ओडिशा हाल ही में देश के उन तीन राज्यों में शामिल हो गया है, जिन्होंने विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों (PVTGs) को वन अधिकार अधिनियम, 2006 (Forest Rights Act, 2006) के तहत आवास और पर्यावास अधिकार प्रदान किए हैं.
यह कदम न केवल आदिवासी समुदायों के लिए ऐतिहासिक है, बल्कि उनके अस्तित्व, संस्कृति और आजीविका की सुरक्षा की दिशा में भी एक महत्वपूर्ण प्रयास है.
वन अधिकार अधिनियम, 2006 की पृष्ठभूमि
भारत में वन क्षेत्रों में निवास करने वाले आदिवासी और अन्य पारंपरिक वनवासी समुदायों को उनकी भूमि और संसाधनों से बेदखल किए जाने की समस्या लंबे समय से बनी हुई थी. इस अन्याय को दूर करने के लिए वर्ष 2006 में वन अधिकार अधिनियम (FRA) लागू किया गया.
यह अधिनियम आदिवासी समुदायों को उनके पारंपरिक भूमि अधिकार, वन संसाधनों के उपयोग और सुरक्षा के अधिकार प्रदान करता है.
आवास और पर्यावास अधिकार क्या हैं?
आवास अधिकार वन अधिकार अधिनियम के सामुदायिक वन अधिकारों के अंतर्गत आते हैं. वन अधिकार अधिनियम की धारा 2(एच) में ‘आवास’ को विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों और कृषि पूर्व समुदायों द्वारा निवास किए जाने वाले क्षेत्रों के रूप में परिभाषित किया गया है.
यह अधिकार उनके प्रथागत आवास, जंगलों में सामुदायिक अधिकारों और अन्य पारंपरिक उपयोगों को मान्यता देता है.
भारत सरकार और जनजातीय मामलों के मंत्रालय ने अप्रैल 2015 में यह स्पष्ट किया कि पीवीटीजी समुदायों द्वारा उपयोग किए जाने वाले पारंपरिक क्षेत्रों पर आवास और पर्यावास अधिकार प्रदान किए जाने चाहिए. इसमें निवास, आजीविका, धार्मिक और सामाजिक-सांस्कृतिक उद्देश्यों के लिए उपयोग किए जाने वाले क्षेत्र शामिल हैं.
ओडिशा में आवास और पर्यावास अधिकारों की स्वीकृति
ओडिशा सरकार ने अपने 13 विशेष रूप से कमज़ोर जनजातीय समूहों में से 7 और अन्य पारंपरिक वनवासियों के लिए आवास अधिकारों को मान्यता दी है. इस पहल में सरकार ने गैर-लाभकारी संस्था ‘वसुंधरा’ के सहयोग से काम किया, जिसने इस मुद्दे पर 2014 में जनजातीय मामलों के मंत्रालय के साथ एक अध्ययन भी किया था.
अध्ययन के अनुसार, पीवीटीजी समुदायों के लिए पर्यावास का अर्थ केवल निवास स्थान नहीं, बल्कि वह संपूर्ण क्षेत्र है जहां उनका आध्यात्मिक और भौतिक संबंध बना रहता है.
पर्यावास अधिकार का महत्व
संस्कृति और परंपरा की सुरक्षा:
- आवास और पर्यावास अधिकार से पीवीटीजी समुदायों को अपने पारंपरिक धार्मिक और सांस्कृतिक स्थलों की सुरक्षा का कानूनी आधार मिलता है.
- कब्रिस्तान, जन्मस्थान, पूजा स्थल, देवता स्थल और पारंपरिक उत्सवों के आयोजन स्थलों को संरक्षित किया जा सकता है.
आजीविका सुरक्षा:
- यह अधिकार समुदायों को उनकी पारंपरिक आजीविका पद्धतियों को जारी रखने की अनुमति देता है, जैसे कि झूम खेती, वनोपज संग्रह, शहद उत्पादन आदि.
- उनके पारंपरिक शिकार अधिकार इस अधिनियम में शामिल नहीं हैं, क्योंकि वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के तहत यह प्रतिबंधित है.
सामाजिक न्याय:
- आदिवासी समुदायों को उनकी भूमि से बेदखल किए जाने से रोकने में यह अधिनियम एक मजबूत कानूनी हथियार साबित हो सकता है.
- सामुदायिक निर्णय लेने की प्रक्रिया को मजबूत करने और पारंपरिक प्रशासनिक संरचनाओं को मान्यता देने में मदद करता है.
पर्यावरण संरक्षण:
- आदिवासी समुदायों को वन संरक्षण और पारंपरिक संसाधन प्रबंधन की उनकी सदियों पुरानी ज्ञान प्रणालियों को संरक्षित करने का अवसर मिलता है.
- सामुदायिक वन अधिकारों के तहत वे जंगलों को अवैध कटाई और खनन से बचाने में अधिक प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं.
