मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं अब केवल शहरी क्षेत्र की समस्या नहीं रह गई हैं. बनारस हिंदू विश्वविद्यालय (BHU) के मनोवैज्ञानिकों द्वारा की गई एक स्टडी से पता चला है कि ओडिशा के आदिवासी समुदायों में मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं का अधिक ख़तरा है.
ओडिशा के 36 प्रतिशत से अधिक उत्तरदाताओं में मध्यम अवसाद और 11 प्रतिशत में गंभीर अवसाद पाया गया.
बीएचयू में सहायक प्रोफेसर कविता पांडे ने कहा, “अवसाद, तनाव और चिंता एक दशक पहले शहरी क्षेत्र की समस्या थी. अब ये स्वास्थ्य समस्याएं राज्य के आदिवासी इलाकों में आम तौर पर दिखाई देती हैं. उनकी खराब सामाजिक-आर्थिक स्थिति, विश्वास, नशीले पदार्थों का सेवन, घरेलू हिंसा और अपर्याप्त प्रोटीन और वसा का सेवन ऐसी स्वास्थ्य समस्याओं के बढ़ने के पीछे कारण हो सकते हैं.”
पांडे और उनकी टीम ने ओडिशा में आदिवासी समुदायों पर 25 शोधपत्रों का विश्लेषण किया, जिसमें टीबी, मलेरिया, दस्त और कई अन्य संक्रमणों और संक्रमणों जैसे विभिन्न शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य मुद्दों का खुलासा किया गया.
निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति, शिक्षा की कमी, सामाजिक रीति-रिवाज, खराब स्वच्छता, कुपोषण, बीमार रहने की स्थिति और फूड इंसिक्योरिटी को इस समस्या के कारणों के रूप में जिम्मेदार ठहराया गया है.
स्टडी के मुताबिक, आदिवासी समुदाय तनाव, अवसाद और बाइपोलर डिसऑर्डर जैसे विभिन्न प्रकार के मानसिक स्वास्थ्य मुद्दों से भी पीड़ित हैं.
राज्य की करीब 28 प्रतिशत आदिवासी उत्तरदाताओं में न्यूनतम अवसाद था और 24 प्रतिशत से अधिक में हल्का अवसाद था.
यह 25 वर्ष से कम आयु के लोगों में सबसे अधिक प्रचलित था, जो करीब 44 प्रतिशत उत्तरदाताओं को प्रभावित करता था. इसके अलावा प्रसवोत्तर (Postpartum period) आदिवासी महिलाओं ने बताया कि महिलाओं को हल्के से मध्यम स्तर के तनाव और अवसादग्रस्तता के लक्षणों का अनुभव हुआ.
क्रॉस-सेक्शनल शोध का हवाला देते हुए, पांडे ने कहा कि अध्ययन किए गए 3,625 आदिवासी लोगों में से 24 प्रतिशत से अधिक साइकोलॉजिकल स्ट्रेस से पीड़ित थे और 29 प्रतिशत से अधिक लोगों में साइकोलॉजिकल डिसऑर्डर के बारे में जानकारी की कमी थी.
पांडे का कहना है कि चिंता की बात यह है कि बहुत ज्यादा प्रसार के बावजूद आदिवासी समुदाय इन मानसिक मुद्दों के बारे में जागरूक नहीं हैं और अभी भी अपनी पारंपरिक प्रथाओं पर निर्भर हैं. सरकार को इस तरह के स्वास्थ्य मुद्दों से निपटने के लिए कदम उठाना चाहिए और बहुत देर होने से पहले सुविधाएं उपलब्ध करानी चाहिए.
शोधकर्ताओं ने कहा कि इलाज के लिए, आदिवासी अलग-अलग तरह के पारंपरिक तरीकों का उपयोग करते हैं जैसे कि खांसी के लिए जंगली चींटी की चटनी, दस्त के लिए ‘अमर पोई’ का पत्ता और मलेरिया और बुखार के लिए ‘गंगासुली’ के पत्ते का रस.
अंधविश्वास और गरीबी एक महत्वपूर्ण बाधा है, जो आदिवासियों को चिकित्सा उपचार लेने से रोकती है.
एक अन्य शोधकर्ता नरेश बेहरा ने कहा कि आदिवासी समुदायों में अंधविश्वासों को दूर करने और उनकी धारणाओं को बदलने के लिए उनके मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य को बेहतर बनाने की तत्काल आवश्यकता है. सरकार को उनकी शिक्षा को प्राथमिकता देनी चाहिए, सामुदायिक चिकित्सा लागू करनी चाहिए और व्यापक सामाजिक-आर्थिक विकास योजनाएं बनानी चाहिए.
मेंटल हेल्थ क्या है?
हम क्या सोचते हैं, क्या महसूस करते हैं और किन कार्यों को करते हैं ये हमारा दिमाग तय करता है. हमारा दिमाग पर बुरा असर पड़ रहा है, तो ये तय है कि मेंटल हेल्थ बिगड़ी हुई है.
आज मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम्स का सामना लगभग हर इंसान कर रहा है लेकिन, शारीरिक स्वास्थ्य की तुलना में मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम्स ज्यादातर लोग कम जानकारी के आभाव में अनदेखा कर देते हैं. उन्हें लगता है कि दिखने वाले ये लक्षण किसी आम बीमारी के होंगे और बाद में ये ही लक्षण एक गंभीर मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम्स का रूप ले लेते हैं. एंग्जाइटी, डिप्रैशन सबसे ज्यादा कॉमन मेंटल हेल्थ से जुड़ी बीमारियां हैं.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organisation) में नेशनल केयर ऑफ़ मेडिकल हेल्थ (National Care of Medical Health) के लिए साल 2022 में की गई एक रिसर्च में कहा गया है कि कम से कम 6.5 फीसदी भारतीय किसी न किसी तरह के मानसिक विकार से पीड़ित हैं.
भारत में मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम्स की संख्या इसीलिए ज्यादा बढ़ रही है क्योंकि लोग मेंटल हेल्थ प्रॉब्लम्स (Mental Health Problems) को कम आंकते हैं.
दरअसल, शारीरिक समस्याएं दिख या महसूस हो जाती हैं तो हम इनका इलाज करवा लेते हैं. लेकिन हम बिगड़ी हुई मेंटल हेल्थ पर बहुत कम ध्यान देते हैं. विश्व स्वास्थ्य संगठन भी ये बात कह चुका है कि इस दुनिया में हर 8 में से 1 व्यक्ति मानसिक रोगी होता है.
भारत दुनिया की सबसे बड़ी जनजातीय आबादी रही है. कुल भारतीय आबादी का 8.6 फीसदी अनुसूचित जनजाति है. जनजातीय आबादी कई कारणों से मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों के प्रति अधिक संवेदनशील है. जैसे कि तेज़ी से बदलते सामाजिक परिवर्तनों का प्रभाव उनकी जीवन शैली, विश्वास और सामुदायिक जीवन को बदल देता है.
इन हालात में इन सबका प्रभाव उनके मानसिक स्वास्थ्य पर पड़ता है, लेकिन वो इसे समझ नहीं पाते क्योंकि इसके प्रति वो जागरुक नहीं है.