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राजस्थान की राजनीति में ‘भील प्रदेश’ की मांग फिर से क्यों चर्चा में है?

राजस्थान विधानसभा में भील प्रदेश की मांग खारिज होने के बाद बांसवाड़ा सांसद राजकुमार रोत ने अपनी अगली रणनीति को लेकर बताया कि एक प्रतिनिधिमंडल भील समुदाय के लिए अलग राज्य के प्रस्ताव के साथ राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मुलाकात करेगा.

राजस्थान में एक बार फिर भील आदिवासी समुदाय (Bhil tribal community) की अलग राज्य की मांग जोर पकड़ रही है. 18 जुलाई को आदिवासी बहुल बांसवाड़ा जिले के मानगढ़ धाम (Mangarh Dham) में भील समुदाय के कई सदस्य एक “महा सम्मेलन” के लिए एकत्र हुए और चार राज्यों से 49 जिलों को अलग करके “भील प्रदेश” (Bhil Pradesh) के रूप में अलग राज्य की मांग उठाई.

आदिवासी नेताओं ने गुजरात के 14, मध्य प्रदेश के 13, राजस्थान के 12 और महाराष्ट्र के 6 जिलों को मिलकर भील प्रदेश बनाने की मांग की है.

इनमें गुजरात के सूरत, वडोदरा, तापी, नवसारी, छोटा उदेपुर, नर्मदा, साबरकांठा, बनासकांठा, भरूच, वलसाड़, अरवल्ली, महीसागर, दाहोद और पंचमहल जिले हैं.

वहीं, मध्य प्रदेश का इंदौर, गुना, शिवपुरी, मंदसौर, नीमच, रतलाम, बुरहानपुर, बड़वानी, आलीराजपुर, धार, देवास, खंडवा और खरगोन जिला शामिल है.

राजस्थान के राजसमंद, चित्तौड़गढ़, कोटा, बारां, पाली, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, बाड़मेर, जालौन, सिरोही, उदयपुर और झालावाड़. ममहाराष्ट्र के नासिक, ठाणे, जलगांव, धुले, पालघर, नंदुरबार जिले मांग में शामिल हैं.

वहीं बांसवाड़ा से पहली बार सांसद बने राजकुमार रोत (Rajkumar Roat) ने मंगलवार को कहा कि बड़ी रैली के बाद एक प्रतिनिधिमंडल प्रस्ताव लेकर राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री से मिलेगा.

पिछले कई सालों से आदिवासी नेताओं द्वारा भील प्रदेश की मांग लगातार उठाई जाती रही है और पिछले साल भारतीय आदिवासी पार्टी (BTP) से अलग होकर बनी भारत आदिवासी पार्टी (BAP) ने हाल ही में हुए लोकसभा चुनावों में अपने प्रदर्शन से उत्साहित होकर नए जोश के साथ इस मांग को आगे बढ़ाया है.

राजकुमार रोत द्वारा स्थापित बीएपी ने अपने लोकसभा चुनाव घोषणापत्र में भील प्रदेश की मांग को शामिल किया था और कहा था कि चुनाव के बाद पार्टी का फोकस इसी पर रहेगा. रोत ने मानगढ़ धाम में समुदाय की बैठक भी बुलाई थी.

‘भील प्रदेश’ की मांग क्या है?

भारतीय आदिवासी पार्टी के मुताबिक, प्रस्तावित भील प्रदेश में राजस्थान, मध्य प्रदेश, गुजरात और महाराष्ट्र सहित चार राज्यों के 49 जिले शामिल होंगे. इसमें राजस्थान के 12 जिले शामिल होंगे.

2011 की जनगणना के मुताबिक, देश भर में 1.7 करोड़ भील हैं. उनकी सबसे बड़ी संख्या मध्य प्रदेश में करीब 60 लाख है, इसके बाद गुजरात में 42 लाख, राजस्थान में 41 लाख और महाराष्ट्र में 26 लाख हैं.

अलग भील प्रदेश की आवश्यकता के बारे में पूछे जाने पर रोत ने कहा कि यह मांग भूगोल, संस्कृति और भाषा पर आधारित है.

रोत ने इंडियन एक्सप्रेस को बताया, “अगर आप डूंगरपुर या नासिक में आदिवासी लोगों से बात करेंगे तो हम सभी भीली बोलते हैं और हमारी संस्कृति एक जैसी है. अगर गुजरात और महाराष्ट्र को समान संस्कृतियों और भाषाओं के कारण अलग किया जा सकता है तो भील प्रदेश क्यों नहीं? इसके अलावा, यह कहना सही नहीं है कि नव निर्मित राज्य सिर्फ़ भीलों के लिए होगा. 18 जुलाई को आयोजित सभा में राजपूत, अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और मुस्लिम समुदाय के नेता हमारे मुद्दे का समर्थन कर रहे थे.”

भील प्रदेशकी मांग का इतिहास क्या है?

