महाश्वेता देवी (Mahasweta Devi) की शॉर्ट स्टोरी द्रौपदी को दिल्ली विश्वविद्यालय के इंग्लिश ऑनर्स के कोर्स से हटा दिया गया है. मंगलवार को दिल्ली यूनिवर्सिटी (Delhi University) के शैक्षणिक परिषद की बैठक में यह फ़ैसला लिया गया था.
बताया गया है कि इस बैठक में कई सदस्यों ने इस कहानी को हटाए जाने पर ऐतराज भी किया था. आख़िर इस कहानी में ऐसा क्या है कि इस कहानी को कोर्स से हटा दिया गया ? मूलतः बांग्ला में लिखी गई इस कहानी में शोषण के ख़िलाफ़ एक आदिवासी महिला के विद्रोह को दर्शाया गया है.
यह 27 साल की एक संथाल आदिवासी महिला दोपदी की कहानी है. दोपदी जो बलात्कार और यौन शोषण के खिलाफ लड़ती है. इस कहानी की नायिका दोपदी अपने पति दुलना के साथ मिलकर कई अमीर जमींदारों की हत्या करती है.
सही या ग़लत पर यह भी उसका शोषण के ख़िलाफ़ एक तरह का विद्रोह था. क्योंकि ज़मींदारों ने गांव के पानी के स्रोतों पर कब्जा कर रखा था. वो पानी के स्रोतों को अपने आधीन करती है. इससे गांव में पानी की समस्या समाप्त हो सके.
एक दिन विद्रोही बन चुकी दोपदी को गिरफ़्तार कर लिया जाता है. हिरासत में लिए जाने के बाद सिपाही उसका रेप करते हैं. दोपदी का बलात्कार करने के बाद सिपाही उसे कपड़े पहनने को कहते हैं.
सिपाही को दोपदी को अफसर के पास ले जाना था. लेकिन दोपदी कपड़े पहनने से इनकार कर देती है. बल्कि वह अपने कपड़ों को दांतों से फाड़कर फेंक देती है.
वो बिना कपड़े के ही दिन की रोशनी में अफसर के सामने चली जाती है और वो कहती है कि मैं कपड़े क्यों पहनूं, यहां पर एक भी इंसान ऐसा नहीं जिससे मैं शर्माऊं. उसके इस रूप से सब आश्चर्य में पड़ जाते हैं. नंगे बदन दोपदी बिल्कुल निहत्थी थी लेकिन फिर भी अफ़सर उसे देख कर डर जाता है.
महाश्वेता देवी की इस कहानी में एक ऐसी आदिवासी महिला का चरित्र दर्शाया गया है, जो शोषण और ज़ुल्म के खिलाफ लड़ाई लड़ती है. उसके लड़ने के जिन तरीकों को लेखक ने दिखाया है उससे किसी की असहमति हो सकती है.
लेकिन यह कहानी दिल्ली विश्वविद्यालय या किसी भी संस्थान में पढ़ाने लायक़ नहीं है, यह नहीं कहा जा सकता. क्योंकि दोपदी के लड़ने के तरीक़ों से असहमति रखने वाले भी यह मानेंगे कि आदिवासी महिलाओं के शोषण की जिस तरह की घटनाओं को दर्शाया गया है, वैसी घटना होती हैं.
इस लघुकथा की लेखिका महाश्वेता देवी को साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया था. उनके बारे में कहा जाता है कि वो नक्सल आंदोलन का समर्थन करती थीं. जिन सरकारों के ज़माने में उन्हें साहित्य और नागरिक सम्मानों से नवाज़ा गया, वो सरकारें नक्सल आंदोलन को देश के लिए ख़तरा मानती थीं.
लेकिन उन सरकारों को भी महाश्वेता देवी की कहानियों से डर नहीं लगा था. पर शायद आज की सरकार कविता और कहानियों से सबसे अधिक डरती है.