ओडिशा के प्रयास और अन्य राज्यों से तुलना
मध्य प्रदेश देश का पहला राज्य था जिसने 2015 में सात बैगा गांवों को आवास अधिकार दिए थे. इसके बाद, छत्तीसगढ़ ने अगस्त 2023 में कमार और बैगा जनजातियों को आवास अधिकार दिए। अब, 2024 में, ओडिशा ने भी इस दिशा में कदम उठाया है.
ओडिशा के इस फैसले को एक मॉडल के रूप में देखा जा सकता है, जिसे अन्य राज्यों में भी लागू किया जा सकता है.
आवास अधिकार और अन्य वन अधिकारों में अंतर
वन अधिकार अधिनियम के तहत विभिन्न प्रकार के अधिकार उपलब्ध हैं, जिनमें से कुछ प्रमुख अधिकार निम्नलिखित हैं:
व्यक्तिगत वन अधिकार:
- यह एक परिवार को उसकी व्यक्तिगत भूमि पर खेती करने और निवास करने का अधिकार देता है.
सामुदायिक वन अधिकार:
- इसमें पूरे गांव या समुदाय को सामूहिक रूप से अपने क्षेत्र और संसाधनों पर अधिकार मिलता है.
सामुदायिक वन संसाधन अधिकार:
- यह समुदाय को जंगलों का उपयोग करने, उन्हें प्रबंधित करने और उनके संरक्षण के लिए योजनाएं बनाने की अनुमति देता है.
आवास और पर्यावास अधिकार:
- यह अधिकार विशेष रूप से पीवीटीजी समुदायों के लिए बनाया गया है और इसमें उनके निवास स्थान से लेकर आजीविका और सांस्कृतिक स्थलों तक के अधिकार शामिल हैं.
- यह अन्य वन अधिकारों से इस मायने में अलग है कि यह आदिवासी समुदायों की अस्थायी बस्तियों और खानाबदोश प्रकृति को भी मान्यता देता है.
चुनौतियाँ और आगे की राह
लागू करने में देरी:
- 2006 में लागू किए गए इस अधिनियम के बावजूद, अभी भी कई समुदायों को उनके अधिकार नहीं मिल पाए हैं.
- कई स्थानों पर प्रशासनिक बाधाओं और राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी के कारण इसका क्रियान्वयन धीमा रहा है.
अधिकारों की पुष्टि और पहचान:
- कई समुदायों को अभी भी यह नहीं पता कि वे इस अधिकार के पात्र हैं. सरकार को जागरूकता अभियानों को बढ़ाना होगा ताकि अधिक से अधिक समुदाय अपने अधिकारों के लिए आवेदन कर सकें. इसके अलावा इससे भी बड़ी समस्या आदिम जनजातियों के की जनसंख्या या गांवों के आंकड़ों का अभाव है.
- केंद्र सरकार ने आदिम जनजातियों को पक्का मकान और अन्य ज़रूरी सुविधाएं प्रदान करने के लिए 24000 करोड़ रूपए की पीएम जनमन योजना शुरु की थी. लेकिन इस योजना को लागू करने के लिए सरकार के पास ज़रूरी आंकड़े ही नहीं थे.
- मसलन सरकार को आदिम जनजातियों की ना तो सही सही जनसंख्या का अनुमान था और ना ही यह पता था कि कुल ऐसे कितने गांव हैं जहां पीएम जनमन योजना को लागू किया जाना है.
- किसी भी योजना या क़ानून को लागू करने के लिए इन आंकड़ों का उपलब्ध होना बेहद ज़रूरी शर्त होती है.
संरक्षण बनाम अधिकार का संघर्ष:
- कई बार वन विभाग और स्थानीय प्रशासन आदिवासियों के अधिकारों और वन संरक्षण के बीच संतुलन बनाने में विफल रहते हैं. यह जरूरी है कि वन अधिकार अधिनियम को वन संरक्षण कानूनों के साथ समन्वित रूप से लागू किया जाए.
ओडिशा का यह कदम आदिवासी समुदायों के लिए एक बड़ी जीत है और यह अन्य राज्यों के लिए एक प्रेरणा बन सकता है. आवास और पर्यावास अधिकार केवल भूमि के स्वामित्व का मुद्दा नहीं है, बल्कि यह आदिवासी समुदायों की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक पहचान का एक अभिन्न हिस्सा है.
हालांकि, इस अधिकार को प्रभावी रूप से लागू करने के लिए सरकार, नागरिक समाज और समुदायों को मिलकर काम करना होगा. इसमें सबसे ज़रूरी काम निगरानी का है. क्योंकि अक्सर यह देखा जाता है कि नौकरशाह और प्रशासनिक तंत्र इस तरह की पहल को कमज़ोर कर देते हैं.
यदि इन अधिकारों को सही तरीके से लागू किया जाता है, तो यह न केवल आदिवासियों के अस्तित्व को सुरक्षित रखेगा बल्कि उनके पारंपरिक ज्ञान और वन संरक्षण की तकनीकों को भी संरक्षित करने में मदद करेगा.