कर्नाटक के नागरहोल टाइगर रिजर्व में एक नया विवाद पनप रहा है. क्योंकि वन विभाग और आदिवासी लोग भूमि अधिकार, जबरन बेदखली और वन अधिकार अधिनियम (FRA) के कार्यान्वयन पर विवाद को लेकर तनावपूर्ण गतिरोध में उलझे हुए हैं.
मौजूदा गतिरोध का मुख्य कारण सोमवार को आस-पास के गांवों से करीब 150 आदिवासियों का अपनी पुश्तैनी जमीन पर प्रवेश करना है, ताकि वे जंगलों पर अपने अधिकार का दावा कर सकें और अपने देवताओं के लिए पवित्र वेदी का निर्माण कर सकें.
पिछले दो दिनों में नागरहोल टाइगर रिजर्व में अवैध रूप से घुसने वाले कई लोगों ने मंगलवार शाम को जंगल के अंदर अस्थायी शिविर और आश्रय स्थल बनाना शुरू कर दिया है. वे राज्य सरकार से वन भूमि देने की मांग कर रहे हैं.
सूत्रों ने कहा कि अधिकारों का दावा करने के लिए बाघ अभयारण्य में जबरन प्रवेश करने के ऐसे प्रयासों को अतिक्रमण माना जाएगा क्योंकि दावों को अभी तक मान्यता नहीं दी गई है.
हालांकि, आदिवासियों ने तर्क दिया कि उनके संवैधानिक अधिकारों की अनदेखी की जा रही है.
कराडीकल्लू वन अधिकार समिति के अध्यक्ष और नागरहोल आदिवासी जम्मापाले हक्कू स्थापना समिति के नेता जे.ए. शिवू ने कहा, “एफआरए नए अधिकार नहीं देता है, यह हमारे मौजूदा अधिकारों की पुष्टि करता है. यह हमारी मातृभूमि है.”
डेवलपमेंट थ्रू एजुकेशन के एस. श्रीकांत ने कहा कि आदिवासी आरसीसी संरचना का निर्माण नहीं कर रहे थे बल्कि देवता की पूजा करने के लिए लकड़ी आदि जैसी सामग्रियों से बनी एक वेदी बना रहे थे.
इसलिए वन विभाग की कार्रवाई निंदनीय है क्योंकि यह आदिवासियों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने के बराबर है.
उन्होंने कहा कि एच.डी. कोटे की बस्तियों के दौरे के दौरान मुख्यमंत्री सिद्धारमैया द्वारा हाल ही में दिए गए निर्देश के बावजूद कि आदिवासियों को परेशान नहीं किया जाना चाहिए. लेकिन अधिकारियों द्वारा अत्याचार जारी है.
ऐतिहासिक अन्याय को ठीक करने की मांग
पिछले कुछ सालों से आदिवासी विभिन्न बैनरों के तहत राज्य सरकार से मांग कर रहे हैं कि उनके साथ हुए ऐतिहासिक अन्याय को ठीक किया जाए.
राज्य भर में आयोजित अभियानों, बैठकों और प्रेस मीटिंगों में उन्होंने 1980 के दशक में नागरहोल के संरक्षित क्षेत्र को बनाने के लिए हजारों आदिवासियों को जबरन बेदखल किए जाने का जिक्र किया है.
मैसूर की मुख्य वन संरक्षक मालती प्रिया ने कहा, “आदिवासी टाइगर रिजर्व के अंदर भूमि मांग रहे हैं और वन अधिकार अधिनियम को रद्द करना चाहते हैं. वे चाहते हैं कि जंगल के अंदर तुरंत ग्राम सभा आयोजित की जाए और उन्हें भूमि अधिकार दस्तावेज दिए जाएं.”
उन्होंने आगे कहा कि मैंने इस मामले पर नागरहोल डायरेक्टर से बात की है. जो लोग जंगल में घुसे हैं, उनके एफआरए दावे खारिज कर दिए गए हैं. वे अब हमसे दावों पर फिर से विचार करने का आग्रह कर रहे हैं. संबंधित अधिकारी उनसे मिलने और उनकी चिंताओं को दूर करने के लिए पहले ही वहां जा चुके हैं.
इसी तरह की घटना छह साल पहले भी नागरहोल टाइगर रिजर्व में हुई थी, जहां आदिवासी और अन्य लोग जंगल में घुसकर वन भूमि पर अधिकार की मांग कर रहे थे.