रोत और अन्य बीएपी नेताओं के मुताबिक, भील ​​प्रदेश की मांग 1913 से चली आ रही है. बीटीपी नेताओं का दावा है कि आदिवासी कार्यकर्ता और समाज सुधारक गोविंद गिरी बंजारा ने पहली बार 1913 में भील राज्य की मांग की थी, जब उन्होंने मानगढ़ हिल पर हजारों आदिवासियों की एक सभा को संगठित किया था.

17 नवंबर, 1913 को विद्रोह के लिए अंग्रेजों ने करीब 1,500 आदिवासियों का नरसंहार किया था.

रोत ने कहा कि उनकी पार्टी अपने पूर्वजों के पदचिन्हों पर चल रही है. उन्होंने कहा, ‘गोविंदजी महाराज ने अलग भील राज्य की मांग की थी ताकि आदिवासियों का शोषण खत्म हो, जो इतने लंबे समय से चल रहा है. ब्रिटिश सरकार ने 1900 के दशक में अलग भील राज्य के लिए नक्शा भी तैयार किया था. जो इस बात का सबूत है कि यह कोई नई मांग नहीं है बल्कि हम अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं.’

पिछले कई सालों से कई आदिवासी नेताओं ने अलग भील राज्य की मांग उठाई है. तत्कालीन वसुंधरा राजे के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार में पूर्व मंत्री नंद लाल मीना ने आदिवासी समुदाय के लिए अलग राज्य की मांग की थी और कई पूर्व सांसदों और विधायकों ने इसका समर्थन किया था.

हालांकि, मीना समेत कई लोगों ने हाल के सालों में इस मुद्दे पर अपना रुख नरम कर लिया है.

कांग्रेस के सूत्रों का कहना है कि पार्टी ने हमेशा भील प्रदेश की मांग का समर्थन किया है क्योंकि आदिवासी इलाकों में इसकी मजबूत उपस्थिति है.

हालांकि, बीटीपी और बीएपी के उदय के बाद से कांग्रेस इस मुद्दे पर पीछे हट गई है और अब उसने मुखर रूप से इसका समर्थन नहीं करने का निर्णय लिया है.

राजस्थान में इस मांग की कितनी गूंज है?

पिछले गुरुवार को राजस्थान विधानसभा में भील राज्य की मांग उठाई गई थी.

धारियावाड़ से बीएपी विधायक थावरचंद मीना ने कहा, “आज जब मैं सदन में बोल रहा हूं, तो चार राज्यों से 10 लाख आदिवासी मानगढ़ धाम में महासम्मेलन में हिस्सा ले रहे हैं. हम आदिवासी गुजरात, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश और राजस्थान में बंटे हुए हैं. हमारी भाषा, संस्कृति, रीति-रिवाज एक जैसे हैं, फिर हम सब मिलकर भील राज्य क्यों नहीं बना सकते?”

विधानसभा सत्र के दौरान बीएपी के दोनों विधायकों ने ‘भील प्रदेश’ की टी-शर्ट पहनी हुई थी.

वहीं भजनलाल सरकार ने भील प्रदेश की मांग को खारिज कर दिया है. क्योंकि आदिवासी क्षेत्र विकास मंत्री बाबूलाल खराड़ी ने इस मांग पर आपत्ति जताई है.

हाल ही में खराड़ी ने कहा, “लोकतंत्र में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता है. हर व्यक्ति को मांग करने का अधिकार है और छोटे राज्य होने चाहिए क्योंकि यह विकास के लिए अच्छा है. हालांकि जाति के आधार पर राज्य बनाना उचित नहीं है. अगर आज आदिवासी हैं, तो कल आपको अन्य समुदाय भी अपनी जाति के आधार पर यही मांग करते दिखेंगे, जो समाज और देश के लिए अच्छा नहीं है. जबकि हम सामाजिक समरसता की बात करते हैं.”

इस मुद्दे पर क्या होगा?

18 जुलाई को रोत और अन्य बीएपी नेताओं ने सार्वजनिक रूप से स्वीकार किया कि अलग राज्य की उनकी मांग जल्द पूरी नहीं होगी. लेकिन वे आंदोलन को जिंदा रखने के लिए अपना संघर्ष जारी रखेंगे.

हालांकि, एक अन्य आदिवासी बहुल जिले डूंगरपुर के एक सरपंच ने कहा कि भील प्रदेश की मांग पूरी नहीं होगी, खासकर यह देखते हुए कि इसे चार राज्यों से अलग करना होगा.

उन्होंने कहा कि बीएपी ने भील प्रदेश के मामले को लेकर आदिवासी युवाओं में उत्साह बढ़ाया है. बीएपी में हर कोई समझता है कि यह सपना पूरा नहीं होगा, लेकिन बीएपी नेता आदिवासी राजनीति में प्रासंगिक बने रहने के लिए इसे खबरों में बनाए रखना चाहते हैं क्योंकि ये क्षेत्र ज्यादातर आदिवासी हैं.

सरपंच के मुताबिक, उनका (बाप) सपना इस मुद्दे को जितना संभव हो सके उतना आगे बढ़ाना है ताकि इन राज्यों में आने वाले चुनाव जीत सकें.

अब यह देखना है कि वे चुनावों में इस मुद्दे का कितना अच्छा उपयोग कर पाते हैं.

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