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चकमा-हाजोंग ने पेमा खांडू से समुदाय को बेघर ना करने का आग्रह किया

चकमा जनजाति के नेता कहते हैं कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो किसी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश को हमें अनिवासी घोषित करने का अधिकार देता है.

चकमा डेवलपमेंट फाउंडेशन ऑफ इंडिया (Chakma Development Foundation of India) ने अरुणाचल प्रदेश (Arunachal Pradesh) के मुख्यमंत्री पेमा खांडू (Pema Khandu) से चकमा और हाजोंग (Chakmas and Hajongs) समुदायों को अरुणाचल प्रदेश में बसने के लिए अपात्र बता कर चकमा-हाजोंग के खिलाफ़ पूर्वाग्रह को बढ़ावा ना दें.

इस संगठन ने कहा है कि मुख्यमंत्री जब यह कहते हैं कि चकमा हजोंग शर्णार्थी हैं जो स्थाई तौर पर अरूणाचल प्रदेश में नहीं बसाए जा सकते हैं, तो यह बात चकमा समुदाय के प्रति पूर्वाग्रह को बढ़ाता है.

सीडीएफआई ने कहा कि इस सप्ताह की शुरुआत में ईटानगर में राष्ट्रीय पंचायती राज दिवस के उपलक्ष्य में एक प्रशिक्षण कार्यक्रम को संबोधित करते हुए खांडू ने घोषणा की थी कि असम-अरुणाचल सीमा विवाद को हल करने के बाद वह चकमा और हाजोंग मुद्दे को अन्य राज्यों में भेजकर हल करेंगे.

उन्होंने यह भी कहा कि शरणार्थी के रूप में दो समुदायों को आदिवासी राज्य में स्थायी रूप से नहीं बसाया जा सकता है.

सीडीएफआई के संस्थापक सुहास चकमा ने एक बयान में कहा कि चकमा और हाजोंग को 1964 के बाद भारत सरकार की अधिकृत नॉर्थ ईस्टर्न फ्रंटियर एजेंसी (North Eastern Frontier Agency) ने बसाया गया था.

इसके बाद चकमा-हाजोंग समुदाय के अरुणाचल प्रदेश में पैदा हुए लोग जन्म से भारत के नागरिक हैं.

सुहास चकमा ने आगे कहा कि संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो किसी राज्य या केंद्र शासित प्रदेश को हमें अनिवासी घोषित करने और जबरन हमें हमारे अधिकृत इलाकों से हटाने का अधिकार देता है.

उन्होंने कहा कि 1964-1969 के दौरान पलायन करने वालों में से अधिकांश लगभग मर चुके हैं और जो जीवित हैं, उन्हें एनएचआरसी बनाम अरुणाचल प्रदेश राज्य में 1996 के अपने फैसले में सुप्रीम कोर्ट के निर्देशों के अनुसार राज्य से नहीं हटाया जा सकता है.

भारत के संविधान में अरुणाचल प्रदेश या किसी अन्य राज्य को एक आदिवासी राज्य के रूप में परिभाषित करने का कोई प्रावधान नहीं है और वास्तव में संविधान का अनुच्छेद 371 (एच) सिर्फ अरुणाचल प्रदेश के राज्यपाल को विशेष जिम्मेदारी और शक्तियां देता है.

सीडीएफआई ने कहा कि चकमाओं और हाजोंगों को शरणार्थी करार देना और अरुणाचल प्रदेश को संविधान द्वारा संरक्षित एक आदिवासी राज्य का दावा करना गलत है. ऐसा दावा केवल भारतीय नागरिकों के एक वर्ग के खिलाफ पूर्वाग्रहों को कायम रखता है.

उन्होंने यह कहकर राज्य सरकार को आगाह भी किया, “अगर अरुणाचल प्रदेश अन्य राज्यों से यह उम्मीद करता है कि वे अरूणाचल प्रदेश के कुछ हज़ार चकमा और हाजोंग को अपने यहां बसने दे तो कल को अरूणाचल प्रदेश से भी ऐसी ही उम्मीद की जा सकती है. मसलन असम या त्रिपुरा से यह आग्रह आ सकता है एन आरसी से बाहर किए गए 1.9 मिलियन लोगों को अरूणाचल प्रदेश में जगह दी जाए. क्योंकि 2022 में जनसंख्या का घनत्व 431 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी के राष्ट्रीय औसत की तुलना में अरुणाचल प्रदेश में 17 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी था.”

सीडीएफआई ने कहा कि अपने संबोधन में मुख्यमंत्री खांडू ने यह भी कहा था कि जब भी वह पूर्वी अरुणाचल का दौरा करते हैं और चकमाओं से मिलते हैं, तो उन्हें यह देखकर बहुत दुख होता है कि उनके पास कोई सुविधा नहीं है, आवास की स्थिति खराब है और बहुत सारे चकमा गरीब हैं.

सुहास चकमा ने कहा कि मुख्यमंत्री को यह महसूस करना चाहिए कि अरुणाचल प्रदेश राज्य ने पिछले 60 वर्षों से चकमाओं और हाजोंग को सभी अधिकारों और सुविधाओं से वंचित करके उनके लिए दयनीय आर्थिक स्थिति और अत्यधिक गरीबी पैदा की है.

