देश में 150 से अधिक आदिवासी और वनवासी संगठनों का प्रतिनिधित्व करने वाले एक प्रमुख समूह ने गुरुवार को कहा कि केंद्र सरकार द्वारा राष्ट्रीय हरित अधिकरण (National Green Tribunal) को सौंपे गए वन क्षेत्र अतिक्रमण के आंकड़े प्रामाणिक नहीं हैं. क्योंकि सरकार ने अभी तक वन अधिकार अधिनियम को पूरी तरह से लागू नहीं किया है.
इस मामले पर केंद्रीय पर्यावरण मंत्रालय की कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है.
वन अधिकार अधिनियम, 2006 आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों के उस भूमि पर अधिकारों को मान्यता देता है, जिस पर वे पीढ़ियों से रह रहे हैं और जिसकी रक्षा कर रहे हैं.
हालांकि, इसके क्रियान्वयन में उल्लंघन की घटनाएं सामने आई हैं, जिसमें बड़ी संख्या में दावों को गलत तरीके से खारिज कर दिया गया है.
साल 2019 में एक वन्यजीव एनजीओ द्वारा दायर याचिका पर सुनवाई करते हुए, सुप्रीम कोर्ट ने 17 लाख से अधिक परिवारों को बेदखल करने का आदेश दिया, जिनके एफआरए दावों को खारिज कर दिया गया था.
देशव्यापी विरोध के बाद अदालत ने फरवरी 2019 में आदेश को रोक दिया और खारिज किए गए दावों की समीक्षा करने का निर्देश दिया.
हालांकि, कई आदिवासी समुदायों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों का आरोप है कि समीक्षा प्रक्रिया त्रुटिपूर्ण रही, केंद्र और राज्य सरकारें कानून को ईमानदारी से लागू करने में विफल रहीं.
न्यूज एजेंसी पीटीआई ने मंगलवार को बताया कि पर्यावरण मंत्रालय ने एनजीटी को एक रिपोर्ट सौंपी है. जिसमें कहा गया है कि मार्च 2024 तक 25 राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में कुल 13,05,668.1 हेक्टेयर वन भूमि पर अतिक्रमण है, जिन्होंने अब तक डेटा उपलब्ध कराया है.
वहीं दस राज्यों ने अभी तक वन अतिक्रमण पर डेटा प्रस्तुत नहीं किया है.
पिछले साल अप्रैल में पीटीआई की एक रिपोर्ट पर स्वतः संज्ञान लेते हुए एनजीटी ने मंत्रालय को राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों से अतिक्रमण और उनकी स्थिति के बारे में डेटा एकत्र करने का आदेश दिया था.
रिपोर्ट 28 मार्च को एनजीटी को सौंपी गई थी, जो वन अधिकार अधिनियम, 2006 की संवैधानिकता को चुनौती देने वाले एक मामले में बुधवार को सुप्रीम कोर्ट में होने वाली सुनवाई से ठीक पहले थी.
हालांकि सुनवाई नहीं हो सकी क्योंकि तीन न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ का गठन अभी तक नहीं हुआ है. लेकिन आदिवासी और वनवासियों के संगठनों ने आरोप लगाया कि एनजीटी को सौंपी गई रिपोर्ट से पता चलता है कि केंद्र सरकार एफआरए के तहत आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों के अधिकारों के संरक्षण पर अस्पष्ट है.
छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड, महाराष्ट्र और गुजरात सहित 10 राज्यों के आदिवासी और वनवासी संगठनों के राष्ट्रीय मंच, कैम्पेन फॉर सर्वाइवल एंड डिग्निटी (Campaign for Survival and Dignity) ने एक बयान में कहा कि एनजीटी का मामला आदिवासियों और अन्य पारंपरिक वन निवासियों के लिए बड़े पैमाने पर बेदखली का एक और ख़तरा पैदा करता है.
शोधकर्ता सी आर बिजॉय ने कहा कि जब सुप्रीम कोर्ट ने 2019 में एफआरए विरोधी मामले में उनके आवेदन खारिज होने के बाद दावेदारों को बेदखल करने का आदेश दिया तो केंद्र और राज्य सरकारों ने स्वीकार किया कि सभी खारिज किए गए दावों की समीक्षा की जरूरत है, क्योंकि कई दावे कानून के अनुसार खारिज नहीं किए गए थे.
कानून के मुताबिक, वनवासियों के अधिकारों को पहले पहचाना जाना चाहिए, मान्यता दी जानी चाहिए और वन अधिकार अधिनियम के तहत दर्ज किया जाना चाहिए. उसके बाद ही अतिक्रमण और उसकी सीमा के मुद्दे पर विचार किया जा सकता है.
हालांकि, अधिकार संगठनों ने कहा कि वन अधिकार अधिनियम का क्रियान्वयन पिछले 16 वर्षों से लंबित है और फॉरेस्ट ब्यूरोक्रेट्स द्वारा इसका कड़ा विरोध किया जा रहा है .
उन्होंने सवाल उठाया कि सरकार अतिक्रमण के आंकड़े कैसे पेश कर सकती है, जबकि उसने पहले ही सुप्रीम कोर्ट को बताया था कि वन अधिकारों को मान्यता देने और निर्धारित करने की प्रक्रिया अधूरी और त्रुटियों से भरी हुई है.
उन्होंने पर्यावरण मंत्रालय की आलोचना की कि उसने एनजीटी को अतिक्रमणों के बारे में “झूठे” आंकड़े सौंपे हैं.
अधिकार संगठनों ने पूछा कि मंत्रालय यह स्वीकार करने से क्यों कतरा रहा है कि वन अधिकार अधिनियम के तहत वन अधिकारों को मान्यता देना अतिक्रमणों से निपटने से पहले पहला कदम होना चाहिए.
उन्होंने पूछा, “इनमें से कितने अतिक्रमणकारी वास्तव में वन अधिकार धारक हैं? क्या सरकार एक और सामूहिक बेदखली आदेश का मार्ग प्रशस्त कर रही है, इस बार एक अन्य न्यायालय के माध्यम से?”
2006 में संसद द्वारा वन अधिकार अधिनियम देश भर में आदिवासी और अन्य पारंपरिक वन निवासियों द्वारा किए गए लम्बे संघर्षों से निकला कानून है.
आदिवासियों और वन निवासियों को व्यवस्थित रूप से शोषित किया गया, अपनी ही जमीन से बेदखल किया गया और औपनिवेशिक काल और आज़ादी के बाद भी जंगल पर उनके अधिकार के निर्णय प्रक्रिया से वंचित रखा गया. उनके लिए वन अधिकार अधिनियम एक महत्वपूर्ण विधायी और कानून है.
लेकिन कानून होने के बावजूद आज भी आदिवासियों और वन निवासियों को जबरन बेदखली और विस्थापन का सामना करना पड़ रहा है.