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एक आदिवासी परिवार की ज़मीन के मालिकाना हक़ के लिए 16 साल लंबी लड़ाई

हाल ही में, परिवार ने जिला कलेक्टर एस चंद्रशेखर को एक और याचिका सौंपी. कलेक्टर ने उनकी शिकायत को दूर करने का वादा किया है.

16 सालों से, कण्णूर जिले के अरालम फार्म के अंदर एक ज़मीन के टुकड़े पर रहने वाली यशोदा नारायणन और उनका परिवार, उस ज़मीन के मालिकाना हक (पट्टे) के लिए लड़ाई लड़ रही है.

करिंबाला आदिवासी समुदाय के इस परिवार की सभी दलीलें और गुहार जैसे किसी को सुनाई ही नहीं दे रहीं.

2006 में आदिवासी आंदोलन के दौरान यशोदा नारायणन अपने बीमार पति और तीन बेटियों के साथ अरालम फार्म के प्लॉट नंबर 513 पर बस गईं. 2013 में पट्टाया मेले के दौरान, उन्हें प्लॉट संख्या 566 के लिए एक पट्टा जारी किया गया. लेकिन यह प्लॉट पहले से ही पनिया समुदाय के एक आदिवासी परिवार को आवंटित किया गया था.

इस मुद्दे को अधिकारियों के सामने उठाया गया और उन्होंने उस पनिया परिवार से जमीन शेयर करने के लिए कहा. लेकिन उन्होंने उस जमीन को देने से इनकार कर दिया जिसके लिए उन्हें पट्टा मिला था.

यह यशोदा के परिवार के लिए एक लंबे और मुश्किल सफ़र की शुरुआत थी. उन्होंने कई दरवाजों पर दस्तक दी और जमीन के दूसरे टुकड़े के लिए पट्टा जारी करने के लिए याचिका दायर की.

यशोदा ने द हिंदू का बताया कि आखिरकार, अधिकारियों ने उनसे कोई और जमीन चुनने के लिए कहा, तो उन्होंने प्लॉट 507 के लिए पट्टा मांगा. सालों की देरी के बाद, अधिकारियों ने यह कहते हुए पट्टा जारी करने से इनकार कर दिया कि ज़मीन सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए निर्धारित की गई थी.

“हमने अधिकारियों से उस जमीन के लिए पट्टा प्रदान करने के लिए याचिका दायर की, जहां हम इतने लंबे समय से रह रहे हैं. तब हमें पता चला कि उस ज़मीन के लिए पहले से ही एक दूसरे आदिवासी परिवार को पट्टा जारी किया जा चुका था. हालांकि, वह लोग ज़मीन पर दावा करने के लिए कभी नहीं आए,” यशोदा ने कहा.

2018 में आदिम जाति कल्याण विभाग और राजस्व विभाग द्वारा एक संयुक्त निरीक्षण किया गया था. यशोदा का दावा है कि राजस्व अधिकारियों ने परिवार के पक्ष में पट्टा बदलने पर सहमति जताते हुए आदिम जाति कल्याण विभाग को पत्र लिखा. उनका आरोप है कि आदिम जाति कल्याण विभाग के अधिकारियों ने अभी तक इस पर कोई कार्रवाई नहीं की है.

यशोदा का पति बीमारी की वजह से काम पर नहीं जासकता. उनकी तीनों बेटियां अब विवाह योग्य उम्र तक पहुंच चुकी हैं.

हाल ही में, परिवार ने जिला कलेक्टर एस चंद्रशेखर को एक और याचिका सौंपी. कलेक्टर ने उनकी शिकायत को दूर करने का वादा किया है.

आदिवासी दलित मुनेटा समिति के प्रदेश अध्यक्ष श्रीरामन कोयोन का कहना है कि यह ऐसा इकलौता मामला नहीं है. जब आदिवासी परिवारों ने आंदोलन में हिस्सा लिया और जमीन पर कब्जा कर लिया, तो उन्हें पट्टा नहीं दिया गया. नतीजतन, वे राज्य और केंद्र सरकारों द्वारा दिए गए किसी भी लाभ पाने और खेत में हाथियों के बढ़ते खतरे के बावजूद घर बनाने में असमर्थ रहे.

द हिंदू के मुताबिक अनुसूचित जनजाति विकास परियोजना अधिकारी जैकलीन शिनी फर्नांडस का कहना है कि उन्हें अभी तक कलेक्टर को दी गई याचिका नहीं मिली है. जैसे ही उन्हें याचिका मिलेगी तो साइट प्रबंधक के साथ मामले पर चर्चा की जाएगी और पट्टा जारी नहीं करने के पीछे की वजहों को समझने के लिए स्टडी की जाएगी.

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