उन्होंने कहा, “सिर्फ दुख व्यक्त करना काफी नहीं है अगर इस तरह की अत्यधिक गरीबी को कम करना है तो मुख्यमंत्री को खुद चकमा और हाजोंग- क्षेत्रों में सतत विकास लक्ष्यों के कार्यान्वयन को सुनिश्चित करना होगा.”

अरुणाचल प्रदेश में छह दशक से ज्यादा समय से रहने वाले चकमा और हाजोंग बीते लंबे समय से अपने अधिकारों को लेकर संघर्षरत हैं. इसी साल जनवरी में चकमा और हाजोंग समुदाय के लोग सरकार द्वारा अपने रेसिडेंशियल प्रूफ सर्टिफिकेट (आरपीसी) यानी आवासीय प्रमाण पत्र के रद्द करने के विरोध में आंदोलन किया था.

आवासीय प्रमाण पत्र ही एक मात्र इन समुदायों का आधिकारिक दस्तावोज है जो सरकारी संस्थानों और नौकरियों में इनकी उपस्थिति सुनिश्चित करता है.

ऐसा कहा जा सकता है कि ये सर्टिफिकेट इनके पढ़ने और आगे बढ़ने का जरिया है. लेकिन बीते साल 31 जुलाई 2022 को अरुणाचल प्रदेश सरकार ने अपनी एक अधिसूचना में चांगलांग जिले में नए आवासीय प्रमाण पत्र जारी करने से इंकार कर दिया. इसके बाद सरकार ने इस समुदाय के आवासीय प्रमाण पत्र को पूरी तरह से रद्द कर दिया था.

ऐसे में 8 जनवरी, 2023 को इन समुदाय के सैकड़ों लोगों ने दिल्ली के जंतर-मंतर पर प्रदर्शन किया था और केंद्र की मोदी सरकार से अपने अधिकारों के रक्षा की मांग की थी.

कौन हैं चकमा-हाजोंग

अरुणाचल प्रदेश में चकमा और हाजोंग जनजाति के मुद्दे पर विवाद काफी पुराना है. चकमा-हाजोंग शरणार्थी वर्तमान बांग्लादेश की चटगांव पहाड़ियों के रहने वाले हैं, जो 1960 में कपताई बांध योजना में अपनी ज़मीनें खोने के बाद भारत आकर बस गए थे.

उस समय वे मिज़ोरम के रास्ते भारत पहुंचे थे, जो उस समय असम का लुशाई हिल ज़िला हुआ करता था। चकमा लोग बौद्ध हैं जबकि हाजोंग हिंदू है.

देश के विभाजन के बाद तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान में भी उनको धार्मिक आधार पर काफी अत्याचर सहना पड़ा था. साठ के दशक में चटगांव से भारत आने वालों में से महज दो हजार हाजोंग और बाकी चकमा थे.

भारत सरकार ने ज्यादातर शरणार्थियों को अरुणाचल प्रदेश में बसा दिया और इन लोगों को शरणार्थी का दर्जा दिया गया.

साल 1972 में भारत और बांग्लादेश के तत्कालीन प्रधानमंत्रियों के साझा बयान के बाद केंद्र सरकार ने नागरिकता अधिनियम की धारा 5 (आई)(ए) के तहत इन सबको नागरिकता देने का फैसला किया. लेकिन तत्कालीन नार्थ ईस्ट फ्रंटियर एडमिनिस्ट्रेशन (नेफा) सरकार ने इसका विरोध किया। बाद में यहां बने अरुणाचल प्रदेश की सरकार ने भी यही रवैया जारी रखा.

सुप्रीम कोर्ट में दायर एक याचिका के जवाब में राज्य सरकार ने अपने हलफनामे में कहा कि वह बाहरी लोगों को अपने इलाके में बसने की अनुमति नहीं दे सकती क्योंकि इससे राज्य में आबादी का अनुपात प्रभावित होगा और सीमित संसाधनों पर बोझ बढ़ेगा.

साल 1964 से 1969 के दौरान राज्य में जहां इन दोनों तबके के 2,748 परिवारों के 14,888 शरणार्थी थे वहीं 1995 में यह तादाद तीन सौ फीसदी से भी ज्यादा बढ़ कर साठ हजार तक पहुंच गई. फिलहाल राज्य में इनकी आबादी करीब एक लाख तक पहुंच गई है. ऐसे में स्थानीय संगठनों को डर है कि इस तरह वो अपने ही प्रदेश में अल्पसंख्यक की श्रेणी में आ जाएंगे.

मालूम हो कि अरुणाचल प्रदेश के इलाके को वर्ष 1972 में केंद्रशासित प्रदेश का दर्जा दिया गया था. वर्ष 1987 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने के बाद अखिल अरुणाचल प्रदेश छात्र संघ (आप्सू) ने चकमा व हाजोंग समुदाय के लोगों को राज्य में बसाने की कवायद के खिलाफ बड़े पैमाने पर आंदोलन शुरू किया. आप्सू का यह विरोध अब तक जारी है.

सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बावजूद यह मुद्दा अब तक पूरी तरह सुलझ नहीं सका है. ऐसे में लाखों चकमा और हाजोंग लोगों की जिंदगियां बिना नागरिक अधिकारों के अधर में लटकी हैं और उन्हें अपना भविष्य भी अंधेरे में नज़र आ रहा है. इस समुदाय का एक ही सवाल है कि क्या 50-60 साल पहले विस्थापित हुए परिवार आज भी शरणार्थी ही कहे जाएंगे?

(Photo Credit: AFP)

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