भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के इतिहास में वीर सुरेन्द्र साय का नाम एक ऐसे जनजातीय नायक के रूप में दर्ज है जिन्होंने अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ 37 साल तक अदम्य संघर्ष किया.
गोंड जनजाति के इस योद्धा ने न सिर्फ अपनी माटी के सम्मान के लिए लड़ाई लड़ी बल्कि जेल की यातनाओं को झेलते हुए अपने प्राणों तक का बलिदान दे दिया. उनका जीवन आदिवासी समाज के लिए गर्व और प्रेरणा का स्रोत है.
सुरेन्द्र साय का जन्म 23 जनवरी 1809 को उड़ीसा के संबलपुर जिले के खिंडा गाँव में हुआ.
वे गोंड जनजाति से थे. माना जाता है कि वे संबलपुर के चौहान वंश के वंशज थे.
उनके पिता धर्म सिंह ने उन्हें बचपन से ही स्वाभिमान और साहस की शिक्षा दी.
1827 में संबलपुर के राजा की मृत्यु के बाद अंग्रेजों ने रानी मोहन कुमारी के हाथों से शासन छीनकर नारायण सिंह को सत्ता सौंपी जिससे जनता में आक्रोश फैल गया. इसी आक्रोश ने सुरेन्द्र साय को एक क्रांतिकारी नेता के रूप में उभारा.
अंग्रेज़ों से टकराव की शुरुआत
1833 में सुरेन्द्र साय ने संबलपुर के सिंहासन पर अपना दावा पेश किया लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें अस्वीकार कर दिया.
इसके बाद उन्होंने अंग्रेजी शासन के खिलाफ खुला विद्रोह छेड़ दिया. 1840 में उन्होंने रामपुर पर हमला कर अंग्रेजों के समर्थक जमींदार दरिआर सिंह को पराजित किया.
इस घटना के बाद अंग्रेजों ने सुरेन्द्र को गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल में डाल दिया, जहाँ उन्होंने 17 साल (1840-1857) तक कठोर यातनाएँ झेलीं.
1857 की क्रांति
1857 के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान क्रांतिकारियों ने हज़ारीबाग जेल तोड़कर सभी बंदियों को मुक्त कराया. सुरेन्द्र साय भी आजाद होकर संबलपुर लौटे.
अंग्रेज़ी अधिकारी कैप्टन ली ने उन्हें धोखे से बंदी बनाने की कोशिश की लेकिन सुरेन्द्र 31 अक्टूबर 1857 की रात जेल से फरार हो गए.
इसके बाद उन्होंने जंगलों में रहकर गुरिल्ला युद्ध की रणनीति अपनाई. कैप्टन उड़बीज के नेतृत्व में अंग्रेजों ने उन पर हमला किया लेकिन सुरेन्द्र की सेना ने कुदावाली गाँव के पास उन्हें मात दी. इस युद्ध में उनके भाई छबिल साय समेत 53 क्रांतिकारी शहीद हुए.
अंतिम गिरफ्तारी
1858 में कैप्टन फ़रस्टर ने संबलपुर का कार्यभार संभाला और क्रूर दमन शुरू किया. सुरेन्द्र के भतीजे उज्जवल साय को फाँसी दे दी गई. 1861 में मेजर इम्फो ने शासन संभाला लेकिन 1863 में उनकी मृत्यु हो गई. इसी बीच दयानिधि मेहेर नामक एक गद्दार ने अंग्रेजों का मुखबिर बन सुरेन्द्र के ठिकाने की जानकारी दी. 23 जनवरी 1864 की रात अंग्रेजों ने उनके घर को घेरकर परिवार समेत गिरफ्तार कर लिया.
कारावास में अंतिम साँसें
सुरेन्द्र साय को असुरगढ़ दुर्ग (वर्तमान ओडिशा) में कैद कर दिया गया.
20 साल तक अंधेरी कोठरी में रहने के बाद 28 फरवरी 1884 को इस वीर ने अपने प्राण त्याग दिए. मृत्यु के समय भी उनके हाथ-पैरों में जंजीरें थीं.
वीर सुरेन्द्र साय का संघर्ष सिर्फ अंग्रेजों के खिलाफ नहीं बल्कि जनजातीय अस्मिता और स्वायत्तता की लड़ाई थी.
ओडिशा के संबलपुर में स्थित वीर सुरेन्द्र साय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय उनका नाम आज भी गौरव के साथ जीवित रखे हुए है.
यह संस्थान युवाओं को शिक्षा के साथ उनके बलिदान और आदर्शों की प्रेरणा देता है. यह विश्वविद्यालय उनके साहस, संघर्ष और आदिवासी स्वाभिमान का प्रतीक बना हुआ है.