख़तरा लेकर आता है.
21 साल की प्रिया ने द न्यू इंडियन एक्सप्रेस को बताया कि कई बार जब यह आदिवासी औरतें रात में खुले में शौच जाती हैं, तो आसपास के गांवों के पुरुष इनका यौन शोषण करते हैं. स्ट्रीट लाइट के न होने से बस्ती रात में अंधेरे में डूब जाती है, जिससे यहां की औरतों पर हमलों का ख़तरा भी बढ़ जाता है.
बस्ती की एक और निवासी कोदम्माल ने कहा, “हर किसी के पास ऐसी एक कहानी है. सुरक्षा के अभाव में छोटी लड़कियां अकेले अंधेरे में बाहर जाने से डरती हैं. उनमें से कुछ कई दिन बिना नहाए गुज़ार देती हैं. हम चाहते हैं कि अधिकारी हमारे लिए शौचालय का निर्माण करें, ताकि हमें किसी से डरने की ज़रूरत न हो.”
सरकार का दावा
केंद्र सरकार ने 9 अगस्त को लोकसभा को सूचित किया था कि वित्तीय वर्ष 2021-22 में आदिवासियों के सामाजिक विकास के लिए कुल 268 योजनाएं लागू की जा रही हैं. 10 जुलाई तक तमिलनाडु को इसके तहत 107 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं.
इतना पैसा आवंटित किए जाने के बावजूद, यहां के आदिवासियों के पास ज़मीन के अधिकार तो छोड़िए, बुनियादी सुविधाएं भी नहीं हैं.
स्वच्छ भारत के अलावा, प्रधान मंत्री आवास योजना – ग्रामीण (PMAY-G) जैसी योजनाएं, जिसका मक़सद ट्राइबल सब-प्लान के तहत आदिवासियों के लिए मुफ़्त घर उपलब्ध कराना है, अभी तक इस गांव तक नहीं पहुंच पाई हैं.
PMAY-G के तहत आदिवासियों के लिए 18,712 घरों को मंज़ूरी दी गई है, जिनमें से 12,825 घर बन चुके हैं. इस तरह की योजनाओं का यदि इन बस्तियों में विस्तार किया जाता है, तो इससे सभी आदिवासियों की कम से कम बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो सकेंगी.
मेट्टू तेरू आदिवासी बस्ती का हाल
इस आदिवासी बस्ती में परिवार ईंटों से बने अस्थायी घरों में रहते हैं, जिनमें छत के नाम पर बस एक तिरपाल की शीट है. इनमें पानी, गैस या बिजली जैसी कोई सुविधा नहीं है. पीने के पानी के एक कैन के लिए उन्हें 30 रुपये खर्च करने पड़ते हैं. पानी की बाकि ज़रूरतें आस-पास के गांवों से पूरी की जाती हैं.
बारिश के मौसम में यह लोग एक खाली पड़े स्कूल की बिल्डिंग में शरण लेते हैं. ऊपर से इलाक़े में ज़हरीले सांपों की भी बड़ी संख्या है.
इस गांव को अभी तक राष्ट्रीय पोषण मिशन के तहत कवर नहीं किया गया है. मिशन का मक़सद स्तनपान कराने वाली माताओं और बच्चों में कुपोषण मिटाने के लिए पोषक भोजन देना है. जब बस्ती के बच्चे स्कूल जाते थे, तो उन्हें कम से कम दिन में एक अंडा खाने को मिलता था, लेकिन कोविड महामारी ने यह सुविधा भी छीन ली.
इन आदिवासियों के कई बार अनुरोध करने के बाद अधिकारियों की एक टीम ने हाल ही में गांव का दौरा किया. तहसीलदार ने अखबार को बताया कि भूमि सर्वेक्षण कर, एक प्रस्ताव जल्द तैयार किया जाएगा. इसके बाद आवास और शौचालय जैसी बुनियादी ज़रूरतों पर ध्यान दिया जाएगा.
(Photo Credit: The New Indian Express)