अब स्वैच्छिक आदिवासी पुनर्वास कार्यक्रम के तहत स्थानांतरित किए गए आदिवासी उन लोगों के साथ वन भूमि पर अधिकार की मांग कर रहे हैं जो पहले से ही जंगल के अंदर रह रहे हैं.
नागरहोल आदिवासी जम्मापाले हक्कू स्थापना समिति ने पिछले शनिवार को एक बैठक की और बेंगलुरु में मीडिया को बताया कि वे वन अधिकार अधिनियम और आदिवासी पुनर्वास कार्यक्रम को रद्द करना चाहते हैं.
उन्होंने मुख्यमंत्री सिद्धारमैया द्वारा हाल ही में जारी किए गए आदेशों के कार्यान्वयन की भी मांग की. जिसमें जंगल के अंदर रहने वाले निवासियों को सभी सुविधाएं, जैसे – सड़क, पानी, बिजली प्रदान की गई हैं.
वहीं एक बयान में आदिवासी नेताओं ने कहा कि कराडीकल्लू के जेनु कुरुबा ने 2021 में अपने व्यक्तिगत और सामुदायिक वन अधिकार दावे दायर किए हैं.
उन्होंने कहा कि आदिवासी सोमवार को जंगल में घुसे और वन अधिकारियों ने उन्हें “अपने अनुष्ठान करने और पवित्र स्थानों के निर्माण” से रोकने की कोशिश की.
तब से, वे ज्ञापन सौंप रहे हैं और इसे सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों के संज्ञान में ला रहे हैं.
जेनु कुरुबा की महिला नेता जे के पुट्टी ने कहा कि वन अधिकार अधिनियम (FRA) द्वारा वादा किया गया सामाजिक न्याय अभी तक पूरा नहीं हुआ है. यह सामाजिक न्याय का मुद्दा है. हालांकि, सरकार इसे कानून और व्यवस्था के मुद्दे के रूप में देख रही है.
नागरहोल में एक वन अधिकारी ने कहा, “हम जंगल से बाहर निकलने या अधिक बलों को बुलाने में असमर्थ थे क्योंकि सोमवार को हमें घेर लिया गया था. हम सोमवार को पुलिस और वन विभाग के मुख्यालय से संपर्क करने में असमर्थ थे. मंगलवार देर शाम जब संदेश प्रसारित किया गया, तो मदद आई. लेकिन पुलिस लोगों को नहीं हटा रही है. हमारे पास उन्हें बलपूर्वक हटाने के लिए पर्याप्त जनशक्ति भी नहीं है.”
प्रधान मुख्य वन संरक्षक सुभाष बी मलखड़े ने कहा, “आदिवासी चाहते हैं कि उनके अधिकारों का निपटान किया जाए. लेकिन वे वनवासी नहीं हैं, वे बाहर से आए हैं. यह मुद्दा केवल वन विभाग का नहीं है. ग्राम, जिला और तालुका स्तर पर उप-समितियाँ हैं जिन्हें आदिवासी विकास विभाग के साथ आदिवासियों के अधिकारों पर ध्यान देना है.”
कार्यकर्ताओं ने वन विभाग द्वारा खारिज किए गए आदिवासियों के दावों की समीक्षा और उनके अधिकारों को जल्द से जल्द मान्यता देने की मांग की है.
एस. श्रीकांत ने कहा कि अगर इस मुद्दे को शांतिपूर्ण समाधान के बिना बढ़ने दिया जाता है, तो यह मुख्यमंत्री सिद्धारमैया पर बुरा असर डालेगा, क्योंकि अधिकारी उनके निर्देशों का उल्लंघन कर रहे हैं.
क्या है पूरा मामला?
यह मुद्दा 1975 का है, जब आदिवासी समुदायों को कथित तौर पर बाहर निकाल दिया गया था. अप्रैल 2009 में कर्नाटक हाई कोर्ट के आदेश के बावजूद परिवारों के पुनर्वास में देरी के कारण दावों को लेकर भ्रम की स्थिति बढ़ गई है.
वहीं सुप्रीम कोर्ट ने वन अधिकार अधिनियम के तहत जिन 17 लाख से अधिक परिवारों के दावे खारिज कर दिए गए थे, उन्हें बेदखल करने का आदेश देने के बाद सरकार को दावों पर पुनः विचार करने का निर्देश दिया.
(Image credit: Community Network Against Protected Areas)